जोड़-तोड़ की राजनीति जनता से विश्वासघात

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-प्रवीण दुबे-
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भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को मिल रहे प्रचंड जनसमर्थन और केन्द्र में व्यवस्था परिवर्तन के लिए आतुर दिख रहे देशवासियों ने कांग्रेस सहित सभी भाजपा विरोधियों की नींद उड़ा दी है। इस बीच राजनीतिक गलियारों से जो संकेत मिल रहे हैं उसे देखकर साफ तौर पर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी को केन्द्र में सरकार बनाने से रोकने के लिए कांग्रेस व अन्य विरोधी दल जोड़-तोड़ की राजनीति में सक्रिय हो सकते हैं। वे केन्द्र में गैर भाजपा दलों की सरकार बनाने या उसके समर्थन से कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के गठन का प्रयास भी कर सकते हैं। जो माहौल देश में दिखाई दे रहा है उसे देखकर साफ तौर से यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस गठबंधन पिछले चुनाव की तरह 206 सीटें नहीं जीतने वाला। इतना ही नहीं, कांग्रेस अपने दम पर 150 का भी आंकड़ा पार करती नजर नहीं आ रही। ऐसे हालात में कांग्रेस नेताओं का नेतृत्व का ब्लड-प्रेशर बढ़ना अवश्संभावी है। इस स्थिति में भाजपा को रोकने के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति ही एक मात्र बचता है। अब सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि आखिर जोड़-तोड़ का यह गणित कैसे बिठाया जाएगा? परस्पर धुरविरोधी पार्टियों को गले लगाकर देश की जनता को बेवकूफ बनाने का महापाप कैसे किया जाएगा? तो हम बताना चाहेंगे कि इसका षड्यंत्र चुनाव परिणाम आने से पूर्व ही शुरु हो चुका है। पूरा देश जानता है कि भारत के वामपंथी दल हो अथवा सपा-बसपा जैसी पार्टियां किस प्रकार पूर्व में भी कांग्रेस की गोदी में बैठती रही हैं। किस प्रकार इन दलों ने कई बार कांग्रेस की डूबती नैया को सहारा दिया है। इस बात के संकेत वामपंथियों ने यह कहते हुए अभी से ही दे दिए हैं कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए यदि उन्हें ममता की तृणमूल से सहयोग लेना पड़े तो भी इसमें उन्हें कोई परहेज नहीं होगा। कैसी हास्यास्पद बात है भला उत्तर और दक्षिण कभी एक हो सकते हैं, धरती और आकाश को साथ लाया जा सकता है। लेकिन भारतीय राजनीति में जनता को बेवकूफ बनाने क लिए ऐसा करने का संकेत दिया जा रहा है।

एक तरफ धुरविरोधी कम्युनिस्ट-तृणमूल से हाथ मिलाने की बात कह रहे हैं तो दूसरी और कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस जैसे अपने पुराने घटक दलों को एक बार फिर साथ लाने की कवायद में जुटे हैं। उधर उत्तर प्रदेश में भी दो परस्पर धुर विरोधी दल बसपा और सपा भी मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस के पिछलग्गू बन जाएंगे यह भी तय है। दक्षिण की जयललिता और करुणानिधि को साथ लाने के प्रयास में भी कांग्रेस जुटी हुई है। कहा जा रहा है यह सब कुछ धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक मंच पर आने और सांप्रदायिकता का आरोप भाजपा पर लगाकर उसे अलग-थलग करने के आह्वान को लेकर किया जा रहा है। इस सारे राजनीतिक घटनाक्रम ने कई सारे सवालों को जन्म दे दिया है। पहला सवाल तो यह कि देश की जनता जिस प्रचंड जनसमर्थन के साथ नरेन्द्र मोदी का साथ दे रही है वो जनता क्या सांप्रदायिक है? कांग्रेस के दस साल के भ्रष्ट कुशासन को बदलने के लिए जो माहौल जनता ने बनाया है उसके खिलाफ जोड़-तोड़ करके उसी भ्रष्ट व्यवस्था को कायम रखने का प्रयास क्या इस देश की जनता के साथ विश्वासघात नहीं है? देशवासियों को कांग्रेस के साथ खड़े बसपा, सपा, तृणमूल और वामपंथी दलों के कर्ता-धर्ता नेताओं से यह सवाल पूछना चाहिए कि यदि भाजपा और नरेन्द्र मोदी के खिलाफ इस तरह से लामबंदी करनी थी तो इसके लिए चुनाव पूर्व गठबंधन क्यों नहीं घोषित किया गया? जब चुनाव में यह सारे दल अलग-अलग ताल ठोंक रहे हैं तो फिर चुनाव बाद जनमत की अवहेलना करके एक होने का अधिकार इन्हें कैसे दिया जा सकता है। यह तो देश की जनता के साथ सरासर धोखेबाजी है। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का राग अलापने वाले दलों के पास न तो मोदी का जबाव है न भाजपा का। यही वजह है कि वे न तो विकास की बात कर रहे हैं, न महंगाई, न भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं। उन्हें देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा का भी ध्यान नहीं है। कितनी आश्चर्य की बात है कि नरेन्द्र मोदी को लेकर जो भाषा हमारा दुश्मन देश पाकिस्तान बोलता है वही भाषा सपा, बसपा, कांग्रेस जैसे दल बोल रहे हैं। मोदी द्वारा दाऊद को पकड़ने अथवा बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर करने की घोषणा इन दलों को सुहाती नहीं है। तृणमूल की नेता खुलेआम चुनौती दे रही हैं कि मोदी बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर करके दिखाएं। उसी तृणमूल से कांग्रेस मोदी को रोकने के लिए सहयोग का रास्ता तलाश रही है उसी तृणमूल से गठबंधन करने पर इस देश के वामपंथियों को कोई परहेज नहीं है। सपा-बसपा भी पाकिस्तान की तर्ज पर मोदी को मुस्लिम विरोधी और गुजरात दंगों का गुनहगार ठहरा रही हैं। यह सारे विषय ऐसे हैं जिन पर मोदी विरोधियों खासकर कांग्रेस को अपना रूख स्पष्ट करना चाहिए। केवल सांप्रदायिक-सांप्रदायिक का राग अलापकर तथा विकास, भ्रष्टाचार, महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों की अनदेखी करके इस देश की जनता को कैसे बेवकूफ बनाया जा सकता? वे दल मोदी और भाजपा पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा रहे हैं जिनके राज में सर्वाधिक सांप्रदायिक दंगे हुए, जिनके हाथ 1984 के सिख विरोधी दंगों से लाल हैं। जो लोग कश्मीरी पंडितों को आज तक उनका हक नहीं दिला सके और सबसे बड़ा सच तो यह है जिन्होंने धर्म के आधार पर भारत के टुकड़े करना स्वीकार कर लिया वे कैसे स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बता रहे हैं। यह सारा तमाशा अब कुछ दिन ही चल पाएगा। जैसे-जैसे मतगणना का समय निकट आता जा रहा है ऐसे तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी दलों की नींद उड़ती जा रही है। वैसे जिस प्रकार के संकेत मिल रहे हैं उसे देखकर यह साफ कहा जा सकता है कि ऐसे अवसरवादी दलों के मंसूबे इस बार कामयाब नहीं होंगे और देश की जनता पूर्ण बहुमत के साथ नरेन्द्र मोदी को सत्ता में लाती दिखाई दे रही है।

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