-विजय कुमार
हर दस साल बाद होने वाली जनगणना का कुछ अंश पूरा हो चुका है, जबकि मुख्य काम (संदर्भ बिन्दु) नौ से 28 फरवरी, 2011 तक होगा। इससे संबंधित दो विषय महत्वपूर्ण हैं। एक है धर्म और जाति का, जबकि दूसरा भाषा और बोली का है। इन दोनों पर विचार कर हमें अपनी भूमिका निश्चित करनी होगी।
जहां तक धर्म की बात है, हिन्दुओं से इतर लोग स्वाभाविक रूप से अपना धर्म (मजहब) मुसलमान या ईसाई लिखाएंगे। यद्यपि इनमें भी अनेक पंथ, सम्प्रदाय, जातियां आदि हैं। उनमें खून-खराबा भी होता है; पर जनगणना में वे इन भेदों को भुलाकर एक हो जाते हैं। इससे जनगणना के निष्कर्षों में इनकी संख्या बहुत अधिक दिखाई देती है।
हिन्दू होने के नाते हमें भी स्मरण रखना होगा कि हिन्दुस्थान की मिट्टी में जन्मे, पले और विकसित हुए सभी धर्म, पंथ, सम्प्रदाय आदि हिन्दू ही हैं। हिन्दू एक मानवतावादी जीवन शैली है, जिसे कोई भी अपना सकता है, चाहे उसकी पूजा पद्धति, अवतार या पैगम्बर परम्परा कुछ भी हो। एक जीवित धर्म होने के नाते हिन्दू धर्म में कई बार सुधार और विकास के प्रयास हुए हैं। इसमें से ही जैन, बौद्ध, कबीरपंथी, सिख, आर्य समाज आदि पंथ और सम्प्रदायों का उदय हुआ। जैसे पिता की शक्ति उसकी संतानों में होती है, ऐसे ही हिन्दू धर्म की शक्ति उसके पंथ और सम्प्रदायों में है। इसलिए हमारा पंथ या सम्प्रदाय चाहे जो हो; पर जनगणना में हमें धर्म के वर्ग में ‘हिन्दू’ ही लिखाना चाहिए।
हो सकता है कुछ लोगों को इससे अपनी पहचान खो जाने का भय हो। यद्यपि माता-पिता अपनी संतानों को आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न ही होते हैं। फिर भी किसी के मन में शंका हो, तो वह हिन्दू जैन, हिन्दू बौद्ध या हिन्दू सिख आदि लिखवा सकता है।
जाति का विषय भी ऐसा ही है। स्वतन्त्र भारत की जनगणना में कभी जाति नहीं पूछी गयी; पर इस बार कुछ ऐसे राजनेताओं ने यह बात उठाई है, जिनकी राजनीति का आधार कोई एक राज्य और जाति ही है। दुर्भाग्यवश कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे बड़े दल भी इस षड्यन्त्र में फंस गये हैं। अब तो मंत्रिमंडलीय समिति ने भी इसे मान लिया है। इससे जातिवाद की आग पर अपनी राजनीतिक रोटी सेकने वाले प्रसन्न हैं, जबकि देश की एकता और अखंडता के प्रेमियों को निराशा हाथ लगी है।
इस समय अधिकांश प्रबुद्ध लोग, विशेषकर शिक्षित युवा वर्ग जातिवाद के उभार से दुखी है; पर जातिवादियों का स्वर संसद में अधिक मुखर है। एक ओर सगोत्र और अन्तरजातीय विवाह के नाम पर हो रही हत्याओं के विरोध में कानून बनाने की बात हो रही है, तो दूसरी ओर जनगणना द्वारा जातिवादी जहर के बीज बोये जा रहे हैं। यदि देशभक्त जनता, सामाजिक संस्थाएं तथा बुद्धिजीवी इसके विरोध में खड़े हो जाएं, तो उन्हें भरपूर समर्थन मिलेगा और इन जातिवादियों की करारी हार होगी।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि अपनी जाति क्या बताएं ? कुछ लोग इसके लिए ‘मेरी जाति हिन्दुस्तानी’ नामक आंदोलन चला रहे हैं। हम उन्हें बधाई देते हैं; पर हिन्दुस्तानी या हिन्दुस्थानी शब्द जहां से आया है, उस मूल शब्द अर्थात ‘हिन्दू’ को स्वीकार करने में उन्हें क्या आपत्ति है, यह बात समझ नहीं आती।
यहां एक बार फिर स्पष्ट करना होगा कि हिन्दू किसी पूजा पद्धति, वर्ग, पंथ या सम्प्रदाय से बंधा हुआ नहीं है। हिन्दुस्थान के प्रति जिसके मन में श्रद्धा का भाव है, वह हिन्दू है। अतः जाति वाले वर्ग में भी हमें स्पष्टतः ‘हिन्दू’ ही लिखाना चाहिए।
कुछ लोगों का मत है कि जाति का संबंध काम से है। किसी समय यह बात सच रही होगी; पर अब इसे पूर्णतः सच नहीं माना जा सकता। इसलिए अच्छा होगा कि हम इससे ऊपर उठकर अपनी जाति ‘हिन्दू’ मानें। फिर भी किसी को अपने अतीत से बहुत मोह हो, तो वह जाति वाले वर्ग में हिन्दू धोबी, हिन्दू नाई, हिन्दू ठाकुर, हिन्दू पंडित या हिन्दू गुप्ता, हिन्दू सक्सेना, हिन्दू मराठा या हिन्दू मारवाड़ी आदि लिखवा सकता है।
जनगणना में पहली और दूसरी भाषा भी पूछी जाती है। हमारी पहली भाषा निःसंदेह हमारी मातृभाषा है। मातृभाषा अर्थात जिस भाषा में मां अपने शिशु से संवाद करती है। वह हिन्दी, मराठी, बंगला, तमिल या कोई भी भारतीय भाषा हो सकती है। सबको गर्वपूर्वक उसका ही उल्लेख करना चाहिए।
लेकिन यहां भाषा और बोली संबंधी एक पेंच भी है। जिस भाषा के जितने अधिक बोलने वाले होते हैं, उसके समाचार पत्रों को उतने अधिक सरकारी विज्ञापन मिलते हैं। भाषा के आधार पर फिर अकादमियां बनती हैं, जिससे कुछ लोग शासकीय पद पा जाते हैं। ये अकादमियां शासकीय अनुदानों से पुरस्कार बांटकर साहित्यकारों को उपकृत करती हैं। कुछ लोग भाषा के आधार पर अलग राज्य और सत्ता के सपने देखने लगते हैं। इसलिए बोलियों को भी भाषा घोषित कराने का इन दिनों अभियान सा चला है।
जैसे हिन्दू धर्म में सैकड़ों पंथ और सम्प्रदाय हैं, ऐसे ही हर भाषा में भी अनेक बोलियां होती हैं, जो मिलकर भाषा को समृद्ध करती हैं। जैसे हिन्दी में ही अवधी, ब्रज, खड़ी, पहाड़ी, भोजपुरी, मैथिली, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी आदि सैकड़ों बोलियां हैं। इनमें से लाखों-करोड़ों लोगों द्वारा बोली जाने वाली बोलियों को कुछ नेता और साहित्यकार स्वतन्त्र भाषा घोषित कराना चाहते हैं। वे भूलते हैं कि बोली में शब्दों का महत्व है, जबकि भाषा में शब्दों के साथ व्याकरण भी चाहिए। इसलिए मातृभाषा के रूप में अपनी मूल भाषा को महत्व दें, बोली को नहीं।
जहां तक दूसरी भाषा की बात है, वह निश्चित रूप से संस्कृत ही है। भारत की सब भाषाओं की जननी संस्कृत है। हर भाषा में 50 से 75 प्रतिशत शब्द संस्कृत के ही हैं। हम दिन भर अधिकांश संस्कृत शब्द ही प्रयोग करते हैं। विजय, अजय, सुरेश, रमेश, पंकज, आनंद, नूपुर, मेघा, वंदना आदि नाम और जल, वायु, आकाश, अग्नि आदि संस्कृत शब्द ही हैं। पूजा और आरती आदि में भी हम संस्कृत मंत्रों का प्रयोग करते हैं। देवनागरी लिपि के कारण संस्कृत को पढ़ना भी आसान है। इसलिए जनगणना में अपनी दूसरी भाषा हमें ‘संस्कृत’ ही लिखानी चाहिए।
जनगणना के निष्कर्षों के आधार पर ही आगामी नीतियां बनती हैं। जैसे माता-पिता की समृद्धि से उनके बच्चों को लाभ होता है, ऐसे ही हिन्दू धर्म, हिन्दू जाति, हिन्दी, संस्कृत तथा भारतीय भाषाओं की समृद्धि से अन्ततः हिन्दुस्थान ही सबल होगा।
भाषा के लिए भी यही नीति अपनाते हुए प्राथमिकता के आधार पर अपनी मातृभाषा और फिर हिन्दी तथा संस्कृत का उल्लेख करें। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित भोजपुरी, मैथिली, मगही, अवधी, पहाड़ी, ब्रज, खड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेलखंडी, मारवाड़ी आदि बोलियां भी हिन्दी ही हैं। वस्तुत: ये सब मिलकर ही हिन्दी हैं। इनके बिना हिन्दी अधूरी है। हाथ, पैर, नाक, कान के बिना शरीर लूला है और शरीर के बिना ये सब निर्जीव। केवल एक पुरुष या महिला से घर नहीं बनता। इसके लिए तो दादा-दादी, चाचा-चाची, नौकर-चाकर और गाय-बैल से लेकर बच्चों का शोर-शराबा तक सब जरूरी हैं। इस नीति से अंग्रेजी का वर्चस्व टूटेगा, भारतीय भाषाओं की जय होगी और ‘हिन्दू हम सब एक’ का संकल्प पूरा होगा।जहां तक दूसरी भाषा की बात है, वह निश्चित रूप से संस्कृत ही है। भारत की सब भाषाओं की जननी संस्कृत है। हर भाषा में 50 से 75 प्रतिशत शब्द संस्कृत के ही हैं। हम दिन भर अधिकांश संस्कृत शब्द ही प्रयोग करते हैं। विजय, अजय, सुरेश, रमेश, पंकज, आनंद, नूपुर, मेघा, वंदना आदि नाम और जल, वायु, आकाश, अग्नि आदि संस्कृत शब्द ही हैं। पूजा और आरती आदि में भी हम संस्कृत मंत्रों का प्रयोग करते हैं। देवनागरी लिपि के कारण संस्कृत को पढ़ना भी आसान है। इसलिए जनगणना में अपनी दूसरी भाषा हमें ‘संस्कृत’ ही लिखानी चाहिए।
जनगणना के निष्कर्षों के आधार पर ही आगामी नीतियां बनती हैं। जैसे माता-पिता की समृद्धि से उनके बच्चों को लाभ होता है, ऐसे ही हिन्दू धर्म, हिन्दू जाति, हिन्दी, संस्कृत तथा भारतीय भाषाओं की समृद्धि से अन्ततः हिन्दुस्थान ही सबल होगा
आपका गोत्र क्या है ? आपकी जाती क्या है ? आप खत्री हो या अरोरा हो ?
जब भी हमारे परिवार में किसी अवसर यह पूछा जाता है तो सभी बड़े छोटे एक दुसरे का मुह देखते है.
Does Census 2011 gives us the right of unilateral declaration of our caste ?
vijay kumar ji apane purantah saty likha hai,our mai apaki prateyak bat ka samrthan karata hu.esake pahale vala comment apake liye nahi tha.
hahah jatigat jangadana ki bat jab se suni hai,jati todane ki bat karane vale jativadi log uchhal rahe hai,tarah tarah ke tark diye ja rahe hai,hajaro salo tak enhone raj kiya unhone raj kiya falana dhigana ye vo vo……………….par tark???samarasata??desh???sab gol.sarakari malayi ko khane ki jese hod machi hai.hindu drohiyo ki to po bahara ho gayi hai.
jo jo tark chrition log dete hai,jo jo tark anagrej diya karate the,vo hi tark yaha copy paste ho rahe hai,kisis ko vishvas nahi hota to jara google mai search mar kar dekh lijijega.en desh todu communisto ki chali to pure desh ko jaatiy jhagade ka akhada bana denge our es kam me unake sath congress our bhajapa dono khado hongi……………
mahoday,
ye lekh sirf is dar ko paribhashit karta hai ki jin mutthi bhar logo ne aaj tak raaj kiya hai un par nakel padne wali hai. abhi pc work nahi kar raha hai aapne ek sath kai taar ched diye hain ……..
is par vistaar se baad me baat hogi