उच्च शिक्षा की चुनौतियां: स्वायत्तता, एकरूपता एवं गुणवत्ता

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भारतीय संविधान की समवर्ती सूची में जिन विषयों को रखा गया है उन विषयों पर संघ एवं राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। शिक्षा के समवर्ती सूची में होने के कारण कुछ विषयों पर शिक्षा से संबंधित नियमों में कभी-कभी केन्द्र एवं राज्य दोनों में एकरूपता नजर नहीं आती है, जिसकी परिणति कई तरह के विवादों के रूप में सामने आती है।
उच्च शिक्षा में सेवानिवृत्ति आयु को लेकर स्वायत्तता एवं एकरूपता से संबंधित जीवंत उदाहरण हमारे सामने है। मुरैना, मध्यप्रदेश के शासकीय महाविद्यालय में पदस्थ शिक्षक 65, मुरैना से 30 कि0मी0 दूर धौलपुर, राजस्थान में 60 तथा धौलपुर से 60 कि0मी0 दूर आगरा, उत्तरप्रदेश में उच्च शिक्षा में पदस्थ शिक्षक 62 साल में सेवानिवृत्त हो रहे हैं। आगरा से थोड़ा और आगे बढ़ जायें तो यहां से लगभग 140 कि0मी0 दूर पलवल, हरियाणा में शासकीय महावि़द्यालय में पदस्थ शिक्षक 58 तथा विश्वविद्यालय में पदस्थ शिक्षक 60 साल में सेवानिवृत्त हो रहे हैं। हरियाणा की तरह मध्यप्रदेश में भी दो तरह की सेवानिवृत्ति आयु है। मध्यप्रदेश में विश्वविद्यालय एवं शासकीय महाविद्यालय में 65 तथा अनुदानित महाविद्यालयों में पदस्थ शिक्षक 62 साल में सेवानिवत्ृत हो रहे हैं। सेवानिवृत्ति आयु के संबंध में इस तरह की विविधता (58, 60, 62 एवं 65 साल) शायद ही कहीं ओर देखने को मिले। चूंकि वर्तमान में मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश एवं हरियाणा में एक ही राजनीतिक दल की सरकार है, इसलिए इन चारों राज्यों में इस समय सेवानिवृत्ति आयु में एकरूपता के लिये सकारात्मक पहल की जा सकती है।
सेवानिवृत्ति आयु की तरह ही कुलपति के कार्यकाल में भी एकरूपता नहीं है। कुलपति का कार्यकाल उत्तरप्रदेश एवं राजस्थान में 3 मध्यप्रदेश में 4 तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 5 साल है। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एकमात्र ऐसा केन्द्रीय विश्वविद्यालय है जहां कुलपति का कार्यकाल 3 साल है। मध्यप्रदेश में जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में कुलपति का कार्यकाल 5 साल है, जबकि प्रदेश के अन्य विश्वविद्यालयों में कुलपति का कार्यकाल 4 साल है। शिक्षकों की सेवानिवृत्ति आयु की तरह ही कुलपति के कार्यकाल में भी इस इस तरह की विविधता (3, 4 एवं 5 साल) शायद कहीं ओर देखने को नहीं मिलेगी।
कुलपति की नियुक्ति में यूजीसी के निर्धारित मानदण्डों का पालन भी सभी जगह नहीं किया जा रहा है जिसके कारण कई प्रदेशों में कुलपति की नियुक्ति को लेकर कई तरह के न्यायालयीन प्रकरण न्यायालयों में विचाराधीन हैं। यूजीसी विनियम के अनुसार ‘‘सर्वोच्च दक्षता, सत्यनिष्ठा, नैतिकता एवं संस्थागत प्रतिबद्वता के सर्वोच्च व्यक्तियों को कुलपति के रूप में नियुक्त किया जायेगा।’’ इसके बावजूद भी कुलपति की नियुक्ति को लेकर न्यायालयों में विचाराधीन प्रकरण प्रचलित व्यवस्था एवं हमारी उच्च संस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहे हैं।
वर्तमान में देश में 47 केन्द्रीय विश्वविद्यालय, 123 सम (डीम्ड) विश्वविद्यालय, 288 निजी विश्वविद्यालय एवं 370 राज्य विश्वविद्यालय कार्य कर रहे हैं। राज्य विश्वविद्यालयों को छोड़कर अन्य विश्वविद्यालय पूरी तरह से महाविद्यालयों की सम्बद्वता के कार्य से मुक्त हैं। केन्द्रीय, डीम्ड एवं निजी विश्वविद्यालयों का स्वरूप लगभग एक सा ही है, क्योंकि इनके ऊपर महाविद्यालयों की सम्बद्वता का भार नहीं रहता है। इन विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को सिर्फ शिक्षण एवं शोध कार्य करना होता है, जिसके कारण इनके कार्यों में राज्य विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की तुलना में गुणवत्ता बहाल होने की अधिक संभावना रहती है। यूजीसी द्वारा शिक्षकों की नियुक्तियों एवं प्रमोशन के लिये जो अर्हतायें रखी गई हैं वे सभी विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिये एक सी हैं, जबकि राज्य विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को सम्बद्व महाविद्यालयों का निरीक्षण, नियुक्तियां, परीक्षा, उड़नदस्ता एवं परीक्षा परिणाम सहित लगभग सभी दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता है। सम्बद्वता के इस अतिरिक्त कार्य का खामियाजा राज्य विश्वविद्यालयों के शिक्षण विभागों (अध्ययनशालाओं) को भुगतना पड़ रहा है तथा यह विश्वविद्यालय अपने शिक्षण एवं शोध में वह गुणवत्ता नहीं रख पा रहे हैं जिनके लिये इनकी स्थापना की गई है। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों एवं केन्द्रीय संस्थानों की तुलना में राज्य विश्वविद्यालयों को बहुत कम अनुदान मिलता है। अनुदान कम मिलने के कारण वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर होने के लिये राज्य विश्वविद्यालय कई तरह के स्ववित्तीय पाठ्यक्रम प्रारंभ करते जा रहे हैं। चूंकि सालों से इन स्ववित्तीय पाठ्यक्रमों में स्थायी शिक्षकों की नियुक्तियां नहीं हुई हैं इसलिए सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिना स्थायी शिक्षकों के यह विश्ववि़द्यालय इन पाठ्यक्रमों में कितनी गुणवत्ता रख पा रहे होंगे।
कई राज्यों में उच्च शिक्षा से जुड़े शिक्षकों को नौकरी में रहते हुए राजनीतिक गतिविधियों मंे भाग लेने का अधिकार है। कुछ राज्यों में पद पर रहते हुए शिक्षक राजनीतिक दल का पदाधिकारी भी रह सकता है, जबकि बहुत से राज्यों में विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय के शिक्षकों को नौकरी में रहते हुए यह सब करने की आजादी नहीं है। कई राज्यों में विधान परिषद है जिसमें शिक्षकों का निर्धारित कोटा रहता है, जबकि बहुत से राज्यों में विधान परिषद ही नहीं है।
विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के चयन में यूजीसी द्वारा दिये गये दिशा-निर्देशों के अनुसार चयन समिति में सम्बद्ध संकाय के डीन एवं विभागाध्यक्ष/विभाग प्रमुख को भी रखा गया है। इसके पीछे शायद यूजीसी की यह मंशा रही होगी कि चयन समिति में स्थानीय प्रतिनिधित्व भी बना रहे, लेकिन कई जगहों पर शिक्षकों के चयन में चयन समिति में डीन एवं विभागाध्यक्ष दोनों को ही शामिल नहीं किया जा रहा है। परिणामस्वरूप यदि कुलपति कहीं बाहर से हैं तो चयन समिति में स्थानीय प्रतिनिधित्व ही नहीं रह जाता है। यूजीसी द्वारा दिये गये स्पष्ट दिशा-निर्देशों के बावजूद भी शिक्षकों की चयन समिति में एकरूपता न होना आश्चर्यजनक है।
उच्च शिक्षा में तीन प्रमुख कार्य करने होते हैं – शिक्षण, शोध तथा अकादमिक प्रशासन। किसी भी शिक्षक का समान रूप से इन तीनों पर अधिकार होना आसान कार्य नहीं है। किसी की शिक्षण में अधिक रूचि होगी तो किसी की शोध में तथा किसी में अकादमिक प्रशासनिक दायित्वों को अच्छी तरह निभाने की क्षमता होगी। एपीआई (अकादमिक कार्य निष्पादन सूचक) व्यवस्था के माध्यम से सभी को एक जैसा बनाने का प्रयास किया जा रहा है, जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि शिक्षक अपनी अभिरूचि वाला क्षेत्र मजबूत करने के बजाय जिसमें वह कमजोर है उसमें अधिक समय दे रहा है क्योंकि नियुक्ति तथा प्रमोशन में उसे इन तीनों में अपनी दक्षता प्रदर्शित करनी होती है। एपीआई व्यवस्था लागू होने के बाद रिसर्च जर्नल, शोध संगोष्ठियां, शोध सेमीनार तथा पुस्तकों की बाढ़ सी आ गई है। इनकी संख्या के आधार पर यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा मंे शोध में हम कितनी गुणवत्ता रख पा रहे होंगे। शोध में गुणवत्ता बहाली के लिये हमें शोध अनिवार्य नहीं बल्कि ऐच्छिक करना होगा। शोध में सिर्फ वे ही आगे बढं़े, जिनकी वास्तव में शोध में रूचि हो।
यूजीसी-नेट पास छात्र देश के किसी भी विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय में सहायक प्रध्यापक पद पर आवेदन करने के लिए योग्य हैं। लेकिन देश मे ऐसे बहुत से छात्र मिल जाएंेगे जिन्हें कई उच्चतर शैक्षिणिक संस्थानों ने यूजीसी-नेट पास होने के बावजूद भी सहायक प्रध्यापक पद के लए अयोग्य घोषित कर दिया है, क्यांेकि यूजीसी-नेट के लिए सिर्फ स्नातकोत्तर में 55 प्रतिशत (ओबीसी.,एससी.,एवं एसटी के लिए 50 प्रतिशत) होना आवश्यक है अर्थात 10वीं 12वीं एवं स्नातक के अंको के बारे मे यूजीसी द्वारा कोई सीमा तय नहीं की गई है। चूंकि यूजीसी ने ‘गुड ऐकेडमिक रिकॅार्ड‘ निर्धारित करने का अधिकार संबंधित विश्वविद्यालय को दे रखा है, इसलिए कई विश्वविद्यालय 10वीं ,12वीं एवं स्नातक मंे ऐसी न्यूनतम सीमा निर्धारित कर लेते हैं जिसके कारण यूजीसी नेट पास छात्र भी सहायक प्रध्यापक पद के लिए अयोग्य हो जाते हैं। यूजीसी-नेट पास छात्र को सहायक प्रध्यापक पद के लिए अयोग्य ठहराना किसी भी रूप में न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता हैे।
राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष में दो बार आयोजित होने वाली यूजीसी-नेट की परीक्षा को एम.फिल./पी-एच.डी. में प्रवेश, स्कालरशिप एवं छात्रों को मिलने वाली अन्य सुविधाओं के लिये भी आधार की तरह आधार बनाया जा सकता है। यूजीसी-नेट की परीक्षा साल में दो बार आयोजित होने के बावजूद भी सभी विश्वविद्यालयों द्वारा अलग-अलग एम.फिल./पी-एच.डी. परीक्षा आयोजित करवाना समझ से परे है। एम.फिल./पी-एच.डी. प्रवेश परीक्षा के लिये यूजीसी नेट परीक्षा को आधार बनाना उच्च शिक्षा में एकरूपता तथा गुणवत्ता स्थापित करने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम साबित हो सकता है।
विश्वविद्यालयों में एकसूत्रता लाने और स्तरमानों का निर्धारण करने के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की स्थापना की गई है। यूजीसी द्वारा जारी दिशा-निर्देश भारत के राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद भी सभी राज्यों में समय पर लागू नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि राज्य विश्वविद्यालयों में लागू करने के पहले यूजीसी के दिशा-निर्देशों को राज्यस्तर पर अंगीकृत किया जाता है। परिणामस्वरूप ‘भारत के राजपत्र’ में ‘‘…. तुरन्त प्रभावी रूप से लागू होंगे’’, ‘‘… भारत के राजपत्र में प्रकाशित होने की तिथि से लागू हो जायेंगे’’ – लिखे रहने के बावजूद भी यूजीसी द्वारा जारी दिशा-निर्देशों को राज्य विश्वविद्यालयों में लागू होने में बहुत समय लग जाता है। इन परिस्थितियों में विश्वविद्यालयों में एकसूत्रता और स्तरमानों का निर्धारण करना यूजीसी के लिये आसान काम नहीं है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा ‘नई शिक्षा नीति’ के लिये उच्च शिक्षा के संबंध में जो नीतिगत परामर्श लिया जा रहा है उसमें उच्च शिक्षा में गुणवत्ता संबंधी आश्वासन को नीतिगत कार्यसूची में सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है तथा मंत्रालय द्वारा राज्य विश्वविद्यालयों में सुधार हेतु विचार-विमर्श के लिये जो बिन्दु रखे हैं उनमें ‘सम्बद्व करने की प्रणाली में सुधार’ को पहले स्थान पर रखा गया है। इसी प्रपत्र में मंत्रालय द्वारा विश्वविद्यालय में नौकरशाही का बोलबाला, शिक्षकों की बेहद कमी, शिक्षकों को तदर्थ रूप से नियुक्त करना, कम भुगतान से इनका शिक्षण एवं अनुसंधान प्रभावित होना, विश्वविद्यालयों द्वारा निर्णय लेने में स्वतंत्र न होना, अत्यंत निम्न शोध-स्तर, इन विश्वविद्यालयों द्वारा दी जाने वाली डाॅक्टरेट की निम्न गुणवत्ता एवं कुलपतियों की नियुक्ति आदि बातों का उल्लेख भी किया गया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नेक) से प्राप्त स्कोर के आधार पर उच्च शिक्षण संस्थानों को तीन श्रेणियों में रखने का प्रयास कर रही है तथा इसी नेक स्कोर के आधार पर ही संस्थानों को स्वायत्तता देने पर विचार किया जावेगा।
स्पष्ट है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय एवं यूजीसी उच्च शिक्षा में विद्यमान समस्याओं से पूरी तरह वाकिफ हैं, अब देखना यह है कि ‘नई शिक्षा नीति’ में इन समस्याओं का समाधान किस तरह से किया जाता है। शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये केन्द्र एवं राज्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए स्वायत्तता एवं एकरूपता में संतुलन के माध्यम से ही उच्च शिक्षा में गुणवत्ता बहाल करने का प्रयास किया जाना चाहिए।

प्रो. एस.के.सिंह
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर।

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