– पं. सुरेश नीरव
और साहब बेचारे प्रेमीजी आखिर बाकायदा सठिया ही गए। मतलब ये हुआ कि जीवन के पूरे साठ पतझड़ झेलकर भी वे अभी तक नाटआउट हैं। लोग खुश हैं कि इतनी दरिद्रता भोगने के बाद भी प्रेमीजी मरे नहीं हैं। वे कुछ दिन और कष्ट भोगें उनकी यही अखंड अमंगल कामनाएं हैं। अगर प्रेमीजी कवि नहीं होते और स्थानीय स्तर पर उनका अंतर्राष्ट्रीय सम्मान नहीं होता तो वे कब के मर-मरू लेते मगर सम्मान की इक बारीक-सी डोर ने उन्हें भवसागर से पार जाने से अभी तक रोके रखा है। लेकिन आज प्रेमीजी ऐसे छटपटा रहे हैं-जैसे प्राणरक्षक दवाओं के अभाव में हार्टअटैक पड़ने पर कोई मरीज़ तड़फड़ाता है। उनकी छटपटाहट भी जायज है। है क्या कि योग्य-अयोग्य-यथायोग्य नाना प्रकार के चेलों की प्रेमीजी ने समय-असमय और कुसमय,भूरी-भूरी प्रशंसा कर उन्हें साहित्य में स्थापित करने का हमेशा ही भावुक प्रयास किया। और इस चक्कर में बेचारे खुद स्थापित नहीं हो पाए। और उस पर सिला ये कि आज प्रेमीजी के एक भी शिष्य ने उनकी षष्ठिपूर्ति का कोई आयोजन करना तो दूर भूले से भी कोई प्रस्ताव तक नहीं रखा। ऐसे भी बुरे दिन आंएगे, प्रेमीजी ने कभी सोचा भी नहीं था। अपने खानदानी वयोवृद्ध मकान की छत पर हर रविवार प्रेमीजी कवि गोष्ठी किया करते। कवियों को चाय-नाश्ता भी कराते। फिर तय है कि अध्यक्षता भी खुद ही करते। किसी और के अध्यक्ष बनने का तो सवाल ही नहीं उठता था। लालकिले में जब बहादुरशाह जफर मुशायरा कराते थे तो वे भी तो सदारत खुद ही किया करते थे। हमारे प्रेमीजी बहादुरशाह जफर से कम थोड़ी ही हैं। वे अपने मुहल्ले के बाकायदा बहादुरशाह जफर हैं। और न ही उनका मकान किसी लालकिले से कम है। न खुद प्रेमीजी की नज़र में और न मुहल्लेवालों की नज़र में। यूं भी प्रेमीजी और बहादुरशाह जफर में कई भयानक समानताएं हैं। मसलन- जफर साहब बेचारे नाम के ही बादशाह थे। नगर के लोगबाग प्रेमीजी को भी नाम का ही कवि मानते हैं। जफरसाहब बेचारे अपने ही राज्य के सेठों से पैसा कर्ज लेकर राज्य चलाते थे मगर मुशायरा करने से बाज नहीं आते थे ऐसे ही हमारे प्रेमीजी भी बेचारे हाईक्वालिटी की कड़की झेलते हुए भी कवि गोष्ठी करने पर हमेशा आमादा रहते हैं। मौका मिला नहीं कि तड़ से कवि गोष्ठी पेल दी। और जैसे अंग्रेज लोग सदाबहार कड़के नवाब के लालकिले को ललचाई नज़रो से देखते थे वैसे ही मुहल्ले के प्रोपर्टीडीलर प्रेमीजी के खानदानी दौलतखाने को निहारा करते हैं। वे हमेशा इसी फिराक में रहते हैं कि जरा-सा मौका मिले और वे मुहल्ले के बहादुरशाह जफर को रंगून रवाना करें। आज मुहल्ले का बहादुरशाह जफर अपने किले की छत पर बेचैन होकर घूम रहा है। उसे अपनी बदनसीबी के आगे बहादुरशाह की बदनसीबी छोटी लग रही है। प्रेमीजी बुदबुदाते हैं कि कितना है बदनसीब जफर-जैसी ग़ज़लें दोस्तों को ही नहीं फिरंगियों को भी सुनाकर बादशाह ने तो अपने दिल की भड़ास निकाल ली थी मगर उनकी गजलों को सुनने दुश्मन की तो भली चलाई चेले तक नहीं आ रहे हैं। मगर इतनी दुर्दांत बदनसीबी में भी मैंने जफरसाहब की तरह रोने-धोने की कोई रचना नहीं की। आखिर दिलेरी भी तो कोई चीज होती है। प्रेमीजी ने अपनी पीठ थपथपाकर खुद को ही किंगसाइज शाबाशी दी। यूं भी गर्दिश के दिनों में दाद देने में आदमी को आत्मनिर्भर होने में ही भलाई है। भला दूसरा कौन शाबाशी देता है गर्दिश के दिनों में। और वैसे भी आज कौन किसको शाबाशी दे रहा है। ये दौर ही लंगड़ी और टंगड़ी मारने का दौर है। लंगड़ी मारकर जो अपने से आगेवाले को पटक लेता है,वो खुद अपने को शाबाशी दे लेता है। और फिर सतर्क होकर वह पीछेवाले को घूरता है कि कहीं वो भी इसी फार्मूले से उसे गच्चा न दे दे। शास्त्रो में श्रषि-मुनि कह गये हैं कि सावधानी हटी कि दुर्घना घटी। टंगड़ी मारनेवाला अपने को समझाता है कि शाबाशी का हैंगओवर जरा-सा भी लंबा खिंचा नहीं कि पीछेवाला फटाक से धड़-धड़ाम कर देगा। इस वक्त प्रेमीजी को इस तनहाई के मौसम में तमाम तरह की टांगे अपनी ओर आती दिखाई पड़ रही हैं। हर टांग टंगड़ी मारने की मुद्रा में आगे बढ़ रही है। और बेबस प्रेमीजी इस टंगड़ी के बवंडर में गहरे धंसते चले जा रहे हैं। और फिर अचानक शाबाश..शाबाश के कोरस में में वे ऐसे धंसने लगते हैं जैसे खुले सीबर की कीचड़ में खल्लास गुटखे का पाउच। जो कीचड़ में रहकर भी अपनी चमक की ठसक बरकरार रखता है। प्रेमीजी की प्रतिभा का पाउच गर्दिशों की कीचड़ में गिरकर भी कतई मलिन नहीं हुआ। इस खल्लास पाउच की कालजयी चमक उम्र के साठ पतझड़ झेलकर भी आज तक टनाटन बरकरार है। ये बात और है कि आज चेलों का विश्वासघात प्रेमीजी को टेंसया रहा है। टेंशन में वे बड़बड़ा रहे हैं कि लंका में तो एक ही विभीषण था मगर मैं तो अनजाने में विभीषणों की नर्सरी का ही मैनेजर बना हुआ था। दिल्ली की जमीन की रेट की तरह उनका गुस्सा बढ़ने लगा। आंसूओं की प्रदूषित यमुना का जल कीचड़ की तरह आँखों में बजबजा उठा। प्रदूषण के भार से चरमराएं आंसुओं का गाल पर रेंगना तो दूर वे आंखों में ही किसी मोटे सेठ की तरह हांफते हुए दम तोड़ने लगे। प्रेमीजी सोच रहे हैं कि कुछ लोग तो 80 साल में भी राजभवन में कन्याएं बुला लेते हैं और मैं बदवसीब अपने निजीभवन में ही दो-चार टुच्चे चेलों के लिए तरस रहा हूं। हाय री किस्मत। कोई भी चेला षष्टिपूर्ति का प्रस्ताव लेकर नहीं आया। कहीं षडयंत्र शिरोमणि शास्त्रीजी ने तो मेरे चेलों को नहीं भड़का दिया। उनके शगूफे तो वैसे भी आईफ्ल्यू की तरह तुरंत शहर में फैल जाते हैं। उनका मन ऐसी ही डिजायन की तमाम लघुऔर दीर्घशंकाओं से भर गया। अंतर्द्वद्व की ऐसी भीषण मारक वेला में अदम्य साहस का परिचय देते हुए प्रेमीजी ने अपनी सांसों की झाड़ू को अपने फेंफड़ों में उतारकर ऐसी कलात्मकता से खंगाला कि अगर बाबा रामदेव इस प्राणायाम को देख लेते तो शर्म से पानी-पानी हो जाते। वैसे अगर प्रेमीजी कवि न होकर सिर्फ एक औसत फालतू आदमी ही होते तो यकीनन रामदेव से ज्यादा कारगर कारनामे कर दिखाते। लेकिन जिस कविता के खातिर प्रेमीजी ने इस गुप्त प्रतिभा का हंसते-हंसते बलिदान कर डाला हाय री किस्मत उसी कविता की बदौलत वे आज बेचारे घर के रहे ना घाट के। प्रेमीजी इधर चिंतन की सूंघनी से नथुनों को परफ्यूम्ड करने में लगे थे कि तभी सांसों की झाड़ू ने फेंफड़ों से फ्लोराइड पेस्ट की तरह श्वेतधवल यौगिक का धमाकेदार उत्तर्जन कर,सन्नाटे के कानों में शास्त्रीय संगीत उड़ेल दिया। मुहल्ले के लोगों ने इस कातर ध्वनि को प्रेमीजी की आखिरी सांस का उत्सवनाद समझा। कुछ निठल्ले एक्ट्रा उत्साह में भरकर-जबतक सूरज चांद रहेगा.. प्रेमीजी का नाम रहेगा के मुबारक नारों को हवा में उछालकर भांगड़ा करने लगे। प्रोपर्टीडीलरों तक जब यह मंगलकारी समाचार पहुंचा तो प्रेमीजी के पार्थिव शरीर पर पहले पुष्पचक्र कौन रखेगा इस मुद्दे पर घमासान छिड़ गया। इधर प्रचंड कफ-विस्फोट से थके प्रेमीजी छत की मुंडेर से ऐसे लटक गए-जैसे आंधी के बाद खंभे से टूटा बिजली का तार जो लटका भी होता है और जुड़ा भी होता है। ऐसे ही गजब का संतुलन बनाए हठयोगी की तरह लटकायमान मुद्रा में अपनी ही शवयात्रा की खुशगवार चहलपहल को प्रेमीजी फटी-फटी आंखों से देखकर भरपेट आनंदित होने लगे। भयानक कड़की के सांचे में तराशे गए इस दुर्दांत साहित्कार को बचाने के लिए उनके पास जाने के विचार को लोग आत्महत्याकारी पराक्रम मान रहे थे। इसलिए दूर से ऐसे ही आनंद लेने लगे जैसे कि कोई मंत्री बाढ़ग्रत क्षेत्र के दृश्यों के लेता है। इसी बीच कुछ खोजी पत्रकारों का जत्था और सूंघा चैनलचारियों का गैंग कंधे पर बेताल की तरह कैमरा लटकाए प्रेमीजी की ऊर्ध्वपातित मुद्रा के शाट्स लेने लगा। अफगानिस्तान में भूमिगत हुए तालिबानों की तरह प्रेमीजी के चमचे मौत की इस पावन बेला में अचानक प्रकट होने लगे। ट्रैफिक रेडलाइट पर जैसे भिखारियों का स्वयंसेवीदल प्रकट होता है वैसे ही प्रेमीजी के चेले चैनलिया कैमरों के सामने आपस में इस बात पर लड़ने लगे कि प्रेमीजी के जीवन पर पहले कौन बोलेगा। चैनल के समझदारलोगों ने शोक सभा के लिए गैंगवार नाम से चमचों की इस मुठभेड़ का लाइव टेलीकास्ट करना शुरू कर दिया। बीच-बीच में कार्यक्रम को रोचक बनाने के लिए चमगादड़ की तरह उल्टा हुआ लटका प्रेमीजी का पार्थिव शरीर क्लोजअप में दिखाया जाता। एक अकादमी के लीलाधारी अधिकारी कवि जो पूरी ईमानदारी से प्रेमीजी का नाम कविसम्मेलन की लिस्ट से कटवाते रहे थे आज पेशेवर रूदाली का डीलक्स एडीशन बने उनके लिए कैमरे के आगे मगरमच्छ के आँसू बहा रहे थे। ये आंसू नामक पदार्थ खुशी के लम्हों में भी सक्रिय हो जाता है,इसलिए जो लोग इन सज्जन की फितरत से वाकिफ थे वे इन आंसुओं का इल्जाम खुशी के ही माथे मढ़ रहे थे। खैर साहब तीन घंटे के इस रंगारंग कार्यक्रम का भरपूर आनंद लेने के बाद छत से वैसी ही शैली में आकाशवाणी हुई जैसी कि कंस द्वारा मथुरा में कन्या को पटककर मारते समय हुई थी। प्रेमीजी चैनलचारियों से कह रहे थे- एक बाइट मेरी भी ले लेना भैया। मैं साठ साल का हो गया हूं। बिना षष्ठिपूर्त समारोह कराए कैसे मर सकता हूं। और अगर आप समझ रहे हैं कि मैं मर गया हूं तो समझलें कि आप कोई टीवी सीरियल देख रहे हैं जहां अक्सर हीरो या हिरोइन मर-मर के जिंदा हो जाते हैं। मुझे अपनी शोकसभा का उत्सव देखकर इतनी प्रन्नता हुई कि ऐसी शोकसभा के लिए एक बार तो क्या मैं हजार बार भी मर सकता हूं। और मर-मर कर जिंदा हो सकता हूं। ऐसी शानदार शोकसभाएं तो मुर्दों के लिए पुनर्जीवारिष्ट का काम करती हैं।
आई-204,गोविंद पुरम,गाजियाबाद
मो,9810243966
हास्य व्यंग्य : षष्टिपूर्ति बनाम शोक सभा – by – पं. सुरेश नीरव
यह ” हास्य व्यंग्य ” पढने के उपरांत विस्मय हो रहा है –
क्या चीज़ लिखी है और क्यों.
क्या, क्यों जो भी हो – आप मामा लगतें हैं.
मामा नहीं, उम्र तो नाना की हो गयी.
उम्र हो गयी ; तो हो गयी, हम क्या करें
बड़े बत्तमीज़ हो, बड़ों से ऐसे भोंक कर बोलते हैं
क्या बकवास कर रहे हो – भोकना बोलना एक जैसा होता है क्या
चले चलो, चले चलो, यों ही लिखते रहो
माफ़ करिए – यही तो हास्य व्यंग्य है जी
– अनिल सहगल –