कम्युनिज्म का अन्तर्द्वन्द्व, विरोधाभास और विफलता-१

विपिन किशोर सिन्हा

शोषणविहीन और समतामूलक समाज के सपने के साथ शुरू हुआ कार्ल मार्क्‍स प्रणीत कम्‍युनिज्‍म जल्‍द ही पूरी दुनिया में फैल गया। युवाओं में इसके प्रति विशेष आकर्षण रहा। रूस, चीन, भारत समेत अनेक देशों  में इसका प्रभाव समाज जीवन के सभी क्षेत्रों यथा – शिक्षा, ट्रेड यूनियन, पत्रकारिता, साहित्‍य, कला, रंगमंच आदि- में पड़ा। लेकिन यह भी उल्‍लेखनीय है कि जितनी शीघ्रता से लोग इस विचारधारा से जुड़े, उतनी ही शीघ्रता से लोगों का इससे मोहभंग हुआ। ‘प्रवक्‍ता’ पर कम्‍युनिज्‍म के अंतर्द्वंद पर प्रकाश डाल रहे हैं विपिन किशोर सिन्‍हा। तीन भागों में प्रकाशित होने वाले इस लेख का पहला भाग प्रस्‍तुत है (सं.): 

कम्युनिज्म का उदय मानवीय संवेदनाओं के संरक्षण के लिए हुआ था।पूरे विश्व में उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के दौरान औद्योगिक क्रान्ति ने उत्पादन तो बढ़ाया किन्तु मजदूरों की दशा को अत्यन्त दयनीय बना दिया। कार्ल मार्क्स इससे द्रवित हुए। उनके लंबे अध्ययन और चिन्तन से कम्युनिज्म का जन्म हुआ। उन्होंने अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त खोज निकाला जिसके अनुसार किसी कच्चे माल को मजदूर जब अपने श्रम से पक्के माल में बदल देता है, तब उसकी जो मूल्य वृद्धि होती है, वह श्रमिक को न मिलकर पूंजीपति के हाथों में चली जाती है और इस प्रकार मजदूर का शोषण होता है। उन्होंने कहा कि उत्पादन के साधनों का स्वामित्व निजी हाथों से छीनकर समाज अर्थात शासन के हाथों में दे देना चाहिए। साथ में उन्होंने यह भी कहा कि जनतंत्रीय शासन व्यवस्था में पैसों के बलपर पूंजीपति शासन पर कब्जा कर लेते हैं, इसलिए ऐसे शासन के हाथों स्वामित्व देने पर भी मजदूरों की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आयेगा। अतः मजदूरों को संगठित कर हिंसक क्रान्ति द्वारा मजदूरों की सरकार स्थापित करनी होगी। ऐसी क्रान्ति के लिए उन्होंने मजदूरों को ही सबसे उपयुक्त माध्यम पाया क्योंकि उनके पास बेड़ियां छोड़कर अपना कहने के लिए कुछ नहीं होता। साथ ही द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त का निरुपण कर उन्होंने बताया की जनतंत्र के विरुद्ध होकर पूंजीवाद का ढहना और कम्युनिज्म का आना एक अनिवार्य ऐतिहासिक प्रक्रिया है। अर्थात सबसे अन्त में कम्युनिज्म का आना अवश्यंभावी है।

यह सत्य है कि मार्क्स ने संसार के समक्ष एक शास्त्रीय चिन्तन दिया। उसमें कई गतिशील और विकासशील विचार (Dynamic and developing) और विचार-प्रणाली(Way of thinking) है। मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Materialistic dialecticism) में परिवर्तन अवश्यंभावी माना गया है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो उसमें परिवर्तन हो सकता है लेकिन मार्क्स के विचारों को वाद (Ism) मान लेने पर मार्क्स का पूरा साहित्य बन्द किताब में बदल जाता है और उसमें ढेर सारी त्रुटियां दृष्टिगत होती हैं। समय के प्रवाह के साथ वही हुआ जो मार्क्स नहीं चाहते थे। स्वयं मार्क्स का एक वाक्य है – Thanks God, I am not a marxist – ईश्वर को धन्यवाद कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूं। लेकिन उनके ही अनुयायियों ने उनके विचारों को संकलित कर इसे वाद(Ism) का रूप दे डाला, जो मार्क्स के साथ भारी अन्याय है। कम्युनिस्टों ने मार्क्सवाद को एक मजहब बना डाला। उन्होंने मजहब की सारी शर्तों(Characteristics) को मार्क्स के विचारों में समाहित कर दिया। मजहब की पवित्र पुस्तक कुरान या बाइबिल की तरह एक किताब रहे, मोहम्मद साहेब या ईसा मसीह की तरह एक मसीहा रहे, कम्युनिस्टों ने इसकी पूरी व्यवस्था कर डाली। मजहबी पुस्तक के स्थान पर उन्होंने दास कैपिटल(Dass Capital) और पैगंबर के स्थान पर मार्क्स को प्रतिष्ठित कर डाला। सात स्वर्गों के स्थान पर कम्युनिज्म की उच्चत्तम अवस्थाओं(Hyper phases of Communism) की कल्पना दी जो बिल्कुल स्वर्ग के समान है, जहां सबको सबकुछ मिलेगा। इसके लिए उन्होंने एक अल्ला भी बताया – द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद(Materialistic Dialecticism). इस तरह एक मसीहा, एक धर्मग्रन्थ, एक स्वर्ग, एक अल्ला – इन सारे मजहब के तत्त्वों को मार्क्सवाद पर लागू किया गया।

कार्ल मार्क्स ने विश्व साहित्य, विज्ञान, दर्शन, इतिहास और व्यवस्था पर गंभीर अध्ययन और चिन्तन किया था। उन्होंने जो आधारभूत सिद्धान्त प्रतिपादित किए उनका आधार वैश्विक दर्शन है जिसे अंग्रेजी में Cosmology कहते हैं। यह जो सारा अस्तित्व है जिसे विश्व या ब्रह्माण्ड कहते हैं, उसके विषय में जो नियम हैं उनको वैश्विक दर्शन या Cosmology कहा जाता है। इसमें तीन प्रश्नों के उत्तर में समस्त समाधान है – १. सारा अस्तित्व कहां से निकला, २. किधर जा रहा है और ३. जाने का क्या रास्ता है – Whence, Whither and How? मार्क्स ने इन तीनों प्रश्नों के उत्तर विज्ञान और दर्शन से प्राप्त किए। उनपर न्यूटन, डार्विन और हेगेल का प्रबल प्रभाव था।

अस्तित्व के जन्म का सिद्धान्त – सारा अस्तित्व कहां से निकला – मार्क्स ने न्यूटन से प्राप्त किया। न्यूटन ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड पदार्थ से निकला है। जड़-द्रव्य या भौतिक-द्रव्य ही सबकुछ है। यही मौलिक, मूलभूत या बेसिक है। मार्क्स ने इस सिद्धान्त को ज्यों का त्यों स्वीकार किया। उस समय ऐसा लगा कि मार्क्स ने अबतक अनुत्तरित रहे प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कर दिया। लेकिन कुछ ही समय बाद यह सिद्धान्त वैज्ञानिक आधार पर ध्वस्त हो गया जब आइन्स्टीन ने द्रव्य के ऊर्जा में रूपान्तरण और ऊर्जा के द्रव्य में रूपान्तरण का अनोखा सिद्धान्त प्रतिपादित किया। E=mc2 के सिद्धान्त ने संसार के सारे वैज्ञानिकों को मानने के लिए विवश कर दिया कि द्रव्य और ऊर्जा एक दूसरे में परिवर्तनीय हैं – Energy and matter are interconvertable. यह सिद्ध हो गया कि द्रव्य(Matter) मौलिक चीज नहीं हो सकती है। जब दोनों एक दूसरे में परस्पर परिवर्तनशील सिद्ध हो गए तो मौलिक या बेसिक जो भी उसका स्वरूप था वह स्वतः समाप्त हो गया। इसलिए यह धारणा कि सारा अस्तित्व द्रव्य पदार्थ से निकला है, अपने आप पूरी तरह गलत सिद्ध हो गई। मार्क्स के वैश्विक दर्शन को वैज्ञानिक आधार पर पहला धक्का आइन्स्टीन ने पहुंचाया।

वैश्विक दर्शन के दूसरे महत्त्वपूर्ण प्रश्न – सारा अस्तित्व किधर जा रहा है का उत्तर जीव विज्ञान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डार्विन ने दिया था। उनका कहना था कि सारा अस्तित्व उत्क्रान्ति(Evolution) की ओर जा रहा है। मार्क्स ने जीव विज्ञान का यह सिद्धान्त वहां से उठाकर अपने वैश्विक दर्शन में समाहित कर लिया और कहा कि यह द्रव्य पदार्थ की उर्ध्वगामी गति है और द्रव्य उत्क्रान्ति की ओर बढ़ता जा रहा है (This is upward movement of matter).

स्वयं डार्विन को अपने जीवन काल में ही यह सन्देह हो गया था कि वास्तव में क्या सारा अस्तित्व अनिवार्य रूप से उत्क्रान्ति की ओर जा रहा है? जीव-विज्ञान में बाद में जो शोध-कार्य हुए उसमें सिर्फ उत्क्रान्ति (Evolution) की धारणा में परिवर्तन स्वीकार किए गए। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया कि उत्क्रान्ति(Evolution) के साथ अपक्रान्ति(Involution) की क्रिया भी होती है। यह सिद्धान्त कि सबकुछ केवल उत्क्रान्ति की ओर बढ़ रहा है, गलत सिद्ध हुआ। इस नए सिद्धान्त के कारण उत्क्रान्ति(Evolution) के संबंध में मार्क्स के वैश्विक दर्शन का दूसरा स्तंभ भी ध्वस्त हो गया।

वैश्विक दर्शन के तीसरे प्रश्न कि अस्तित्व के जाने का रास्ता क्या है, इसका उत्तर मार्क्स ने अपने से वरिष्ठ तत्त्वज्ञ हेगेल की विरोध-विकासवाद(Dialecticism) की अवधारणा से प्राप्त किया। दर्शन शास्त्र से हेगेल के चिन्तन को निकालकर मार्क्स ने अपने वैश्विक दर्शन का अंग बना लिया और एक सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया। मार्क्स ने कहा कि विरोध-विकासवाद(Dialecticism) के माध्यम से जड़-पदार्थ(Matter) का विकास होता है। Dialecticism को विस्तार से समझने की आवश्यकता है क्योंकि कम्युनिज्म में इसका महत्त्व सर्वाधिक है।

विरोध व विकासवाद एक प्रक्रिया है। सृष्टि में व्याप्त किसी भी अवस्था का उदाहरण लिया जा सकता है। जिस अवस्था पर प्रयोग किया जा रहा है उसे क्रिया(Thesis) कहा गया है। उस Thesis के पेट में उसकी विरोधी शक्तियों का निर्माण होता है जिसे प्रतिक्रिया(Antityhesis) कहा गया। Thesis और Antithesis का संघर्ष होता है। इसमें पहली चीज यानि Thesis नष्ट होता है और तीसरी चीज का निर्माण होता है, जिसे Synthesis कहा गया है। कालान्तर मे Synthesis स्वयं Thesis बन जाता है और Antithesis का सामना करता है। एक उदाहरण से यह सिद्धान्त और स्पष्ट हो जाएगा।

मुर्गी के सामान्य अण्डे को Thesis माना जा सकता है। उसके पेट में प्राणशक्ति निर्मित होती है जिसे Antithesis कहा जा सकता है। दोनों का संघर्ष होता है, अण्डा नष्ट होता है और Synthesis के रूप में चूजा निकलता है। किसी भी वृक्ष का बीज Thesis है, उसके पेट की प्राणशक्ति Antithesis है। दोनों का संघर्ष होता है जिसके परिणामस्वरूप उपर का बीज नष्ट होता है और Synthesis यानि अंकुर निकल आता है। इस तरह यह प्रक्रिया चलती रहती है। यह Synthesis आगे चलकर पुनः स्वयं Thesis बन जाता है।

मार्क्स ने हेगेल से विरोध-विकासवाद (Dialecticism) का सिद्धान्त लिया। यह भारतीय दर्शन में वर्णित ‘कालचक्र’ के सिद्धान्त का आंशिक रूपान्तरण है। हेगेल भारतीय दर्शन के अच्छे अध्येता थे। उनके मस्तिष्क में विरोध-विकासवाद का विचार भारतीय सांख्य-दर्शन से आया, यह एक स्वीकृत तथ्य है।

विरोध-विकासवाद का रास्ता? इस प्रक्रिया के अनुसार पूंजीवाद Thesis है। उसके पेट में उपभोक्ताओं और मजदूरों का असंतोष Antithesis के रूप में पलता है। दोनों के संघर्ष में पूंजीवाद के रूप में जो Thesis है, वह नष्ट होता है और साम्यवाद रूपी Synthesis का निर्माण होता है। प्रत्येक Synthesis कुछ समय के बाद Thesis बन जाएगा और पुनः उससे Antithesis संघर्ष करेगा, मार्क्स ने इसकी कल्पना नहीं की थी। बहुत कम समय में ही लगभग आधी दुनिया को अपनी गिरफ़्त में रखने वाला कम्युनिज्म स्वयं Thesis बन गया, जनता के प्रबल विरोध ने Antithesis का काम किया और Synthesis के रूप में मार्क्सवाद या साम्यवाद आज विश्व में कहीं नहीं रह गया है। विज्ञान ने भी मार्क्स के वैश्विक दर्शन के सिद्धान्तों को झुठला दिया। विज्ञान कहता है कि कोई भी वस्तु नष्ट नहीं होती है, बस उसका रूपान्तरण होता है। जमीन में दबा बीज नष्ट नहीं होता, एक पेड़ के रूप में उसका रूपान्तरण अवश्य होता है। इसी प्रकार पानी, बर्फ़ या बादल में परिणत हो जाता है, नष्ट नहीं होता। ठीक इसी तरह पदार्थ ऊर्जा में तथा ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तनीय हैं। पदार्थ को नष्ट नहीं किया जा सकता। विज्ञान का यह सिद्धान्त हिन्दू-दर्शन के शाश्वत सिद्धान्त की पुष्टि करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में आधारभूत सिद्धान्त के विषय में कहा गया है – नाऽसतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः – अनास्तित्व से अस्तित्व आ नहीं सकता और अस्तित्व स्वयं को अनास्तित्व में परिणत नहीं कर सकता।

‘Out of non existence, existence cannot emerge and existence cannot culminate itself into non existence.’

कम्युनिस्टों द्वारा संचालित मजदूरों का आन्दोलन, बोनस, महंगाई भत्ता, वेतनवृद्धि की लडाई और इनके माध्यम से वर्ग-संघर्ष का प्रतिपादन मार्क्स के वैश्विक दर्शन का उप उत्पादन (Byproduct) है। ये सभी विरोध-विकासवाद (Dislecticism) के ही उपसिद्धान्त हैं। इस तरह मार्क्स के विचारों के आधार को ही विज्ञान ने ध्वस्त कर दिया है। अब विज्ञान के कारण कम्युनिस्टों के लिए यह कहना कठिन हो गया है कि मार्क्स ने जो कुछ भी कहा है वह अक्षरशः सही है।

क्रमशः

9 COMMENTS

  1. इस व्यक्ति ने कभी मार्क्स को पढ़ा ही नही और चल पड़ा समीक्षा करने । मार्क्स के प्रतिपादित सिद्धांतों के हवाले से ही मार्क्स की ‘आलोचना’ ( खैर आलोचना से मार्क्सवादी कभी घबराते नही लेकिन चर्चित लेख को आलोचना भी नही कहा जा सकता ) करने का चलन नया नही बल्कि खुद मार्क्स के जमाने से ही प्रचलित है । ‘मुक्तिबोध’ के शब्दों में , मैं तो यही पूछना चाहूँगा कि -मित्र आपकी ‘पॉल्टिक्स’ क्या है ।

  2. लेख पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, इसमें किये गये दावो के पक्ष में कोई ठोस सबूत या सन्दर्भ पेश नही किया गया है.

  3. In a letter to C. Schmidt on 5 August 1890, Marx’s fellow-author Friedrich Engels wrote: “As Karl Marx used to say about the French “Marxists” in the 1870s, ‘All I know is that I am not a Marxist.'”

    I think Marx was referring particularly to the period of the Paris Commune. In 1871 an attempt to overthrow the monarchist French government led to widespread rioting, violence and near civil war. Many leaders of the anti-government movement called themselves Marxists. This annoyed Marx, but it wasn’t the only development in “marxism” which annoyed both him and Engels. They lived to see their theories, which were intended to encourage enlightened research and debate, treated like religious doctrines, and often twisted to suit various agendas.

    मुझे यह रेफेरेंस मिला|

    • यह कोरी लफ्फाजी है ऐंसा कोई सन्दर्भ सम्पूर्ण मार्क्सवादी- लेनिनवादी वांग्मय में नहीं है.! हालाकि पंकज ने सवाल प्रस्तुत आलेख के रचनाकार से किया है किन्तु मुझे भी इस मिथ्या सन्दर्भ ‘thanks god ,i am not a marxit ” जैसी स्थापना पर हैरानी है.

  4. मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास में ‘साम्यवादी विचारधारा ‘ का विकाश आदिम साम्यवादी व्यवस्था से लेकर आधुनिक ‘मार्क्सवादी-लेनिनवादी’ और उससे से इतर अन्य तमाम लोकतांत्रिक जनवादी व्यवस्थाओं में ठीक उसी तरह से होता रहा है, जैसे कि जैन धर्म का विकाश. आदिनाथ [ऋग्वैदिक ऋषि] ऋषभदेव से लेकर ‘सांख्य’ और उपनिषद के अभ्युदय से भी आगे बढ़ता हुआ जैन दर्शन ‘ महावीर’ के दौर में
    अपनी विराट छवि में प्रस्फुटित हुआ था. इसी तरह अन्य तमाम भाववादी दर्शनों ने भी अपने -अपने पूर्ववर्तियों से प्रेरणा पाकर एक विशेष देश -काल और परिस्थिति में अपने सर्वश्रष्ठ स्वरूप को प्राप्त किया है. जिस तरह कोई भी भाववादी दर्शन आकस्मिक और काल विशेष कि उपलब्धि नहीं है बल्कि एक निरंतर एतिहासिक विकाश कि उत्तरोत्तर प्रक्रिया के परिणाम हैं उसी तरह
    भौतिकवादी विचारधाराओं [जैन बौद्ध,सांख्य,चार्वाक,योग,निरुक्त इत्यादि भारतीय नास्तिक दर्शनों के समानांतर ] ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ भी पुरातन आदिम साम्यवादी दर्शन है जिसका मार्क्स ने सिर्फ विश्लेषण भर किया है अर्थात जिस तरह न्यूटन ने दुनिया को बताया कि पृथ्वी या ब्रम्हांडीय पिंडों में आपस का आकर्षण सन्निहित है और ‘सेवफल प्रथ्वी पर इसी आकर्षण बल के कारण गिरा’ दरसल जब न्यूटन ने ये बताया उससे से पहले से ही यह सिद्धांत क्रियाशील है. ये बात अलहदा है कि मनुष्य को तब मालूम हुआ जब न्यूटन ने बताया.इसी तरह ‘श्रम शोषण’अतिरिक मूल्य’ और उच्चतम मानवीय मूल्यों की पुरातन आकांक्षा के द्वन्द का सिद्धांत सनातन है.मार्क्स से पहले दुनिया के कई मुल्कों में शोषित सर्वहारा ने अपने -अपने ढंग से शोषण -दमन-गुलामी [भारत ने भी ] का प्रतिकार किया था कभी इन क्रांतियों को सफलता मिली कभी दमनचक्र तेज हुआ किन्तु मार्क्स ने एंगेल्स के सहयोग से इसे ‘अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ का आकर दिया .लेनिन ,स्टालिन,माओ.चेगुयेबेरा,फिदेल कास्त्रो,होचीन मिंहऔर भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों ने उसे परिकल्पना से प्रेक्टिकल में बदलने का काम किया ,इसमें कुछ सफलता भी मिली, कुर्वानियों का सिलसिला चल पढ़ा ,अब ये सिलसिला रुकने वाला नहीं. आपका आलेख ‘कमुनिस्ट मेनिफेस्टो ‘ फ्रांसीसी क्रांति,सोवियत क्रांति,चीन कि लाल क्रांति,क्यूबिक क्रांति,वियतनाम कि क्रांति बोलिबियाई क्रांति और सारी गुलाम दुनिया के राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों में इस विचारधारा कि शानदार भूमिका के उल्लेख बिना अधुरा और एक पक्षीय है.

    • यूँ तो सारे वाद वैज्ञानिक हैं, पूँजीवाद भी। क्योंकि पूंजीवाद भी मानव स्वभाव का एक परिणाम है। प्रश्न यह हैकि इन तमाम वादों में मानव समाज के लिये सर्वाधिक उपयुक्त क्या है? निश्चित ही वह “वाद” तो नहीं जो रूस में असफ़ल हो गया और चीन में असफल होने की कगार पर है। कम्यूनिज्म बात तो कम्यून की करता है पर यथार्थ में जहाँ सहिष्णुता का अभाव होता है वहाँ साम्यवाद की बात करना एक छलावा भर ही है। देखा यही गया है कि कम्यून सिस्टम में लोग सहिष्णु नहीं होते। सत्ता का खेल वहाँ भी होता है, वर्ग भेद वहाँ भी है ..और खूब है। मानव प्रवृत्ति के कारण वर्ग भेद को समाप्त नहीं किया जा सकता…हाँ इसे न्यून करने का प्रयास ही सम्भव है।

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