बोरवेल की बलि चढ़ते मासूम

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दो टूक

योगेश कुमार गोयल

      पिछले दिनों एक और मासूम बच्चे ने बोरवेल के भीतर दम तोड़ दिया। उससे महज चंद दिन पहले ही तमिलनाडु में भी एक बच्चा बोरवेल की बलि चढ़ गया था। हालिया घटना हरियाणा के करनाल जिले की है, जहां गत तीन नवम्बर को घरौंडा कस्बे के गांव हरसिंहपुरा में एक पांच वर्षीय बच्ची शिवानी खेलते समय अपने घर के पास खुले पड़े 50 फुट गहरे बोरवेल में गिर गई थी। हालांकि उसे बचाने के लिए पुलिस, प्रशासन तथा एनडीआरएफ की टीम ने संयुक्त अभियान चलाया किन्तु 18 घंटे के रेस्क्यू ऑपरेशन के बाद भी बच्ची को बचाया नहीं जा सका। चार नवम्बर को यह नन्हीं जान बोरवेल के भीतर ही जिंदगी की जंग हार गई। ऐसा ही हादसा दीवाली के दो दिन पहले तमिलनाडु में भी हुआ था, जहां 25 अक्तूबर की शाम तिरूचिरापल्ली जिले के एक गांव में सुजीत नामक दो वर्षीय बच्चा खेलते-खेलते 600 फुट गहरे बोरवेल में गिरकर 30 फुट की गहराई पर अटक गया था और धीरे-धीरे खिसकते हुए बोरवेल में 100 फुट नीचे तक चला गया था। बच्चे को बचाने के लिए लगातार तीन दिन तक एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की छह टीमों द्वारा रेस्क्यू ऑपरेशन चलाया गया लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद बच्चे को नहीं बचाया जा सका और देखते ही देखते एक और मासूम बोरवेल की भेंट चढ़ गया था।

      इसी वर्ष तीन अप्रैल को उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जिले के रशीदापुर गांव में भी आठ वर्षीया मासूम सीमा 60 फुट गहरे बोरवेल में गिरकर 26 फुट की गहराई पर फंस गई थी, जिसे सेना-एनडीआरएफ की टीमों के 55 घंटे के ऑपरेशन ‘असीम’ के बावजूद बचाया नहीं जा सका था। अंततः 6 अप्रैल को बोरवेल को मिट्टी से बंद कर दिया गया और बच्ची बोरवेल में ही दफन हो गई। हालांकि 20 मार्च 2019 को हरियाणा में हिसार के बालसमंद गांव में करीब 60 फीट गहरे बोरवेल में गिरे डेढ़ साल के नदीम को सेना-एनडीआरएफ की टीमों के 50 घंटे के रेस्क्यू ऑपरेशन के जरिये सही सलामत बाहर निकाल लिया था और पिछले साल 30 जुलाई को 110 फुट गहरे बोरवेल में गिरी बिहार के मुंगेर जिले की तीन वर्षीया सना को भी 31 घंटे के रेस्क्यू ऑपरेशन के पश्चात् बचा लिया गया था लेकिन बोरवेल में गिरकर सही-सलामत बाहर निकलने वाला हर बच्चा नदीम या सना जैसा किस्मत का धनी नहीं होता। अब तक अनेक मासूम जिंदगियां इसी प्रकार बोरवेल में समाकर जिंदगी की जंग हार चुकी हैं किन्तु विड़म्बना है कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों के बावजूद कभी ऐसे प्रयास ही नहीं किए गए, जिससे इस तरह के मामलों पर अंकुश लग सके।

      21 जुलाई 2006 को हरियाणा में कुरूक्षेत्र के हल्दाहेड़ी गांव में पांच वर्षीय प्रिंस के 50 फीट गहरे बोरवेल में गिर जाने के बाद उस रेस्क्यू ऑपरेशन के दृश्य टीवी चैनलों पर लाइव दिखाये जाने के चलते पूरी दुनिया का ध्यान पहली बार ऐसे हादसों की ओर गया था और उम्मीद जताई गई थी कि भविष्य में फिर कभी ऐसे हादसे सामने नहीं आएंगे किन्तु विड़म्बना है कि देश में हर साल औसतन करीब 50 बच्चे बेकार पड़े खुले बोरवेलों में गिर जाते हैं, जिनमें से बहुत से बच्चे इन्हीं बोरवेलों में जिंदगी की अंतिम सांसें लेते हैं। ऐसे हादसे हर बार किसी परिवार को जीवन भर का असहनीय दुख देने के साथ-साथ समाज को भी बुरी तरह झकझोर जाते हैं। हालांकि ऐसा कोई अधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, जिससे ऐसे हादसों में होने वाली मौतों की संख्या का सही-सही पता चल सके लेकिन जैसी हमारी व्यवस्थाएं हैं और जिस तरह का हमारा तंत्र है, उसके मद्देनजर यह अवश्य कहा जा सकता है कि बार-बार होते ऐसे हादसों पर आंसू बहाना ही हमारी नियति है। दरअसल बोरवेल देश में अब एक ऐसा जानलेवा शब्द बन चुका है, जिसने अब तक न जाने कितने मासूमों की जिंदगी छीन ली है।

      हैरत की बात है कि देशभर में बोरवेल में बार-बार हादसे हो रहे हैं लेकिन कोई ऐसे हादसों से सबक सीखने को तैयार ही नहीं दिखता। इसी साल 6 जून को पंजाब के संगरूर जिले में भी दो वर्षीय मासूम फतेहवीर सिंह 150 फीट गहरे बोरवेल में गिर गया था, जिसे पांच दिनों की कड़ी मशक्कत के बाद भी बचाने में सफलता नहीं मिली थी। ऐसे मामलों में अक्सर सेना-एनडीआरएफ की बड़ी विफलताओं को लेकर भी अब सवाल उठने लगे हैं कि अंतरिक्ष तक में अपनी धमक दिखाने में सफल भारत के पास चीन तथा कुछ अन्य देशों जैसी वो स्वचालित तकनीकें क्यों नहीं हैं, जिनका इस्तेमाल करके ऐसे मामलों में बच्चों को तत्काल बोरवेल से बाहर निकालने में मदद मिल सके। सवाल यह भी हैं कि आखिर बार-बार होते ऐसे दर्दनाक हादसों के बावजूद देश में बोरवेल और ट्यूबवैल के गड्ढे कब तक इसी प्रकार खुले छोड़े जाते रहेंगे और कब तब मासूम जानें इनमें फंसकर इस तरह दम तोड़ती रहेंगी। हालांकि हर बार ऐसी हृदयविदारक घटनाओं से सबक सीखने की बातें दोहराई जाती हैं लेकिन थोड़े-थोड़े अंतराल बाद जब ऐसी ही घटनाएं सामने आती हैं तो पता चलता है कि न तो आमजन ने और न ही प्रशासन ने ऐसी दिल दहलाने वाली घटनाओं से कोई सबक सीखा।

      प्रायः देखा जाता रहा है कि बहुत सी जगहों पर किसानों द्वारा खराब ट्यूबवैल उखाड़कर दूसरे स्थान पर स्थनांतरित कर दिया जाता है लेकिन ट्यूबवैल उखाड़ने के बाद भी बोरवेल को कंक्रीट से भरकर समतल करने के बजाय किसी बोरी या कट्टे से ढ़ककर खुला छोड़ दिया जाता है और यही बोरवेल बार-बार ऐसे हादसों का कारण बनते रहे हैं। कोई भी बड़ा हादसा होने के बाद प्रशासन द्वारा बोरवेल खुला छोड़ने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर सख्ती की बातें दोहरायी जाती हैं लेकिन बार-बार सामने आते ऐसे हादसे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सख्ती की ये सब बातें कोई घटना सामने आने पर उपजा लोगों का आक्रोश शांत होने तक ही बरकरार रहती हैं। ऐसे हादसों के लिए बोरवेल खुला छोड़ने वाले खेत मालिक के साथ-साथ ग्राम पंचायत और स्थानीय प्रशासन भी बराबर के दोषी होते हैं।

      कुछ ही माह पहले मध्य प्रदेश में देवास जिले के खातेगांव कस्बे के गांव उमरिया में एक व्यक्ति हीरालाल को अपने खेत में सूखा बोरवेल खुला छोड़ देने के अपराध में जिला सत्र न्यायालय ने दो वर्ष सश्रम कारावास तथा 20 हजार रुपये अर्थदंड की सजा सुनाई थी। दरअसल 10 मार्च 2018 को खेत में फसल काटते समय महिला श्रमिकों में से एक का चार वर्षीय बेटा रोशन इस बोरवेल में गिर गया था, जिसे बड़ी मशक्कत के बाद 36 घंटे पश्चात् निकाला जा सका था। इस घटना के बाद तहसीलदार द्वारा हीरालाल के खिलाफ धारा 308 के तहत मुकद्दमा दर्ज कराकर उसे गिरफ्तार किया गया था। अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि लोग बोरवेल कराकर उन्हें इस प्रकार खुला छोड़ देते हैं, जिससे उनमें बच्चों के गिरने की घटनाएं हो जाती हैं और समाज में बढ़ रही लापरवाही के ऐसे मामलों में सजा देने से ही लोगों को सबक मिल सकेगा। अगर मध्य प्रदेश में जिला अदालत के इसी फैसले की तरह ऐसे सभी मामलों में त्वरित न्याय प्रक्रिया के जरिये दोषियों को कड़ी सजा मिले, तभी लोग खुले बोरवेल बंद करने को लेकर सक्रिय होंगे अन्यथा बोरवेल इसी प्रकार मासूमों की जिंदगी छीनते रहेंगे और हम ऐसी मासूम मौतों पर घडि़याली आंसू बहाने तक ही अपनी भूमिका का निर्वहन करते रहेंगे।

      बोरवेलों में बच्चों के गिरने की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे हादसों पर संज्ञान लेते हुए समय-समय पर कुछ दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं। अदालत के दिशा-निर्देशों में स्पष्ट है कि बोरवेल की खुदाई के बाद अगर कोई गड्ढ़ा है तो उसे कंक्रीट से भर दिया जाए लेकिन ऐसा न किया जाना ही हादसों का सबब बनता है। अदालती दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने वालों के लिए कठोर दंड का भी प्रावधान है किन्तु बार-बार सामने आ रहे दर्दनाक हादसों के बावजूद मध्य प्रदेश में जिला अदालत के कुछ माह पूर्व के फैसले को छोड़कर ऐसा कोई मामला याद नहीं आता, जब किसी को ऐसी लापरवाहियों के लिए कठोर दंड मिला हो, जो दूसरों के लिए सबक बन सके। ऐसे लगभग सभी मामलों में प्रशासन की लापरवाही स्पष्ट उजागर होती रही है किन्तु ऐसे हादसों से कभी कोई सबक नहीं लिया जाता। ऐसे हादसों में न केवल निर्दोष मासूमों की जान जाती हैं बल्कि रेस्क्यू ऑपरेशनों पर अथाह धन, समय और श्रम भी नष्ट होता है। आए दिन होते ऐसे भयावह हादसों के बावजूद न तो आम आदमी जागरूक हो पाया है, न ही प्रशासन को इस ओर ध्यान देने की फुर्सत है। न केवल सरकार बल्कि समाज को भी ऐसी लापरवाहियों को लेकर चेतना होगा ताकि भविष्य में फिर ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति न हो।

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