इतिहास के नये अध्याय का स्वागत हो

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-ः ललित गर्ग:-

अयोध्या में राजनीतिक रूप से अति संवेदनशील श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति यानी 5-0 से ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने अपने फैसले में विवादित जगह को रामलला का बताया। साथ ही कोर्ट ने कहा कि सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद निर्माण के लिए वैकल्पिक जमीन दी जाए। इस तरह 40 दिन की लगातार सुनवाई के बाद पांच सौ वर्षांे से चले आ रहे इस विवाद से संबंधित सभी पहलुओं का बारीकी से विचार हुआ एवं निर्णय लिया गया है। सभी पक्षों के द्वारा अपने-अपने दृष्टिकोण से रखे हुए तर्कों का मूल्यांकन हुआ। धैर्यपूर्वक इस दीर्घ मंथन को चलाकर सत्य व न्याय को उजागर करने वाले इस फैसले का न केवल स्वागत होना चाहिए बल्कि इसके माध्यम से समाज एवं राष्ट्र में साम्प्रदायिक सौहार्द एवं सद्भावना का वातावरण निर्मित किया जाना चाहिए।


इस ऐतिहासिक निर्णय को देते हुए पांच जजों की खण्डपीठ जिसमें चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर ने जिस सूझबूझ, विवेक एवं सत्य एवं न्याय को जींवतता प्रदान की है, उसे किसी भी रूप में जय-पराजय की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। सत्य व न्याय के मंथन से प्राप्त निष्कर्ष को भारत की राष्ट्रीय एकता, संपूर्ण समाज की एकात्मता व बंधुता के परिपोषण करने वाले निर्णय के रूप में देखना व उपयोग में लाना चाहिये।


9 नवम्बर, 2019 का दिन इतिहास में इस अनूठे, विलक्षण, साहसिक एवं न्यायपूर्ण  फैसले के लिये याद किया जायेगा, सुप्रीम कोर्ट में आज जो कुछ घटित हुआ, उसके बाद राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में जो उजाला उतर आया वह इतिहास के पृष्ठों को तो स्वर्णिम करेगा ही, भारत के भविष्य को भी लम्बे समय से चले आ रहे विवाद के धुंधलकों से मुक्ति देगा। धर्म और धर्म-निरपेक्षता इन शब्दों को हम क्या-क्या अर्थ देते रहे हैं? जबकि धर्म तो निर्मल तत्व है। लेकिन जब से धर्मनिरपेक्षता शब्द की परिभाषा हमारे कर्णधारों ने की है, तब से हर कोई कट्टर हो गया था। सभी कुछ जैसे बंट रहा था, टूट रहा था। बंटने और टूटने की जो प्रतिक्रिया हो रही थी, उसने राष्ट्र को हिला कर रख दिया था, उससे मुक्त होने का अवसर उपस्थित हुआ है, ऐसा लग रहा है एक नया सूरज उदित हुआ है। इससे भारतीयता एवं भारत की संस्कृति को नया जीवन मिला है। इस विवाद के समापन की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप परस्पर विवाद को समाप्त करने वाली पहल सरकार की ओर से शीघ्रतापूर्वक हो, अतीत की सभी बातों को भुलाकर हम सभी श्री रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर के निर्माण में साथ मिल-जुल कर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें, यह अपेक्षित है।


श्री राम का भव्य मंदिर उनकी जन्मभूमि में बने, यह आस्था एवं विश्वास से जुड़ा ऐसा संवेदनशील मसला था जिसे धर्म ईमामों ने अपनी गठरी में बन्द कर रखा था। जो मन्दिरों के घण्टे और मस्ज़िदों की अज़ान तथा खाड़कुओं एवं जंगजुओं की ए0 के0-47 में कैद रहा। जिसे धर्म केे मठाधीशों, महंतों ने चादर बनाकर ओढ़ लिया। जिसको आधार बनाकर कर सात दशकों से राजनीतिज्ञ वोट की राजनीति करते रहे, जो सबको तकलीफ दे रहा था, जिसनेे सबको रुलाये-अब सारे कटू-कड़वे घटनाक्रमों का पटापेक्ष जिस शालीन, संयम एवं सौहार्दपूर्ण स्थितियों में हुआ है, यह एक सुखद बदलाव है, एक नई भोर का अहसास है। शांति एवं सौहार्द की इन स्थितियों को सुदीर्घता प्रदान करने के लिये हमें सावधान रहना होगा, संयम का परिचय देना होगा। लेकिन यहां इससे भी महत्वपूर्ण वह नजरिया है, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर पूरे समाज में अपनी जगह बनाता दिख रहा है। पूरा मसला काफी नाजुक और विवादास्पद रहा है, इसलिए यह डर इस मुकदमे से हमेशा जुड़ा रहा कि फैसला किसी एक पक्ष में जाने पर, दूसरे पक्ष की प्रतिक्रिया न जाने क्या होगी? लेकिन पिछले कुछ दिनों से सभी ने यह कहना शुरू कर दिया है कि फैसला चाहे कुछ भी हो, वह उन्हें स्वीकार्य होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने सहयोगी संगठनों को यह निर्देश तक दिया है कि फैसला अगर उनके पक्ष में जाता है, तो खुशी मनाने का अतिरेक किसी भी तरह से दिखना नहीं चाहिए। बढ़-चढ़कर खुशी मनाना दूसरे पक्ष को आहत भी कर सकता है, लगभग ऐसे ही अनुशासन एवं संयम बरतने की बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहीं, यह एहसास बनना हमारी राजनीति का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है और इसी से भारत की संस्कृति को नया परिवेश मिल सकेगा।


एक परिपक्व समाज सिर्फ अपनी बाधाओं को दूर करने और लगातार आगे बढ़ते रहने का काम ही नहीं करता, बल्कि वह भावी खतरों से निपटने और समस्याओं को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने के लिए भी खुद को तैयार करता रहता है। भले ही ये खतरे और समस्याएं कहीं बाहर से आ रहे हों या खुद उसके भीतर के अंतर्विरोधों से उपज रहे हों। बाहरी खतरों को निपटाना एक तरह से आसान होता है, क्योंकि ये समाज को एकजुट करने का काम भी करते हैं। अपने अंतर्विरोधों से उपजे खतरों में जोखिम इस मायने में ज्यादा होता है कि ये कई तरह के ध्रूवीकरण की वजह बन सकते हैं। अयोध्या के मसले ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने हमें वह मौका दिया है कि हम अपने समाज और लोकतंत्र की परिपक्वता की एक नई मिसाल दुनिया के सामने पेश कर सकें।


मेरी दृष्टि में दुनिया में भारत जिस धर्म एवं धार्मिक सौहार्द के लिये पहचाना जाता है, आज उसी धर्म एवं सौहार्द को जीवंतता प्रदान करने एवं प्रतिष्ठित करने की चुनौती हमारे सामने है। क्योंकि धर्म जीवन है, धर्म स्वभाव है, धर्म सम्बल है, करुणा है, दया है, शांति है, अहिंसा है। पर धर्म को हमने कर्म-काण्ड बना दिया, धर्म को राजनीति बना दिया। धर्म वैयक्तिक है, धर्म को सामूहिक बना दिया। धर्म आंतरिक है, उसको प्रदर्शन बना दिया। धर्म मानवीय है, उसको जाति एवं सम्प्रदाय बना दिया। यह धर्म का कलयुगी रूपान्तरण न केवल घातक बल्कि हिंसक होता रहा है। आत्मार्थी तत्व को भौतिक, राजनैतिक, साम्प्रदायिक लाभ के लिए उपयोग कर रहे हैं। धर्म हिन्दू या मुसलमान नहीं। धर्म कौम नहीं। धर्म सहनशील है, आक्रामक नहीं है। वह तलवार नहीं, ढाल है। वहां सभी कुछ अहिंसा से सह लिया जाता है, लेकिन श्री राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने धर्म को विकृत कर दिया, संकीर्ण बना दिया। आज कोई ऐसा नहीं, जो धर्म की विराटता दिखा सके। सम्प्रदाय विहीन धर्म को जीकर बता सके। समस्या का समाधान दे सके, विकल्प दे सके। जो कबीर, रहीम, तुलसी, मीरा, रैदास बन सके।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हमें एक अवसर मिला है कि हम आपस में जुड़े, सौहार्द का वातावरण निर्मित करें। घृणा और खून की विरासत कभी किसी को कुछ नहीं देती।
 भगवान महावीर, भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी ने हिंसा एवं घृणा का व्यापक विरोध किया था। वे सफल हुए, क्योंकि उन्होंने विकल्प दिया था। इस विराट समस्या का कोई भी धर्मगुरु, राजनेता, समाजसेवी विकल्प नहीं दे पाया, बहुत कीमत चुका चुके  हैं, अब जब निर्णय हो चुका है जो उसकी क्रियान्विति का संकल्प जनता के दिलों से निकलना चाहिए। न्यायालय ने उसकी जमीन तैयार कर दी है। जैसाकि प्रधान न्यायाधीश  रंजन गोगोई ने कहा हम सबके लिए पुरातत्व, धर्म और इतिहास जरूरी है लेकिन कानून सबसे ऊपर है। सभी धर्मों को समान नजर से देखना हमारा कर्तव्य है। देश के हर नागरिक के लिए सरकार का नजरिया भी यही होना चाहिए। श्रीराम की भक्ति हो या रहीम की भक्ति, हमें अपनी-अपनी आस्था का निघ्र्वन जीवन जीते हुए राष्ट्रीयता को बल देना होगा। राष्ट्र होगा, तभी हमें अपनी आस्थाओं को जीने का धरातल मिल सकेगा।  

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