कांग्रेस की जागीर बन गया था देश

राकेश कुमार आर्य

प्राचीनकाल से ही मानव की एक दुर्बलता रही है कि जब वह स्वयं सत्ता एवं शक्ति में होता है तो अपने बाद आने वाली अपनी पीढिय़ों के लिए भी उसी सत्ता और शक्ति को यथावत बनाये रखने के सभी उपाय करता है। विश्व के इतिहास में इसी मानसिकता के लोगों की सोच से इतिहास के पन्ने रंगे पड़े हैं।

सचमुच मनुष्य कितना नादान है? उसे ज्ञात है कि लक्ष्मी चंचला होती है। उसका एक स्थान पर रूके रहने का स्वभाव नही है। स्थान और मनुष्य परिवर्तन उसी प्रकृति में रचे-बसे हैं। इसी प्रकार प्रतिष्ठा और पद का भी स्थायी रूप से रूकना असंभव है।

यह आवश्यक नही कि योग्य पिता के पुत्र, प्रपौत्रादि योग्य होते चले जायें। न जाने कब इस श्रंखला में कपूत आ जुड़ें और अपनी किस मूर्खता से वह मोतियों की माला को तोडऩे का कारण बन जाएं, यह किसी को पता नही। फिर भी क्षणभंगुर जीवन के लिए क्षणभंगुर लक्ष्मी और पद-प्रतिष्ठा के हवाई भवन बनाना मनुष्य का स्वभाव सा बन गया है। यद्यपि इस पद-प्रतिष्ठा के चक्कर में उसने बहुत से घर उजड़ते देखे हैं।

मनुष्य ने महाराजाओं के किलों, भवनों, राजमंदिरों की चहल-पहल को श्मशान के सुनसान में बदलते हुए देखा है, किंतु फिर भी इस सबसे उसने स्वयं कोई शिक्षा नही ली। इन सब बातों को उसने दूसरों के लिए ही माना। सचमुच मानव बुद्घि पर तरस आता है। प्रसंगवश इतिहास की एक कहानी को यहां लिखना उचित मान रहा हूं। राजा भोज को उनके पिताश्री ने अपने अंतिम समय में अपने छोटे भाई मुंज को सौंप दिया था। राजा की मृत्योपरांत कुछ दिन तक मुंज ने भोज का पालन-पोषण पितृवत किया, किंतु कुछ काल पश्चात उसके मन में पाप आ गया।

अत: उसने निर्बाध शासन करने के उद्देश्य से भोज को समाप्त करने की योजना बना डाली। जिन वधिकों से मिलकर यह योजना बनाई गयी थी वह निश्चित कार्यक्रम के अनुसार भोज को जंगल में ले गये। उनके उद्देश्य को समझकर भोज ने अपने चाचा के लिए एक पत्र में अंतिम संदेश लिखा और उन्हें दे दिया। वह पत्र इस प्रकार था-

मान्धाता च महीपति: कृतायुगालंकार भूतो गत:।
सेतुर्येन महोदधौ विरचित: क्वाअसौ दशास्यान्तक:।।
अन्येचापि युधिष्ठिर: प्रभृतयोन्माता दिवंभूपते।
नैकेनापि समं भुवा वसुमती नूनं त्वया भास्यति।।

अर्थात ‘‘सतयुग का प्रतापी राजा मान्धाता मर गया। समुद्र पर सेतु बांधने और रावण को मारने वाला राम भी आज कहां है? युधिष्ठिर आदि राजा भी स्वर्ग को चले गये। किसी के भी साथ राज्य, और यह भूमि नही गयी। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि निश्चय ही यह तेरे साथ अवश्य जाएगी।’’

इस श्लोक को पढक़र मुंज के ज्ञानचक्षु खुल गये थे। कारण यह था कि उसके सामने साक्षात (उसकी मूर्खता को ठीक कराने के लिए) यह श्लोक उपस्थित था। आज के ‘मुंजों’ ने इस श्लोक की संस्कृति से ही मुंह फेर लिया है। उन्हें यह श्लोक, इसकी भाषा और संस्कृति सारा का सारा सब कुछ अप्रिय सा लगता है।

कांग्रेस और उसके नेता यह नही समझ पाये कि अच्छे-अच्छे वंश, जिनकी पीढिय़ों ने कई-कई हजार वर्ष शासन किया, वह भी नही रहे अत: उनसे सीख ली जाये। सत्ता और शक्ति सभी चलायमान हैं। इसका कोई भरोसा नही, कब आये और कब चली जाए। इसलिए जनहित पर ध्यान दिया जाना चाहिए। ंिकंतु कांग्रेस ने देश में वंशीय शासन को पनपने का अनुचित प्रयास करना आरंभ कर दिया। देश को अपनी जागीर बनाकर रख दिया। इसलिए जनहित, जनादेश, जनापेक्षा, जनमत आदि सब कुछ गौण होकर रह गया।

भला निकालेंगे क्या बल, वो मेरी किस्मत के।
अपनी किस्मत के तो बल, उनसे निकाले न गये।।

जो स्वयं भय, भूख, भ्रष्टाचार से त्रस्त थे, वह हमारे नेता बनने लगे। देखिये, भयभीत भी इतने कि बंदूकों के साये से हटकर चल नही सकते और भूखे इतने कि पशुओं का चारा तक भी खा गये। इसलिए नीतिकार ने कहा कि-‘‘बुभुक्षिता किम् न करोति पापम्’’ अर्थात भूखा व्यक्ति क्या-क्या पाप नही कर लेता? अत: भूखे होंगे तो भ्रष्ट होंगे ही। कांग्रेस सहित जिन-जिन पार्टियों के नेताओं ने इस देश पर अब तक शासन किया है, उनके विदेशी बैंकों के खाते देख लिये जाएं, काला धन देख लिया जाए, सारी संपत्ति का विवरण तैयार कर उसे राष्ट्रहित में प्रयोग कर लिया जाए तो देश का भाग्य चमक जाएगा।

सारे संसार को पता चल जाएगा कि भारत में करोड़ों लोगों की भुखमरी का रहस्य क्या है? अंतत: कौन हैं वे लोग जो उनके हिस्से की रोटी को ही खा गये? अंतत: कौन हैं वे धूर्त जो लोकतंत्र के नाम पर राष्ट्र को अपनी जागीर मान बैठे? अंग्रेज चले गये। उनको कांग्रेस ने राष्ट्र की संपत्ति को लूटते हुए देखा था, तो उसने अपने लिए अंग्रेजों के उसी संस्कार को ज्यों का त्यों अपना लिया। अर्थात-

लाश तो वही है मात्र कफन बदला है।
डण्डे तो वही हैं, बस! झण्डा बदला है।।

देश को सपने दिखाये गये हैं-समानता के। असमानता को मिटाने के लिए लंबे चौड़े भाषण दिये गये। मनु को कोसा गया कि इसके लिए वही दोषी है।

एक प्रश्न बड़ी विनम्रता से देश के सारे नेताओं, समाजवादियों, साम्यवादियों व कथित बुद्घिजीवियों से पूछना चाहता हूं कि यदि देश की आधी जनसंख्या आज भी निर्धनता की रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही है, फुटपाथों पर खुले आसमान के नीचे सोने को बाध्य हैं, तो ये इतनी बड़ी संख्या में ‘शूद्र’ कौन सी नीतियों ने बना दिये? किसकी इच्छाशक्ति विकृत रही, जो इनके भाग्य की रोटी को भी खा गयी? आज इस इच्छाशक्ति की, नीतियों की और इन नेताओं की, जांच कराने की आवश्यकता है। यह राष्ट्र की आत्मा की टीस है। हर उत्तरदायी नागरिक हृदय पर हाथ रखकर इस प्रश्न का उत्तर टटोलें।

क्योंकि अभी समय है और-

वक्त पर काफी है इक कतरा अब्रे खुशके अंजाम का।
जल चुका जब खेत, मेह बरसा तो फिर किस काम का।।

इस जीगरशाही से भर्तृहरि महाराज का मन भर गया था। इसलिए उन्होंने अपने वैराग्य शतक में लिखा-‘जिस भूमि को सैकड़ों राजाओं ने क्षण भर के लिए उपयोग किये बिना नही छोड़ा है, उस भोगी हुई भूमि को राजा लोग पाकर क्यों अभिमान करते हैं? उसके अंश और उस अंश का भी एक भाग प्राप्त करके मूर्ख राजा उसे सुखरूप मानकर प्रसन्न हुआ करते हैं।’
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडयंत्र : दोषी कौन?’ से)

Previous articleहमाम में सब नंगे हैं
Next articleसूक्ष्म ईश्वर और जीवात्मा स्थूल आंखों से दिखाई क्यों नहीं देते?’
राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress