डॉ. नीरज भारद्वाज
व्यक्ति जब किसी समाज का सदस्य बनता है तो वह उस समाज में रहने के लिए, उसके सदस्यों से सम्बन्ध बनाए रखने के लिए उस समाज के तौर-तरीके, आचार-व्यवहार और भाषा को सीखता है, इससे वह अन्य सदस्यों के साथ भली-भाँति उठ बैठ सकता है और उसके व्यवहार में कोई बात अनुचित न लगे ऐसा मानकर चलता है। समाज में परस्पर विचार-विनिमय के लिए प्रयुक्त होने वाली इस भाषा का एकमात्र प्रयोजन लोगों के साथ सम्प्रेषण करना है। सम्प्रेषण की सार्थकता वक्ता-श्रोता या लेखक-पाठक के ऐसे संकल्प में निहित होती है जिसे वे भली-भाँति समझ कर उसका तात्पर्य ग्रहण कर सकें। भाषा समाज को जोड़ने का काम करती है। समयानुसार भाषा में परिवर्तन होता रहता है और इसमें अलग-अलग शब्द प्रयोग भी होते रहते हैं। सामान्य जीवन में देखें तो सभी के लिए एक जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं होता है। व्यक्ति हर एक स्थिति में अलग-अलग भाषा प्रयोग करता है, कभी भाषा में आदरसूचकता और सम्मान होता है, तो कभी खड़ापन या अमर्यादितपन भी उभर कर आ जाता है।
भाषा लोक व्यवहार और समाज के साथ चलती है। किसी भी भाषा में मुहावरें और लोकोक्तियों का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता है। मुहावरें और लोकोक्तियाँ भाषा में सौंदर्य उत्पन्न कर देते हैं। यह कम शब्दों में लोगों तक बड़ा विचार पहुंचा देते हैं। हर क्षेत्र विशेष की अपनी-अपनी लोकोक्ति और मुहावरें हैं। चाल शब्द को लेकर कितने ही भाषा प्रयोग हमारे सामने आते हैं, जैसे- चाल चलना, शतरंज की चाल, हाथी जैसी चाल, भेड़ चाल आदि। चाल से जुड़े यह शब्द भाषा में अलग-अलग प्रयोग होते हैं और अर्थ ही बदल देते हैं। राजनीति में सबसे ज्यादा चाल चली जाती हैं, खेल के क्षेत्र में विरोधी दल एक दूसरे के प्रति चाल चलते हैं। जब भी कोई व्यक्ति किसी के साथ धोखेबाजी करता है तो उससे पहले वह कितनी ही चाल चलता है, फिर व्यक्ति को धोखा देता है। कई बार चाल उल्टी भी पड़ जाती है। जब व्यक्ति मस्ती में होता है तो वह हाथी जैसी मस्त चाल में चलता है। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि शाम को खाना खाने के बाद हाथी जैसी चाल में चलना चाहिए।
भेड़ चाल को मूर्खता का प्रतीक माना जाता है। कहा यह जाता है कि एक भेड़ जिधर हो लेती है तो उसके पीछे-पीछे सभी चलने वाले भेड़ भी उस ओर हो लेते हैं। चाहे आगे कितना ही बड़ा खतरा क्यों ना हो। अर्यादित भीड़ को भी कई बार भेड़ चाल का नाम दे दिया जाता है। भेड़ एक बार जिधर मुंह उठा लेता है, फिर उस ओर ही हो लेता है, चाहे इसमें खतरा क्यों ना हो। भेड़ और भीड़ में बड़ा अंतर है। भेड़ पशु है, वह विचार नहीं कर सकता, दूसरों के हित-अहित कि नहीं सोच सकता। जबकि भीड़ में मानव है, वह सोच-समझ और विचार कर सकता है। मानव भी पशुतुल्य व्यवहार कैसे करता है? यह सोचने-समझने और विचार करने की बात है।
भारतीय जनमानस ने युगों-युगों से वसुधैव कुटुंबकम और विश्व कल्याण का विचार आगे बढ़ाया है। सेवा का भाव अपने अंदर रखे हुए हैं। सुख-दुख में लोगों के साथ जुड़ा रहना या खड़ा रहना हमारा सबसे बड़ा कार्य है। फिर भी लोगों की सोच को कुछ लोग भ्रष्ट कर देते हैं। छोटे-छोटे स्वार्थों के कारण लोग एक दूसरे की बातों में आ जाते हैं। वह स्वयं का और राष्ट्र का दोनों का अहित कर देते हैं। बिना सोचे-विचारे किसी भी काम में कूद पड़ते हैं और भेड़ चाल बन जाते हैं। राष्ट्र चिंतन को छोड़कर स्वार्थ चिंतन में उतर जाते हैं। विचारणीय बात यह है कि राष्ट्र सर्वोपरि है।
डॉ. नीरज भारद्वाज