व्यवस्था परिवर्तन अर्थात.. ?

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विजय कुमार

इन दिनों जिधर देखो व्यवस्था परिवर्तन का शोर है। हर कोई इसका झंडा लिये दूसरों को गरिया रहा है। राहुल बाबा इस मैदान में सबसे नये खिलाड़ी के रूप में उतरे हैं।

गत चार नवम्बर, 2012 को दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई कांग्रेसी रैली में भाषण देते हुए उन्होंने हर दूसरे वाक्य में व्यवस्था परिवर्तन का रोना रोया; पर वे भूल गये कि दिल्ली की सत्ता पर आजादी के बाद से पांच-सात साल छोड़कर बाकी समय कांग्रेस और उसमें भी उनके पूर्वजों का ही राज्य रहा है। ऐसे में यदि व्यवस्था खराब है, तो उसकी दोषी कांग्रेस ही है।

राहुल बाबा तो अभी बच्चे हैं। उन्हें राज्य या केन्द्र सरकार में किसी मंत्रालय को चलाने का कोई अनुभव नहीं है। दल में भी उन्हें जब से बड़ी जिम्मेदारी मिली है, तब से प्रायः कांग्रेस को पराजय ही मिल रही है। ऐसे में व्यवस्था परिवर्तन की दुहाई देकर वे किसे गाली दे रहे हैं और क्या करना चाहते हैं, यह समझ नहीं आता। हां, इतना जरूर स्पष्ट होता है कि वे पूरी तरह भ्रमित हैं।

व्यवस्था परिवर्तन की बात समय-समय पर कई नेताओं ने कही है। आजादी मिलते ही गांधी जी ने इस विषय को उठाया। इस बारे में अपने विचार वे ‘हिन्द स्वराज’ में लिख चुके थे। ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को उन्होंने ‘बांझ’ कहा था। वे कांग्रेस की समाप्ति, ग्राम स्वराज, कुटीर उद्योग तथा भारतीय भाषाओं की उन्नति चाहते थे; पर नेहरू ने उनके सामने ही इसका घोर विरोध किया था।

इसीलिए 15 अगस्त, 1947 के बाद जब सत्तालोभी नेता जश्न में डूबे थे, तब गांधी जी दंगाग्रस्त क्षेत्र में घूम रहे थे। यद्यपि यह प्रश्न आज तक अनुत्तरित है कि उन्होंने जनमत को ठुकरा कर सरदार पटेल की बजाय अपने विचारों के घोर विरोधी नेहरू को प्रधानमंत्री क्यों बनवाया ? क्या नेहरू के पास गांधी जी के कुछ ऐसे रहस्य सुरक्षित थे, जिसे वे दबे ही रहने देना चाहते थे ? बड़े से बड़े गांधीवादी के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है।

गांधी जी के जाने के बाद नेहरू निरंकुश हो गये। सत्ता और दल, दोनों उनके कब्जे में थे। वे पश्चिम की नकल करते हुए भारत की सभी व्यवस्थाओं को अपने रंग में रंगने लगे। इस प्रकार उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि 15 अगस्त, 1947 को देश को सच्ची स्वाधीनता नहीं मिली, केवल सत्ता का हस्तांतरण ही हुआ। अतः साठ के दशक में भारत और भारतीयता के समर्थक समाजवादी नेता डा0 राममनोहर लोहिया ने एक बार फिर व्यवस्था परिवर्तन का बीड़ा उठाया।

लोहिया जी कांग्रेस के विरोध में एक सामूहिक मंच बनाना चाहते थे। इसमें भारतीय जनसंघ के श्री दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख ने उन्हें पूरा सहयोग दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस सत्ताच्युत हो गयी।

डा0 लोहिया ने व्यवस्था परिवर्तन के लिए ‘सप्तक्रांति’ का नारा दिया था। उनकी सप्तक्रांति के मुख्य बिन्दु निम्न थे।

1. स्त्री-पुरुष में समानता

2. जन्मगत जाति व्यवस्था का विरोध

3. शरीर के रंग पर आधारित भेदभाव की समाप्ति

4. हर तरह की गुलामी का अंत

5. निजी पूंजी के शोषण की समाप्ति

6. निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप का अंत

7. अस्त्र-शस्त्र के आतंक की समाप्ति

डा0 लोहिया के इस नारे और अभियान से उत्तर भारत में सत्ता तो बदली; पर शेष व्यवस्था वैसी ही रही। दुर्भाग्यवश डा0 लोहिया केवल 57 वर्ष की अल्पायु में ही चल बसे। अन्यथा शायद वे इस बारे में कुछ अधिक कर पाते।

यह भी एक विसंगति ही है कि स्वयं को उनका शिष्य कहने वाले सब नेताओं ने अपने-अपने जातीय, क्षेत्रीय और घरेलू गिरोह बना रखे हैं। इसी आधार पर वे चुनाव भी लड़ते हैं। मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव से लेकर रामविलास पासवान तक सब स्वयं को समाजवादी कहते हैं; पर ये सब एक दूसरे के धुर विरोधी हैं। वस्तुतः ये सब केवल सत्ताप्रेमी हैं, यह उनके क्रिया कलापों को देखकर स्पष्ट हो जाता है।

डा0 लोहिया के बाद जयप्रकाश नारायण ने व्यवस्था परिवर्तन की बात कही। इसके लिए उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का नारा दिया; पर इस सम्पूर्ण क्रांति का विश्लेषण वे नहीं कर सके। 1974-75 में इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध हुए आंदोलन में उनके प्रमुख सहयोगी नाना जी देशमुख ने भी यह माना है। जयप्रकाश नारायण ने भी एक लेख में यह लिखा था कि पांच जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान में हुई विराट सभा में उनके मुंह से यह बात अचानक ही निकल गयी। इसके बाद यह नारा लोकप्रिय होता चला गया।

जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण क्रांति वस्तुतः सप्तक्रांति का ही दूसरा नाम था। डा0 लोहिया जहां हिन्दीभाषी उत्तर भारत के राज्यों में सत्ता परिवर्तन में सफल हुए, वहां जयप्रकाश जी के आंदोलन से दिल्ली की सत्ता बदल गयी; पर इस आंदोलन की गरमी दक्षिण भारत तक नहीं पहुंच सकी। अतः दक्षिणी राज्यों ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस का ही साथ दिया।

डा0 लोहिया के अनुयायियों ने उनके मरते ही उनके सिद्धान्तों और आकांक्षाओं को आग में झोंक दिया; पर जयप्रकाश जी के नाम पर संसद में पहुंचे लोग तो उनके सामने ही लड़ने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि जिस इंदिरा गांधी और उनकी तानाशाही के विरुद्ध यह सारा आंदोलन चला था, वह ढाई साल बाद फिर सत्ता में आ गयीं। अर्थात डा0 लोहिया हों या जयप्रकाश नारायण, दोनों के आंदोलनों से सत्ता परिवर्तन तो हुआ; पर व्यवस्था वही रही।

इंदिरा गांधी के बाद मिस्टर क्लीन राजीव गांधी सत्तासीन हो गये। उन्होंने सत्ता और दल को भ्रष्ट राजनीतिक दलालों से मुक्त करने की बात कही; पर कुछ समय बाद वे स्वयं ही बोफोर्स की दलाली में गंदे होकर सत्ता से बाहर हो गये। इसके लिए जो अभियान चला, उसका नेतृत्व विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया। यद्यपि उसे अन्य विपक्षी नेताओं का भी खुला समर्थन था।

इस आंदोलन से वि.प्र.सिंह प्रधानमंत्री बने। उन्होंने भी व्यवस्था परिवर्तन के तराने गाये; पर मूलतः कांग्रेसी होने के कारण वे भी व्यवस्था परिवर्तन का अर्थ कुर्सी का स्थायित्व ही समझते थे। अतः उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण और आरक्षण वृद्धि का चारा फेंककर देश को एक ऐसी अंधी गली में धकेल दिया, जिससे वह आज तक नहीं निकल सका है।

वि.प्र.सिंह के बाद गठबंधन युग प्रारम्भ हो गया। सत्ता कई हाथों में रहने से व्यवस्था परिवर्तन की बात दबी रही; पर पिछले आठ साल से सत्ता कांग्रेस और मैडम सोनिया के हाथ में है। इसलिए फिर से यह बात चल पड़ी है। मजे की बात तो यह है कि अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और अरविन्द केजरीवाल के साथ ही राहुल बाबा भी इसकी वकालत कर रहे हैं। वस्तुतः राहुल बाबा इस नारे पर सवार होकर आगामी लोकसभा चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। उनके लिए व्यवस्था परिवर्तन का अर्थ केवल इतना ही है।

गांधी जी, डा0 लोहिया और जयप्रकाश जी निःसंदेह महान थे; पर यहां उनकी असफलता का कारण यह रहा कि उनके पास व्यवस्था परिवर्तन का कोई वैकल्पिक स्वरूप नहीं था। वे पुरानी व्यवस्था को कोसते रहे; पर नयी व्यवस्था क्या होगी और वह कैसे आ सकती है, इस बारे में उनके पास कोई विचार और कार्यक्रम नहीं था।

एक उदाहरण देखें। एक व्यक्ति दिल्ली से देहरादून जाने के लिए बस अड्डे पर खड़ा है। उसके सामने कई बसें हैं। किसी का किराया अधिक है, तो किसी का कम। किसी में सुविधा अधिक हैं, तो किसी में कम। कोई समय अधिक लेती है, तो कोई कम। ऐसे में व्यक्ति अपनी जेब और समय की उपलब्धता के आधार पर बस चुन सकता है; पर यदि वहां केवल एक ही बस हो, और अगली के आने की कोई संभावना न हो, तो वह मजबूर होकर उसी बस में बैठेगा, चाहे उसे खिड़की से लटक कर या छत पर बैठकर ही जाना पड़े।

यही स्थिति व्यवस्था परिवर्तन की दुहाई देने वाले वर्तमान नेताओं की है। अतः वे भी उसी प्रकार असफल सिद्ध होंगे, जैसे पुराने नेता हुए। इसलिए यदि व्यवस्था परिवर्तन करना है, तो वे इसका विकल्प ढूंढें और फिर उसे देश में प्रचारित-प्रसारित करें। इससे पहले सत्ता बदलेगी और फिर व्यवस्था। अन्यथा तो आगामी लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें घोर निराशा होगी।

बहुत से विचारकों का मत है कि वर्तमान चुनाव प्रणाली के स्थान पर ‘सूची प्रणाली’ से लोकसभा और विधानसभा चुनाव होने से जाति, वंश, क्षेत्र, भाषा, धन, मजहब और माफिया के दबाव समाप्त होंगे। अच्छे और अनुभवी लोग सत्ता में आएंगे, जिनका उद्देश्य देश-सेवा होगा, जेब-सेवा नहीं। जाति, क्षेत्र और मजहब पर आधारित दल समाप्त हो जाएंगे। एक-दो चुनाव तक गठबंधन चलेंगे, फिर किसी एक दल को बहुमत मिलने लगेगा। कभी उपचुनाव नहीं होंगे तथा सरकार भी पूरे समय तक चलेगी। चुनाव का खर्च बहुत घट जाने से काले धन और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लग जाएगा।

एक प्रसिद्ध कहावत है, ‘एके साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।’ चुनाव प्रणाली में सुधार ऐसा ही एक विषय है। इसे यदि साध लिया, तो व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाएगी। अतः भारत का भला चाहने वालों को इस बारे में विचार और प्रयास करना होगा।

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