कंपनी या कारू का खजाना…?

शारदातारकेश कुमार ओझा
एक कंपनी के कई कारोबार। कारोबार में शामिल पत्र – पत्रिकाओं का भी व्यापार। महिलाओं की एक पत्रिका की संपादिका का मासिक वेतन साढ़े सात लाख रुपए तो समाचार पत्र समूह के सीईओ का साढ़े सोलह लाख से कुछ कम। पढ़ने – सुनने में यह भले यह अविश्सनीय सा लगे, लेकिन है पूरे सोलह आने सच। वह भी अपने ही देश में। हम बात कर रहे हैं हजारों करोड़ रुपयों के  पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित शारदा घोटाले की। मामले की जांच का जिम्मा सीबीअाई के हाथ लगते ही एक से बढ़ कर एक सनसनीखेज खुलासे रोज हो रहे हैं। जिससे यह समझना मुश्किल है कि शारदा कोई कंपनी थी या कारू का खजाना। जिससे निकलने वाली रकम खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी। रोज हो रहे खुलासे के बाद जेल में बंद इस मामले का मुख्य अभियुक्त सुदीप्त सेन बिल्कुल निरीह और असहाय प्रतीत होता है, जबकि पेज थ्री कल्चर वाले एक से बढ़ कर एक चमकदार चेहरे अचानक कालिमा में लिप्त नजर आने लगे हैं। क्या संपादक क्या खिलाड़ी , पुलिस अधिकारी – सांसद और क्या मंत्री। हजारों करोड़ के इस घोटाले के हमाम में सब नंगे नजर आ रहे हैं। किसी की कोई फैक्ट्री घाटे के चलते सालों से बंद पड़ी थी, सो इस चिटफंड कंपनी के मालिक को ब्लैकमेल कर वही कंपनी करोड़ों में बेच दी। किसी ने समाचार पत्रों की संपादकी हथिया ली, तो किसी ने पत्रिका की। कोई घाटे में चल रही अपनी पत्रिका को करोड़ों के भाव इसके मालिक को बेच कर पिंड छुड़ा लिया, लेकिन इसके बावजूद मालिकाने का हस्तांतरण  नहीं किया, और समाज में भद्रलोक बने  रह कर पैसे व सत्ता की बदौलत बड़े से बड़े पद पर पहुंच गए, तो कोई प्रख्यात खिलाड़ी रिजर्व बैंक और सेबी के अधिकारियों को मैनेज करने के नाम पर शारदा कंपनी के मालिक से कभी करोड़ों की एकमुश्त तो लाखों रुपए महीना वसूलता रहा। वहीं कई कंपनी को सलाह देने के एवज में इसके मालिक से लाखों की रकम मासिक तो यदा – कदा करोड़ों एकमुश्त लेते रहे।  कंपनी का दोहन करने वालों मेें और भी कई नामी – गिरामी अभिनेता – अभिनेत्री कम राजनेता के नाम सामने आ रहे हैं। किसी अभिनेता के बारे में खुलासा हो रहा है कि कंपनी के लिए प्रचार करने के नाम पर वह महीने में लाखों की रकम इसके प्रबंधन से वसूलता था, तो किसी अभिनेत्री को लाखों की रकम हर महीने ब्रांड अंबेसडर बनने के लिए दिए जाते थे। एेसे खुलासों के बाद तो यही लगता है कि शारदा कोई कंपनी नहीं बल्कि कारू का खजाना अथवा कामधेनु गाय थी। जिसे सब ने खूब दुहा। या फिर मधुमक्खी का एेसा छत्ता , जिसके डंक तो कुछ के हिस्से आए , लेकिन बाकी ने छक कर मधु का मीठा स्वाद चखा। यही वजह रही कि एक सीमा के  बाद जब दोहन संभव नहीं हो सका तो कंपनी का मालिक सुदीप्त सेन देश से फरार होने की तरकीबें ढूंढने लगा और अंततः पकड़ा गया। जबकि इसे दुहने वाले भले मानुष की तरह अपनी – अपनी दुनिया में लौट गए। इस प्रकरण के सामने आने के बाद मुझे अपने शुरूआती जीवन के वे संघर्षपूर्ण दिन बरबस ही याद आने लगे  , जिसका साक्षी बन कर मैं हतप्रभ रह गया था। राजधानी कोलकाता में मुझे तब एक मामूली नौकरी मिली थी। हाड़ तोड़ मेहनत के साथ जिल्लत भरी जिंदगी के बाद भी हाथों में नाम मात्र की राशि ही वेतन के रूप में आती थी। लेकिन उसी दौर में पेशे के चलते पेज थ्री कल्चर वाली दुनिया में झांकने का अवसर मिलने पर दुनिया की विडंबनाओं पर मैं स्तब्ध रह जाता था। कहां 16-16 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद भी मामूली पारिश्रमिक और कहां बगैर परिश्रम के शानदार – आराम तलब जिंदगी के नमूने। एेश -मौज और सैर – सपाटा ही जिनकी जिंदगी थी। जो कभी परेशान या थके हुए नहीं दिखते थे। उन्हें देख कर मुझे हैरत होती थी। मैं जानकारों से पूछता भी था कि आखिर इनकी आय का स्त्रोत क्या है। जवाब मिलता था…. बिजनेस…। दो दशक पहले के मेरे यक्ष प्रश्नों का शायद समय आज जवाब दे रहा है। क्योंकि बगैर बाजीगरी के शानदार जिंदगी या तो भाग्यवानों को नसीब होती है या फिर ….। जवाब शायद आप समझ ही गए होंगे। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

15,439 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress