21वीं सदी में ‘बचपन’

डा. प्रदीप श्याम रंजन

21वीं सदी अपनी पूरी शक्ति से गतिमान है और इस वेग के बहाव में कई चीजें चाहे-अनचाहे अपना स्वरुप परिवर्तित कर रही हैं. संकुचित परिवार, ब्यस्त माता-पिता, ब्यस्तता से उपजा समयाभाव और समयाभाव की आभासी प्रतिपूर्ति करते तकनीकी साधनों पर अतिनिर्भरता के फलस्वरुप बचपन की एक विश॓ष किस्म विकसित होती जा रही है, जो की बौद्विक रुप से उन्नत, अपने अधिकारों के लिए मुखर किन्तु आत्मकेन्द्रित और अतिसंवेदनशील है. तकनीक और वैज्ञानिक उन्नति की जगमगाहट के बीच बचपन, जीवन का स्वर्ण-काल, अपनी चमक खोता जा रहा है .

अधिकतर परिवारों में आज परवरिश का अर्थ बच्चों को ओवर-फ्रेंडली वातावरण प्रदान करना, भौतिक सुख-सुविधायें मुहैया करवाना, उनकी सभी वाजिब-गैर वाजिब मांगों को पूरा करना रह गया है. बच्चों के द्वारा किए गये सभी वांछित या अवांछित कार्यो को उनका नैसर्गिक अधिकार मान लिया गया है. बच्चों की स्वतंत्रता और स्वछंदता को समानार्थी समझ लिया गया है. जहॉं सूचना संसाधनों का विकास अपने चरम पर प्रतीत हो रहा है, लोग घर बैठे विश्वभर में संवाद स्थापित कर रहे हैं, वहीं बच्चों और परिजनों में संवादहीनता बढ़ती जा रही है.

भौतिक सुविधाओं के भंवर में फंसे बच्चों का सामना जब बाहरी दुनियाँ से होता है और इन्हें रोजमर्रा की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, ए किंकर्तब्यविमूढ़ हो जाते हैं या फिर कोई अब्यावहारिक या असामाजिक रास्ता चुनते हैं. परेशानियों का सामना अथवा समाधान की जगह पर ए शार्ट-कट ढ़ूंढते नजर आते हैं. स्कूल टीचर्स का सामना ऐसे बच्चों से आए दिन होता है. ए बच्चे अपने टीचर्स का टैंपर-टेस्ट करने का काम करते हैं, जिसमें फेल होने पर इनके अभिभावक टीचर की क्लास लेते हैं. कैसे ?

‘सर ! आपने कल मेरे बेटे को क्लास में खड़ा कर दिया था, वो बड़ा डाउन फील कर रहा है, कल रात को डिनर भी नहीं किया’;

‘कैसे टीचर हैं आप, आपको इतना भी नहीं पता की टीनएजर बच्चों को कैसे डील करते हैं’;

‘यू नो माइ चाइल्ड इज ओवरसेंसिटिव, बी केयरफुल, डोन्ट यूज हार्स लैंगवेज विथ हिम’.

कुछ इसी तरह की शिकायतों के साथ अभिभावक आए दिन स्कूलों में खड़े रहते हैं. छोटी सी डांट या पनिशमेंट पर, दोस्तों के कमेंटस पर, परफार्मेंस में एप्रिशिएसन न मिलने पर या फिर क्लास टेस्ट में वांछित अंक न आने पर ए बच्चे डिप्रेस्ड हो जाते हैं. इनकी स्वकेन्द्रित संवेदनशीलता का स्तर छुई-मुई के पौधे जैसा होता है, जो कि बस छूने से मुरझा जाता है. बात-बात पर तथाकथित ‘आत्मसम्मान’ आहत हो जाता है. सहन-शक्ति या धैर्य जैसे गुण इनके लिए महज किताबी शब्द होते हैं. शारीरिक श्रम से दूर भागते इन बच्चों को अपना काम मसलन जूते पॉलिश करने, अन्डरगारमेंटस साफ करने या फिर खुद के फैलाए कचड़े को कूड़ेदान में डालने में हीन भावना का अनुभव होता है. कई-कई तो ऐसे भी होते हैं जिन्हें होमवर्क करने में भी हाथों में दर्द होने लगता है.

टी. वी., कम्प्यूटर, मोबाइल फोन और इन्टरनेट की आभासी दुनियॉं में ज्यादातर समय बिताने वाले ये बच्चे तकनीक के प्रयोग, सूचना संग्रहण और तर्क बुद्वि में भले ही उम्र को मात दे रहे हों, अन्तर्बैयिक्तक सम्बन्धों और सामाजिकता के निर्वाह में विफल साबित हो रहे हैं. नैतिक मूल्यों से अधिक सरोकार न रखने वाले ऐसे ‘प्रैक्टिल’ ‘कूल’ और ‘स्मार्ट’ बच्चे आसामाजिक या आपराधिक कृत्यों को अंजाम देने में भी गुरेज नहीं करते, वो भी महज ‘फन’ और ‘एडवेंचर’ के नाम पर. वैसे भी धूम्रपान, नशा, परीक्षा में नकल, सटटा, साइबर क्राइम, मार-पीट, विद्यालय अथवा सरकारी सामाग्री के तोड़-फोड़ जैसे ब्यवहार ‘विद्यार्थी-सुलभ’ ब्यवहार के रुप में समाज में स्वीकार्यता पा चुके हैं. इन कृत्यों को समाज अब ‘असामान्य’ नहीं समझता.

ऐसे बच्चों द्वारा उठाए गये असामाजिक कृत्यों के उदाहरण हम आए दिन समाचार पत्रों या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा देखते-सुनते रहते हैं, जहॉं एक छात्र अपनी अध्यापिका को केवल इस बात के लिए चाकू मार देता है, क्योंकी वह उसके परीक्षा प्राप्तांक को अभिभावकों को बताना चाह रही थी (छात्र इस बात को छुपाना चाहता था); पढ़ाई के लिए डांट खाने वाला पुत्र अपनी मॉ और बहन का खून कर देता है; या फिर सीनियर छात्र स्कूल में छुटटी करवाने और परीक्षा टालने के लिए एक प्राईमरी के बच्चे की हत्या कर देता है.

अबोध बचपन इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है ? क्या बचपन 21वीं सदी की रफ्तार से ताल मिलाना चाहता है या उसे फिर समाज ने उसे विवश कर दिया है. बचपन किस्से-कहानियाँ तो आज भी सुनना चाहता है, समाज ने उसे दादा-दादी और नाना-नानी से दूर कर दिया है. जड़ों से काटकर पौधे के समुचित विकास की कल्पना भी कैसे की जा सकती है. भरे-पूरे संयुक्त परिवार में बीतने वाले बचपन को एकाकी कर दिया गया. उसने खिलौने मांगे तो उसे कम्प्यूटर और मोबाइल पकड़ा दिया गया. बेमकसद और स्वछंद खेले जाने वाले खेलों को इतना प्रतिस्पर्धी बना दिया गया कि खेल की भावना ही खत्म हो गयी. बचपन ने सीखना चाहा तो उसे किताबों के बोझ तले दबा दिया गया, जहाँ उसकी जिज्ञासा साँस लेने को फड़फड़ा रही है. आधुनिक स्कूलों (ज्यादातर) के रिजल्ट-फोकस्ड सिस्टम में एक्टिविटीज, होम असाइनमेंट, प्रोजेक्ट वर्क, एक्सट्रा क्लास के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है वह बच्चों में खीझ, चिन्ता और अवसाद तो पैदा कर सकती है ‘सीखने’ को प्रेरित नहीं.

आवश्यकता है, समय रहते सचेत होने की. बचपन के साथ अवांछित हस्तक्षेप न करने की. आयु-सुलभ ब्यवहार, गलतियों और आपराधिक कृत्यों में अन्तर करने की. ब्यवहार और दुर्ब्यवहार में फर्क महसूस करने की. बच्चों की ढाल बनने की बजाय उन्हें संस्कारित करने की . बचपन को बचपन ही रहने देने की.

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