चर्च चक्रव्यूह में फंसे धर्मांतरित ईसाई

आर.एल.फ्रांसिस

संसद का सत्र शुरू होने से पहले ही चर्च नेताओं ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि वह धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के लिए रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को लागू करें। धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने का मुद्दा काफी विवादित रहा है और चर्च की इस मांग का विरोध बहुसंख्यक हिन्दू समाज और हिन्दू दलितों के साथ साथ ईसाई समाज में भी होता रहा है। धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में भामिल करने की मांग सबसे पहले पूना पैक्ट के बाद 1936 में उठाई गई थी, जब ब्रिटिश शाशन

के दौरान अनुसूचित जातियों की पहली सूची प्रकाशत की गई थी। ब्रिटिश सरकार ने यह कहते हुए, इस मांग को खारिज कर दिया था कि “कोई भी भारतीय ईसाई अनुसूचित जाति की श्रेणी की मांग करने का हकदार नही है।’’ क्योंकि ईसाइयत में जातिवाद का कोई स्थान नही है, अतः ब्रिटिश सरकार ने इस मांग को अंतिम रुप से अस्वीकृत कर दिया था।

संविधान सभा में चर्चा के दौरान धर्मांतरितों को आरक्षण देने मुद्दा एक बार फिर उठाया गया यह ब्रिटिश सरकार के ‘कम्युनल अवार्ड’, 1935 से जुड़ा हुआ था जिसके अंतर्गत कुछ धार्मिक वर्गो के लिए विधायिका में सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया था। संविधान सभा के अधिक्तर सदस्यों डा. अम्बेदकर, श्री जवाहर लाल नेहरु, सरदार पटेल, सी गोपालाचारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि नेताओं ने इस मांग को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि हिन्दु समाज में निम्न माने जाने वाले वर्गो को छोड़कर किसी अन्य धर्म के अनुयायी को यह सुविधा नही दी सकती क्योंकि तथाकथित अनुसूचित जातियां शताब्दियों से छूआछात और सामाजिक भेदभाव की पीड़ा को झेल रही है।

संविधान सभा ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के प्रस्ताव का सर्वसम्मति से समर्थन किया। बहुसंख्यक समाज ने इन वर्गो के आरक्षण को सिंद्वात रुप से स्वीकार कर लिया। संविधान में ‘सामनता’ के अवसर को उन्होंने इन वर्गो के पक्ष में कुर्बान कर दिया उस बुरे व्यवहार और भेदभाव के मुआवजे/हर्जाने के रुप में, जो उनके पूवर्जो ने इन वर्गो के साथ किया था। नेहरु सरकार ने ईसाइयों और मुसलमानों को अनुसूचित जाति के आरक्षण के दायरे से बाहर रखा। संविघान के अनुच्छेद 341 में शंसोधन करके राश्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया कि वह अनुसूचित जाति के रुप में किसी खास जाति को अधिसूचित कर सकता है। शंसोधित कानून के अनुसार केवल वही दलित जो हिंदू है, अनुसूचित जाति के सदस्य माने जाएँगें और इस प्रकार के आरक्षण का लाभ उठाने के पात्र होगे। वशर 1956 में इसमें सिख धर्म माननेवाली सभी अनुसूचित जातियों और वशर 1990 में बौध्द धर्म अपनाने वाले नवबौध्द मतानुयायियों को अनुसूचित जाति में भामिल किया गया।

ब्रिटिश भासन के समय बड़े पैमाने पर हिन्दुओं में निम्न माने जाने वाली जातियों ने जातिवाद से मुक्ति की आड़ में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण का मार्ग चुना। पूरे देश में निम्न जातियों के करोड़ो लोगो को समानता और भेदभाव राहित वातावरण उपलब्ध करवाने के वायदे के साथ ईसाइयत में दीक्षित किया गया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पतन के बाद चर्च नेतृत्व दोहरा खेल खेलने में व्यस्त हो गया एक तरफ वह आरक्षण प्राप्त अनुसूचित जातियों के धर्मांतरण में लगा रहा और दूसरी तरफ वह सरकार से ईसाइयत में दीक्षित होने वाली निम्न जातियों को अनुसूचित जातियों के दायरे में लाने की मांग भी करता रहा। 27 जून 1961 को सभी मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने धर्म अधारित आरक्षण को साफ शब्दों

में नामंजूर कर दिया था। इसके पहले वर्ष 1959 में जवाहरलाल नेहरु के शासन में गृह मंत्रालय द्वारा एक परिपत्र (भारत सरकार स. 18458एस सी टी प्ट तिथि 23 जुलाई, 1959) जारी करके राज्य सरकारों को कहा गया कि अगर धर्मांतरित व्यक्ति पुनः हिंदू धर्म में शामिल होता है तो उसका अनुसूचित जाति का दर्जा बहाल रखा जाए। साफ है कि जवाहर लाल नेहरु सरकार किसी भी कीमत पर धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों में शामिल नही करना चाहती थी।

वर्ष 1996 में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले एक अध्यादो के माध्यम से धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने का प्रयास किया था तत्कालीन राश्ट्रपति डा.शंकर दयाल शर्मा ने उक्त अध्यादो पर हस्ताक्षर करने पर मना कर दिया था। इसी प्रकार 1997 में देवगौड़ा सरकार धर्मातरितों को अनुसूचित जातियों में शामिल किये जाने के बारे में एक संविधान शंसोधन विधेयक लाना चाहती थी जिसको विपक्षी दलो के विरोध के कारण नही लाया जा सका, बाद में राज्य सरकारों से इस विधेयक पर अपनी राय देने के लिए कहा गया अधिक्तर राज्य सरकारों ने उस विधेयक के विरोध में अपनी राय दी। कर्नाटक के कांग्रेसी नेता श्री हनुमन्थप्पा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग ने भी धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की मांग को अस्वीकृत कर दिया था। बाद में उक्त आयोग के सभी परवर्ती सभापतियों अर्थात डा. सूरजभान, श्री विजय सोनकर भास्त्री और बूटा सिंह ने भी वही नीति अपनाई।

4 जनवरी 2008 को दलित ईसाई संगठन ‘पुअर क्रिचयन लिबरोन मूवमेंट’ ने प्रधानमंत्री, डा. मनमोहन सिंह नेता प्रतिपक्ष, विभिन्न दलो के दौ सौ संसद सदस्यों, कैथोलिक और प्रटोस्टेंट चर्चो के ढाई सौ भारतीय बिपों के नाम एक खुला पत्र लिखकर पूछा था कि चर्च व्यवस्था में धर्मांतरित ईसाइयों को प्रासनिक भागीदारी देने की जगह उन्हें अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल करवाने के लिये आप इतने सक्रिय क्यों है? और आप यह भी बताने का कष्ट करें कि सैकड़ों साल पहले हिन्दू समाज से टूटकर ईसाइयत की भारण में गए हुए धर्मांतरितों के वांज आज भी दलितों की श्रेणी में क्यों पड़े हुए हैं? पिछली तीन भाताब्दियों के दौरान चर्च के विकास और इन धर्मांतंरित लोगों के विकास का पैमाना क्या रहा? चर्च की शरण

में जाने के बाद भी यदि उन्हें सामाजिक आर्थिक विषमता से छुटकारा नहीं मिल पाया तो इसमें दोश किसका है? धर्मांतरितों के जीवन में चर्च का योगदान क्या हैं? स्वतंत्रटा

के बाद कितने धर्मांतरित चर्च और समाज में अपनी पहचान बना पाये है? ईसाई समाज की 70 प्रतिशत जनसंख्या दलितों की श्रेणी में आती हैं आप बताये कि चर्च संस्थानों और चर्च व्यवस्था में उनकी कितनी भागीदारी है? चर्च के भीतर भी उनके प्रति भेदभाव क्यों बरता जा रहा हैं?

चर्च व्यवस्था में बदलाव करने की अपेक्षा चर्च अपने अनुयायियों की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना चाहता है। अधिक्तर ईसाई बुद्विजीवि इसे धर्मातरित लोगों के साथ चर्च द्वारा किये गये ॔विवासघात’ की संज्ञा करार देते है। दलित ईसाई संगठन पुअर क्रिचयन लिबरोन मूवमेंट ने तो चर्च से मुआवजे की भी मांग की है। संगठन ने चर्च अधिकारियों से भवेतपत्र जारी करने की मांग की है कि विगत दो भाताब्दियों में चर्च और धर्मांतरित ईसाइयों के विकास का पैमाना क्या रहा।

उच्चतम न्यायालय ने भी धर्मांतरित ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का फैसला केन्द्र सरकार पर छोड़ दिया है। निष्कर्ष

यह कि ब्रिटिश सरकार, संविधान सभा, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, उच्चतम न्यायालय, सभी ने निर्णय की जिम्मेवारी सरकार पर डाल दी है। अब धर्मांतरित ईसाइयों को समझ जाना चाहिए कि चर्च की यह मांग किसी चक्रव्यूह से कम नही है जिसमें धर्मांतरित ईसाई घिरते हुए नजर आ रहे है। धर्मातरित ईसाइयों को अब समझ आ जाना चाहिए कि चर्च नेतृत्व एक सोचीसमझी रणनीति के तहत धर्मांतरित ईसाइयों को वयर्थ की लड़ाई में डाल रहा है। उनके लिए अब रंगनाथ मिश्र आयोग से आगे क्या हो सोचने का समय है। इतना साफ है कि चर्च का मकसद उनका विकास नही बल्कि धर्मातंरण के लिए नई जमीन की तला करना है। यह बात समझने वाली है कि चर्च धर्मांतरित ईसाइयों के लिए किसी प्रकार का अलग आरक्षण नही चाहता उसकी एक मात्र मांग उन्हें अनुसूचित जातियों की सूची में भामिल करने की है। ऐसा होने पर धर्मांतरितों का विकास भले ही न हो पाए चर्च का संख्याबल और राजनीतिक पैठ दोनों में उसे लाभ होगा। करोड़ों वंचित वर्ग के लोगों ने सामाजिक समानता के लिए ही धर्मांतरण का मार्ग चुना था अगर आज भी चर्च के अंदर असमानता व्यप्त है तो उसकी जिम्मेदारी चर्च की है कि वह उसे समाप्त करे न कि धर्मांतरित ईसाइयों को उसी पृश्ठभूमि में ले जाने का प्रयास, जिसमें से वह वापिस आयें है। धर्मांतरित ईसाइयों को चर्च के इस सडयंत्र को समझना होगा।

आर,एल.फ्रांसिस

 

1 COMMENT

  1. चलिए, अंततः भारतीय ईसाइयों को समझ में आ गया कि धर्मांतरण के नाम पर उनसे छल किया गया है. उन्हें अपने विकास की ज़मीन और मार्ग स्वयं तलाशना है. धर्म तो एक आचरण है जिसका पालनकर मनुष्य अपने जीवन पथ पर आगे बढ़ता है. अट्ठारहवीं शताब्दी में हिन्दू समाज के नैतिक पतन ने सामाजिक विषमताओं को जन्म दिया. इसके लिए पूरा समाज दोषी रहा है. इसके लिए किसी धर्म को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. आवश्यकता धर्मांतरण की नहीं अपितु धर्माचरण और पुरुषार्थ की थी. खैर, अब जो हो गया उसके सुधार का प्रयत्न किया जाना चाहिए. घर वापसी और पुरुषार्थ का मार्ग हर किसी के लिए खुला है. सामाजिक सम्मान और विकास के लिए बैसाखियों की मांग व्यर्थ है. सम्मान के लिए कुछ करना पड़ता है खैरात में मिला सम्मान एक छलावे से अधिक और कुछ नहीं है. भारतीय ईसाइयों को यह भी समझना होगा कि पश्चिमी देशों में चर्चों की तानाशाही ख़त्म करने के लिए लोगों को क्या नहीं करना पडा. भारत में इन्होने अपने छद्माचरण से दलितों की पीड़ा को बढाया ही है.

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