पाठ्य पुस्तकें- अनुवाद या मौलिक लेखन

प्रो.बृजकिशोर कुठियाला

जिस दिन भारत स्वतंत्र हुआ उसी दिन महात्मा गांधी ने बी.बी.सी. लंदन को दिये एक संदेश में कहा था ‘‘अंग्रेजी मुल्क से बड़ी कोई मूर्खता नहीं’’ दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता, सब जानते है कि महात्मा गंाधी न केवल हिन्दी को स्वतंत्र भारत को एकात्मता के सूत्र में बांधने की सक्षम भाषा मानते थे, परन्तु उनका अंग्रेजी से ज्यादा अंग्रेजियत से विरोध था, स्वदेशी का उनका आग्रह हर क्षेत्र में था। गांधी ने जो भी सोचा करा या कहा उसको अनदेखा करते हुये पिछले 60 से अधिक वर्षों में गांधी के भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ही अपनाने का काम किया गया और बखूबी किया है। समस्या इतनी गंभीर हो गई हंै, कि हिन्दी के माध्यम से भी अंग्रेजी और अंग्रेजियत का समावेश भारत के आम नागरिक के जीवन में करने का लगभग सफल प्रयास हो रहा है।

इस संदर्भ में भविष्य के लिए चिंताजनक स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब हिन्दी के समर्थकों का एक बड़ा और प्रभावी वर्ग इस बात के लिए अभियान चलाता है, कि अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तकों का अनुवाद हिन्दी और भारतीय भाषाओं में करके उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों को उपलब्ध करवाया जाये। नवां विश्व हिन्दी सम्मेलन 22, 23 व 24 सितम्बर 2012 को दक्षिण अफ्रीका के जोहानसबर्ग नगर में सम्पन्न हुआ, वहां भी संकल्प लिया गया कि उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी से अनुवादित पुस्तकें हिन्दी में सुलभ कराने के कार्य को गति दी जाये। साहित्य का अनुवाद अपनी भाषा में किया जाये यह तो अनिवार्य है, परन्तु शिक्षा के लिए भी मौलिक पुस्तकों के स्थान पर अनुवादित पुस्तकों का प्रयोग हो यह तो आत्मघाती विचार है। उच्च शिक्षा और विशेषकर व्यावसायिक उच्च शिक्षा के लिए अनुवादित पुस्तकों का प्रयोग करने से मुख्यतः तीन दुष्प्रभाव होने वाले है।

पहला यह कि यदि इस व्यवस्था को हम क्रियान्वित करते है तो हम मानकर चलते है कि हिन्दी में हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थी द्वितीय स्तर के विद्यार्थी है, क्योंकि अंग्रेजी में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को एक मौलिक पुस्तक मिलेगी और हिन्दी में पढ़ने वालों को अनुवादित। अनुवाद कितना भी सटिक हो और कितना भी सृजनात्मक हो परन्तु अनुवादित सामग्री मौलिक नहीं हो सकती। इसका एक व्यावहारिक पक्ष भी है मान लीजिए किसी विषय की पाठ्य पुस्तक आज अंग्रेजी में बाजार में आती है लेखन, सम्पादन व प्रकाशन के लिए कम से कम समय भी दें तो यह मानकर चलना चाहिए कि इस पुस्तक की सामग्री लगभग एक वर्ष पुरानी होगी। अनुवाद करने का निर्णय, फिर अनुवाद करना, सम्पादन और प्रकाशन के पूरे चक्र में लगभग एक से दो वर्ष और लगेंगे अन्त में जो पाठ्य सामग्री अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थियों को आज प्राप्त हुई वह हिन्दी वाले विद्यार्थियों को दो वर्ष बाद प्राप्त होगी, क्या यह विलंबित ज्ञान और विज्ञान की प्राप्ति हिन्दी के विद्यार्थियों को दूसरे दर्जे का विद्यार्थी नहीं बनाती।

इसी से जुड़ा एक विषय सम्पूर्णता का भी है, सर्वमान्य है कि अंग्रेजी में लिखी पुस्तकें मूलतः अमेरिका व यूरोप के ज्ञान भण्डार पर आधारित होती है। पश्चिम की दृष्टि ही उसमें रहती है। अंग्रेजी की पुस्तक चाहे भारतीय विद्वान ने लिखी हो या विदेशी विद्वान ने सामग्री का मूल स्रोत सामान्यतः अमेरिका के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा ही होता है। अनुवादित पुस्तकों में भारतीय दृष्टि या भारतीय ज्ञान अनुपस्थित होता है, और आज पूरे विश्व में यह अनुभूति हो चुकी है कि प्रौद्योगिकी, विज्ञान, कला, संस्कृति कोई भी क्षेत्र हो उसमें कहीं न कहीं भारत, चीन और दक्षिण एशिया के देशों में भी पारम्परिक ज्ञान में विषयों पर सिद्ध विद्या उपलब्ध है। उदाहरण के तौर पर धातु शास्त्र और रसायन शास्त्र में जो पद्धतियां ऐसा लोहा बनाने की मध्य भारत से जनजाति समाज में सैकड़ों वर्षों से प्रचलित है, वह अंग्रेजी की भारतीय पुस्तकों में भी समावेशित नहीं है। अर्थशास्त्र हो या समाजशास्त्र या मनोविज्ञान सभी में भारत और चीन के प्राचीन विद्वानों ने ऐसी प्रस्तुतियां की है जो उन प्रश्नों को भी सुलझाते है जिनको पश्चिम के वैज्ञानिकों ने सुलझाने में असमर्थता प्रकट की है। चिकित्सा विज्ञान और शल्य विज्ञान की पुस्तकों में यदि आयुर्वेद, होम्योपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा व योग आदि का भी समावेश हो तो अन्ततः समाज को ही लाभ होने वाला है। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी यदि हम कहे कि पश्चिम के ज्ञान विज्ञान को जो हमें अंग्रेजी में उपलब्ध है उसे सम्पूर्णता देने के लिए स्वदेशी ज्ञान और विज्ञान से सम्पूर्ण करके ही आज के भारतीय विद्यार्थी को दंे यह अनुवाद से सम्भव नहीं है। क्या भारतीय विद्यार्थी अपूर्ण और बासी ज्ञान को प्राप्त करके विश्व में अपना स्थान बना पायेगा ?

एक अन्य समस्या जो अनुवादक के सम्मुख आती हैं, वह है तकनीकी शब्दावली की। अनुवाद करते समय साधारणतः नये शब्दों को गढ़ने की बजाय तकनीकी शब्दों का भी अनुवाद करने का प्रयास रहता है जैसे अंग्रेजी के शब्द बायलिन प्वाइंट को उबलने का बिन्दु कहा जाता है जबकि यह वह तापमान है जब कोई तरल उबलना प्रारंभ करता है, प्वाइंट शब्द का बिन्दु अनुवाद यहां अनुचित लगता है। इसी प्रकार कई शब्द जैसे के तैसे ही रख दिये जाते है जबकि हिन्दी में उनके लिए अंग्रेजी से अधिक अर्थग्राही शब्द उपलब्ध होते है, उदाहरण के लिए अंग्रेजी में वेब शब्द को भौतिकशास्त्र में वेव कह दिया जाता है या लहर कह दिया जाता है जबकि आशय को समझाने वाला शब्द तरंग है।

वास्तव में अनुवाद की सीमाओं को समझने का प्रयास होना चाहिए और विचार करना चाहिए कि हिन्दी में मौलिक पुस्तक लिखना और लिखवाना उचित है या अनुवाद करना ? आज लगभग हर विषय में ऐसे विद्वान उपलब्ध है जो अंग्रेजी में पढ़ते पढ़ाते है परन्तु उनकी मातृभाषा हिन्दी या कोई अन्य मातृभाषा है हिन्दी के अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं जो अंग्रेजी के अध्यापक हैं। ऐसे विषय विशेषज्ञ को हिन्दी में मूल पाठ्य पुस्तक लिखने का दायित्व दिया जाना चाहिए ऐसे विद्वानों को विषय देकर कुछ समय देना चाहिए जिसमें वह पश्चिम और पूर्व दोनों के ज्ञान का समावेश कर सके और फिर वह उस पुस्तक को हिन्दी या अन्य किसी भारतीय भाषा में लिखे, इससे यह लाभ होगा कि हिन्दी में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को नवीनतम जानकारी भी मिलेगी और उस पुस्तक की भाषा भी अनुवाद की हुई पुस्तक से सहज होगी ऐसे अनेको प्रयोग अपने देश में हुये है और हो रहे है। राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान परिषद ने विद्यालयों की पुस्तकों को मौलिक रूप से हिन्दी और भारतीय भाषाओं में लिखवाने का सफल प्रयोग किया है ऐसा प्रयोग उच्च शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा में भी होना ही चाहिए।

आज कुछ विषयों में भारत के प्राचीन साहित्य का उपयोग बढ़ रहा है जैसे प्रबंधन की शिक्षा में गीता, रामचरित मानस और महाभारत से संबंधित सिद्धांतों व व्यवहार का प्रतिपादन पूरे विश्व में हो रहा है। भारत का विद्यार्थी गीता के बारे में अंग्रेजी की किताब पढ़ने को मजबूर नहीं होना चाहिए, परन्तु उसको अपनी भाषा में ही उपलब्ध होने का विकल्प प्राप्त हो। जितना श्रम, समय और धन अनुवाद के लिए हम लगायेंगे उतने में या उससे कम में हम मौलिक पुस्तकें अपनी भाषा में प्रकाशित कर सकते है।

2 COMMENTS

  1. मेरा तो मानना है कि ” उच्च शिक्षा के लिए हिन्दी भाषा में स्तरीय मौलिक पुस्तकों की समस्या ” एक आभासी या भ्रममूलक समस्या है, वास्तविक समस्या नहीं। इस देश में हिन्दी में लोग इस लिए नहीं पढ़ रहे हैं कि हिन्दी में पढ़ने वालों के रास्ते में कांते बिछाए जा रहे हैं। उन्हें हिन्दी माध्यम में पढ़ने से रोकने के लिए तरह-तरह के ‘गुप्त’ अभियान और प्रोग्राम चलाए रहे हैं। चापरासी से लेकर सैनिक, सिपाही, क्लर्क, मैनेजर, इंजीनियर, नौकरशाह आदि के लिए अघोषित रूप से अंग्रेजी अनिवार्य है। साधारण अंग्रेजी नहीं, विशिष्ट अंग्रेजी की परीक्षा ली जा रही है ब्रिटेन और अमेरिका का भी आम आदमी प्रयोग नहीं करता। बहुत से स्कूलों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग करने वाले विद्यार्थियों को दण्डित किया जा रहा है। आजकल तो यहाँ तक होने लगा है कि हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के प्रश्नपत्र दिए जा रहे हैं। भारत की सरकारी कम्पनियाँ और निजी कम्पनियाँ किसी इंजीनियर की परीक्षा उसके इंजीनियरी विषयों की जानकारी से नहीं करतीं, वे देखती हैं कि वह फर्राटेदार अंग्रेजी बोल पाता है या नहीं, वह भी अमेरिकी या ब्रिटिश शैली (लहजे) में। भारत में प्रबन्धक के लिए प्रबन्धकीय विषयों की जानक्रारी या प्रबन्धकीय कौशल मुख्य नहीं है, उसे अति-उच्च स्तर की अंग्रेजी आनी चाहिए ताकि वह आम जनता और श्रमिकों से अपने को अलग रख सके। परिणाम सबके सामने हैं। भारत के किसी प्रबन्धक का नाम सुना है? यही हालत हमारे सेना के अधिकारियों, डॉकटरों, न्यायधीशों की है। वे भारत की आवश्यकता के अनुरूप कुछ नहीं कर सकते । उन्हें अंग्रेजी पढ़ाकर आम जनता से काट दिया जाता है। वह काला अंग्रेज असली अंग्रेज से कई गुना घातक बन जाता है।

  2. आदरणीय कुलपति कुठियाला जी ने उचित विषय छेड़ा है.
    अंग्रेजी माध्यम से हिंदी (प्रादेशिक) माध्यम में शिक्षा का परिवर्तन होना चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं है.
    जीतनी शीघ्रता से यह किया जाए, उतनी ही गतिसे, सर्व स्पर्शी विकास से समस्त भारत रूपांतरित होगा.

    प्रारम्भिक कालावधि में, ऐसे क्रियान्वयनसे, कुछ प्रसव वेदना अपेक्षित है.

    विषय विषय पर आधारित होगा, की किस विषय में अनुवाद किया जाए, और किस विषय में करने से कोई लाभ नहीं है.
    इसके लिए (क्रिटिकल पाथ मेथड”) -“निर्णायक पथ प्रणाली” – के आधार पर किस क्रमानुसार परिवर्तन लाया जाए, इस पर सोच- विचार -मंथन होना चाहिए. उसके पश्चात ही कार्यवाही होनी चाहिए.
    यह एक जानकारों का विद्वत समूह नियोजित कर, जिसमें, { राजनीति वालों को दूर रखा जाए,}आवश्यक मानता हूँ—किया जाए.
    मैं ने “अंग्रेजी से कड़ी टक्कर दो” इस आलेख में कुछ विस्तार से विचार रखें है.
    क्या मैं आपसे उसे पढ़कर टिपण्णी करने का अनुरोध कर सकता हूँ?
    आदर सहित मधुसुदन

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here