अरुण उपाध्याय
सारांश-विदेशी आक्रमणकारियों ने कई प्रकार से भारत को खण्डित तथा दुर्बल करने के षड्यन्त्र किये हैं-(१) भारत में भेदिये पैदा करना तथा उनको लालच देकर उनसे सहायता, (२) भारत की शिक्षण संस्थाओं को नष्ट करना, (३) भारतीय शास्त्रों में जो बचा रह गया उसमें अविश्वास पैदा करना तथा भ्रामक व्याख्या, (४) भारतीयों के ज्ञान और कौशल में अविश्वास, (५) मूल भारतीयों को विदेशी तथा आक्रमणकारियों को भारतीय घोषित करना, (६) जाति तथा भाषा के आधार पर हजारों खण्ड करना। भारत को सशक्त करने के लिये इन आधारहीन प्रचारों को ध्वस्त करना आवश्यक है, नहीं तो आन्तरिक दुर्बलता और भेद से भारत नष्ट हो जायेगा।
१. विदेशी आक्रमण-महाभारत के बाद तक्षक ने परीक्षित की हत्या ३०४२ ई.पू. में की थी। उसके प्रतिशोध के लिये जनमेजय ने ३०१४ ई.पू. में तक्षशिला के नाग राज्य पर आक्रमण किया और दो नगरों को पूरी तरह श्मशान कर दिया। इन नगरों का नाम हुआ-मोइन-जो-दरो = मुर्दों का स्थान, हड़प्पा = हड्डियों का ढेर। जहां पहली बार नागों को पराजित किया था, वहां गुरु गोविन्द सिंह जी ने एक राम मन्दिर बनवाया था और यह इतिहास लिखा। भारत के ऋषियों ने जनमेज्य को नरसंहार करने से रोका और प्रायश्चित करने के लिये कहा। उसके बाद २७-११-३०१४ ई.पू. परीक्षित शक ८९ के प्लवङ्ग वर्ष में कार्तिक अमावास्या को जब पुरी में सूर्य ग्रहण हुआ था तब भारत में ५ स्थानों पर भूमिदान किया। यह मैसूर ऐण्टीकुअरी के जनवरी, १९०० अंक में छपा था। अभी तक केदारनाथ तथा शृङ्गेरी के निकट राममन्दिर उसी दानभूमि पर हैं। बाद में इसी कहानी के आधार पर अंग्रेजों ने इन नगरों की खुदाई की तथा उनको मूल भारतीयों पर विदेशी आर्यों का आक्रमण बताया। यह खुदाई कर नकली इतिहास लिखना इसलिये जरूरी था क्योंकि ३०० ई.पू. में ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा था कि भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां कोई भी बाहर से नहीं आया है। आर्यों को विदेशी घोषित करने के लिये यहजालसाजी जरूरी थी। खुदाई के बाद मार्शल आदि की चर्चा के अनुसार राखालदास बनर्जी ने एक लेख लिखा कि वहां वैदिक सभ्यता के प्रमाण मिले हैं तो उनको तुरन्त नौकरी से बर्खास्त किया गया। वहां खिलौनों की आकृतियों को लिपि कह कर उनको मनमाने तरीके से पढ़ा गया है। जो लेख अभी तक पढ़ा नहीं जा सका उसे ठीक तथा जो पुराण आदि हजारों वर्षों से पढ़े जा रहे हैं उनको झूठा कह दिया। पुराणों को झूठा कहने के लिये कई संस्थाओं को अंग्रेजों ने प्रश्रय दिया।
कितु इस आक्रमण का परिणाम हुआ कि प्रायः १०० वर्ष तक पश्चिम भारत में कम वर्षा होने से जब सरस्वती नदी सूख गयी तब भी पश्चिम के विदेशियों को आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ। प्रायः २७०० ई.पू. में सरस्वती नदी सूख गयी तथा पाण्डओं की राजधानी हस्तिनापुर गङ्गा की बाढ़ में पूरी तरह नष्ट हो गयी। चण्डी पाठ, अध्याय ११ में इसे १०० वर्ष की अनावृष्टि कहा है। निचक्षु काल में हस्तिनापुर नष्ट होने पर कौसाम्बी में राजधानी ले जाने का उल्लेख प्रायः सभी पुराणों में है। उसके बाद प्रायः ८५० ई.पू. में नबोनासिर काल में असीरिया का उदय होने पर पश्चिमी आक्रमणकारी ८२४ ई.पू. में मथुरा तक पहुंच गये जिनको खारावेल की गज सेना ने मगध के अनुरोध पर पराजित कर भगाया। उसके बाद असीरिया की रानी सेमिरामी ने उत्तर अफ्रीका तथा मध्य एशिया के सभी राजाओं से संयुक्त आक्रमण करने का अनुरोध किया। ३५ लाख की सेना होने पर उनको आशंका थी कि भारत की गज सेना का मुकाबला नहीं कर पायेंगे। अतः २ लाख ऊंटों को हाथी जैसी नकली सूंढ़ लगायी गयी। उनके मुकाबले के लिये मगध में अजिन के पुत्र बुद्ध ने आबू पर्वत पर भारत के ४ मुख्य राजाओं का संघ बनाया। इसके अध्यक्ष मालवा के राजा इन्द्राणीगुप्त थे जिनको सम्मान के लिये शूद्रक (४ राज्यों का संघ) कहा गया और शूद्रक शक प्रचलित हुआ। ४ राजा भारत की रक्षा में अग्रणी (अग्रि) थे, अतः उनको अग्निवंशी कहा गया-चाहमान (चौहान), प्रमर (परमार, पंवार), शुक्ल (चालुक्य, सोलंकी, सालुंखे), प्रतिहार (पड़िहार, परिहार)। इस संघ के युद्ध के कारण ३५ लाख की सेना में एक भी व्यक्ति लौट नहीं पाया और असीरिया (असुर) राज्य की सक्ति नष्ट हो गयी। ६१२ ई.पू. में दिल्ली के चाहमान (चपहानि) ने असीरिया राजधानी निनेवे को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जिसका उल्लेख बाइबिल में ५ स्थानों पर है तथा उनको सिन्धु के पूर्व के मध्यदेश (मेडेस) का राजा कहा है। उस समय एक शक शुरु हुआ जिसे ब्रह्मगुप्त ने चाप-शक कहा है। प्रायः ४६० ई.पू. में ईरान के शक उज्जैन तक घुस आये जिनको श्रीहर्ष ने भगा कर ४५६ ई.पू. में अपना शक आरम्भ किया। ७५६ से ४५६ ई.पू. तक के मालव गण को ग्रीक लेखकों ने ३०० वर्ष का गणतन्त्र कहा है।
उसके बाद ३२६ ई.पू. में सिकन्दर का आक्रमण हुआ। आज के तालिबान आदि आतंकवादियों की तरह उसने विश्वविद्यालय नगरों पर ही आक्रमण किया-अलेक्जेण्ड्रिया, पर्सिपोलिस, तक्षशिला (३१७० ई.पू. में दुर्योधन द्वारा स्थापित-प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ का अरबी और ११५० ई. में फारसी अनुवाद मुजमा-ए-तवारीख)। उसमें २ सुविधा थी-सेना का मुकाबला नहीं करना पड़ा तथा ग्रीस के अतिरिक्त ज्ञान के अन्य केन्द्र नष्ट हो गये। बाद के सभी आक्रान्ताओं ने यही नीति अपनायी है। पश्चिम भारत के पुरुवंशी राजा से पराजित हो कर सिकन्दर को भागना पड़ा। ग्रीक लेखकों ने लिखा है कि पोरस प्रायः ७.५ फीट का था और हाथी पर बैठने से ऐसा दीखता था जैसा अन्य लोग घोड़े पर दीखते हैं। उसे देखते ही सिकन्दर सेना सहित भाग गया था। बाद में कुछ ग्रीक लेककों ने कहानी बनायी कि सिकन्दर ने पोरस को माफ कर दिया था (किस गलती के लिये यह अभी तक पता नहीं चला है)। सुमेरिया के इतिहासकार बेरोसस ने ३०० ई.पू. में लिखा कि ग्रीक लोगों को इतिहास का पता नहीं है और हेरोडोटस ने अपनी प्रशंसा में झूठी कहानियां लिखना शुरु किया जिसे वे अपनी कहानी (His story = History) कहने लगे। यह परम्परा आज तक यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा चल रही है।
सिकन्दर आक्रमण के समय गुप्त वंश का शासन शुरु हुआ। उसके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त का पिता आन्ध्र राजा का सेनापति घटोत्कच (जिसके सिर पर बाल नहीं हों) था। इसका अनुवाद ग्रीक लेखकों ने नाई (हजाम) किया है। इसके अन्त काल में पुनः पश्चिम-उत्तर से शक आक्रमण आरम्भ हुआ जिनको उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य ने ८२ ई.पू. में पराजित किया तथा ५७ ई.पू. में अपना संवत् आरम्भ किया जो अभी तक चल रहा है। यह संवत् अरब में भी चलता था। उसके बाद वहां २ और संवत् अलबरूनी के अनुसार चले (Chronology of Ancient nations)-विक्रमादित्य ने काबा मन्दिर का पुनर्निर्माण किया-काबा शक। कुछ वर्ष बाद इथिओपिया की सेना उसे ध्वस्त करने वाली थी तब विक्रमादित्य की गज सेना ने उनको पराजित किया। वह गज संवत् हिजरी सन् तक चलता रहा।
१९ ई. में विक्रमादित्य के निधन के बाद भारत १८ भाग में बंट गया तथा चारों तरफ से आक्रमण हुए-चीन, तातार (तैत्तिरि), तुर्क, बाह्लीक (बल्ख), खुरज (खुरासान, खुरद = कुर्द), शक, रोमज। ६० वर्षों तक ये आक्रमण हुए। हत्या और लूटपाट के अतिरिक्त उन्होंने लाखों स्त्रियों का अपहरण किया-यह काम उस क्षेत्र के सभी मुस्लिम आक्रमणकारी अभी तक कर रहे हैं। चीन द्वारा उस समय का आक्रमण तिब्बत के प्राचीन इतिहास में भी है। सभी विदेशियों के सिन्धु के पश्चिम भगा कर विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन ने ७८ ई. में अपना शक आरम्भ किया जो अभी तक चल रहा है। इसे अंग्रेजों ने विदेशी शक माना है जबकि अल बरूनी के अनुसार आज तक किसी भी शक राजा ने अपना शक नहीं शुरु किया है। अंग्रेजों ने १२९२-१२६२ ई.पू. के कश्मीर के गोनन्द वंशी राजा कनिष्क को विदेशी घोषित कर उसका शक १३५० वर्ष बाद कह दिया।
अरब में इस्लामी प्रभाव होने पर इराक के खलीफा ने ६५० ई. तक ईरान के अधिकांश लोगों की हत्या कर बचे लोगों को मुस्लिम बना दिया। अफगानिस्तान के शाही राजाओं तथा सिन्ध ने उनका आक्रमण रोक दिया। बौद्ध सेनापति के द्रोह के कारण सिन्ध का राजा दाहिर ७१२ ई. में पराजित हुआ। पर मुहम्मद बिन कासिम ने बौद्ध सेनापति को ईनाम देने के बदले जीवित भागने का अवसर दिया जो महाराष्ट्र में चले गये (एक मत से भण्डारकर)। गुरु गोरखनाथ ने इनको रोकने के लिये मेवाड़ के राजा बप्पा रावल तथा नागभट प्रतिहार का संघ बनाया तथा ४ पीठों से लोक भाषाओं में साहित्य आरम्भ किया। मध्य प्रदेश के चन्देल राजाओं की सहायता से अफगानिस्तान का शाही राज्य १००० ई. तक बचा रहा, पर ठण्ढ के कारण मालवा की सेनायें हिन्दूकुश पर लड़ नहीं पायी और महमूद गजनवी का शासन हो गया। राजस्थान तथा दिल्ली के राजाओं ने सिन्ध पतन के बाद ४८० वर्ष तक इस्लामी आक्रमण रोके रखा और पृथ्वीराज चौहान की ११९२ ई. में पराजय से दिल्ली पर मुस्लिम शासन आरम्भ हो गया।
गोण्डवाना की रानी दुर्गावती, विजयनगर, ओड़िशा, असम, आदि लगातार संघर्ष करते रहे। शिवाजी ने १६७४ में हिन्दवी स्वराज्य स्थापित किया। मेवाड़ सदा अजेय रहा। किन्तु एक राजा को हराने के लिये कई विश्वासघाती विदेशियों से मिल जाते थे। डारलिम्पल ने भारतीय इतिहास में लिखा है कि युद्ध में भारत की सेना कभी पराजित नहीं हुयी, केवल घूस लेकर कुछ विदेशियों से मिल गये। विदेशी आक्रान्ता तो इनाम देते थे, पर विश्वासघातियों को इनाम देने की परम्परा अभी तक जारी है।
२. शिक्षण संस्थाओं का नाश-सिकन्दर से लेकर सभी आसुरी आक्रमणो का उद्देश्य लूटमार के अतिरिक्त शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करना रहा है। मुस्लिम आक्रमण में सभी विश्वविद्यालय तथा पुस्तकालय जला दिये गये तथा उनको मस्जिद में बदल दिया गया। कई मन्दिर भी पुस्तकालय थे जैसे उज्जैन का सरस्वती महालय जो अभी भोजशाला मस्जिद है या वाराणसी का विश्वनाथ मन्दिर जिसे ज्ञानवापी (ज्ञान का स्रोत) जिसे मस्जिद बना दिया गया है। इनका उद्देश्य पूजा नहीं केवल विनाश है। १२०० से १८०० ई. तक एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि किसी मुस्लिम शासक ने भारत में विद्यालय, पुस्तकालय अस्पताल आदि बनवाये हों। विदेशी लुटेरों की तरह ही उनका व्यवहार रहा। अंग्रेजों का शासन भी आरम्भ में जहां कहीं पुस्तकें मिलीं उनके विनाश में ही लगे रहे तथा कई उपयोगी पुस्तकें चुरा कर बर्लिन, औक्सफोर्ड आदि लेते गये। केरल में एक ही मिशनरी ने आयुर्वेद की ६००० पुस्तकें जलायीं थी जिससे आयुर्वेद के बदले एलोपैथी का प्रचार हो सके। इसके अतिरिक्त भारतीय शास्त्रों की उलटी व्याख्या के लिये कलकत्ता तथा पुणे में ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट खोले गये। १८३१ में औक्सफोर्ड के बोडेन पीठ का घोषित उद्देश्य था वैदिक सभ्यताको नष्ट करना। इसके लिये भाड़े पर जर्मनी से भी कई लेखक बुलाये गये। वेद को नष्ट करने के लिये वेबर, मैक्समूलर, रौथ आदि बुलाये गये। वेद के विरुद्ध सबसे अच्छे लेखन के लिये म्यूर ने वार्षिक पुरस्कार रखा था। समाज व्यवस्था को नष्ट करने का केन्द्र कैम्ब्रिज बना जहां मार्क्स को जर्मनी से भाड़े पर लाया गया। मैक्समूलर ने प्रायः हर पुस्तक में लिखा है उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य वैदिक ज्ञान को नष्ट करना है (Life and works of Maxmuller-Longmans, London 1904-2 vols)। मोनियर विलिअम्स की संस्कृत अंग्रेजी कोष की भूमिका में भी यही उदेश्य लिखा है कि इससे इसाईयत की सेनायें वैदिक दुर्ग को पूरी तरह नष्ट कर देंगी। स्वाधीनता के बाद भारत सरकार द्वारा ऐसी सभी पुस्तकों का अनुदान दे कर प्रकाशन किया गया है। मुदालियर राधाकृष्णन आयोग ने संस्कृत शिक्षा के आधुनिकीकरण के नाम पर अंग्रेजी माध्यम से संस्कृत शिक्षा आरम्भ करने की सलाह दी जिससे प्रसन्न हो कर उनको राष्ट्रपति बनाया गया। उनको ऐसे सभी अध्यापकों से खतरा था जिन्होंने सचमुच संस्कृत पुस्तकें देखीं थी। अतः राष्ट्रपति बनते ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से नेपाल सीरीज की संस्कृत पुस्तकों का प्रकाशन बन्द हुआ तथा प्राध्यापक रामव्यास पाण्डेय को हटाने के लिये ३ बार अध्यादेश निकाले गये। इस पर भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री हिदायतुल्ला ने कहा था कि किसी भी सभ्य व्यक्ति द्वारा ऐसी भाषा का व्यवहार नहीं होता है् (Civil Appeals Nos. 480 to 487 of 1960)। इसी प्रकार तिरुपति विश्वविद्यालय के पण्डित बेल्लिकोठ रामचन्द्र शर्मा को इसलिये नौकरी से हटाया गया क्योंकि उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय को १ करोड़ रुपये में सामवेद की कौथुमी संहिता की व्याख्या बेचने से मना कर दिया था। उसके बाद तुरन्त प्रेस से निकाल कर हार्वर्ड को भेज दिया; निश्चित रूप से अधिक पसा मिल होगा। पर उपयुक्त सम्पादक के अभाव में ४ में से केवल २ ही खण्ड अभी तक प्रकाशित हो पाये हैं। इन सबका उद्देश्य यही है कि भारत के लोग अपने देश के बारे में वही जाने जिसका अंग्रेजों या उनके राधाकृष्णन् आदि शिष्यों ने प्रचार किया है।
३. भारतीय शास्त्रों पर अविश्वास- इतिहास के कालक्रम का एकमात्र स्रोत भारत के पुराण हैं। कोई भी राजा अपने लेख में यह नहीं लिखवा सकता कि इतने वर्ष शासन के बाद उसकी मृत्यु हो गयी और उसके बाद इन वंशजों ने शासन किया। पुराणों से राजाओं का क्रम और काल ले कर उनमें मनमाना परिवर्तन किया गया। इसके कई उद्देश्य थे-(१) बाइबिल के अनुसार बिशप अशरवुड ने ४००४ ई.पू. में सृष्टि का आरम्भ कहा अतः इसके बाद का ही इतिहास होगा। उसमें भी भारतीय सभ्यता को मिस्र, सुमेरिया तथा चीन के बाद का सिद्ध करना था। (२) आर्यभट का समय ३६० कलि से ३६०० कलि किया गया जिससे उनकी त्रिकोणमिति सारणी को हिप्पार्कस की सारणी की नकल कही जा सके (डेविड पिंगरी)। हिप्पार्कस ने ऐसी कोई सारणी नहीं बनायी थी न पिंगरी उसके नाम से कोई नकली सारणी बना सके जिसके लिये मैंने उनको कहा था। पर केवल गोरा होने से उनकी हर जालसाजी भारत में स्वीकृत है। (३) शून्य देशान्तर रेखा उज्जैन से गुजरती थी, और प्रायः वहीं के राजा वर्ष गणना आरम्भ करते थे। अतः मालव गण का इतिहास पूरी तरह मिटा दिया। उसमें भी सम्वत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के प्रति अधिक क्रोध था क्योंकि वे जुलियस सीजर को पकड़ कर उज्जैन लाये थे और बाद में उसे छोड़ दिया। विल ड्युरण्ट ने लिखा है कि इसी पराजय के कारण लौटने पर सीजर की हत्या हुई। इस पराजय को छिपाने के लिये रोमन इतिहासकारों ने उसे सीजर का ६ मास का लुप्त समय कहा है। इसका उल्लेख कालिदास के ज्योतिर्विदाभरण में होने के कारण सभी भारतीय सेवक उसे जाली किताब कहते हैं। पर केवल उसी किताब में कालिदास नाम लिखा है। उसके बिना पूरा कालिदास साहित्य ही जाली है। राम और कृष्ण के बाद सबसे अधिक साहित्य विक्रमादित्य का ही है, पर उसे काल्पनिक कहते हैं। अंग्रेजों के नकली विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय के बारे में एक भी पंक्ति नहीं मिली है, पर वह स्वर्ण युग है (ब्रिटिश जालसाजी का)। (४) मनमाना कालक्रम लिखने के लिये उन सभी राजाओं को काल्पनिक घोषित किया जिन्होंने वर्ष गणना आरम्भ की थी। केवल भारत में क्रमागत वर्ष गणना थी। इसवी सन् के पहले यूरोप में कोई वर्ष गणना नहीं थी अतः तिथि देना सम्भव नहीं था, जैसे सिकन्दर का ३२६ ई.पू.। पर भारतीय लेखों में तिथि भागों को नष्ट कर कहा गया कि भारत में लोग तिथि नहीं देते थे। जो तिथि किसी प्रकार बच गयी उसका उलटा अर्थ लगाया जैसे २७-११-३०१४ ई.पू. के जनमेजय दान पत्र की तिथि को १५२६ ई. का बना दिया, या वराहमिहिर-ब्रह्मगुप्त की तिथियों को उनकी मृत्यु के बादआरम्भ हुए शालिवाहन शक में अर्थ किया। (५) उन सभी सम्प्रदायों को प्रश्रय दिया जो बाइबिल की नकल पर वर्णाश्रम व्यवस्था तथा मूर्ति पूजा को गाली दें या पुराणों को झूठा कहें।
(४) अपने ज्ञान कौशल में अविश्वास-अंग्रेजों द्वारा स्थापित नेहरू आदि ने केवल विदेशी नकल पर काम करना शुरु किया। किसी भी काम के लिये विदेशी इंजीनियर ही बुलाये गये। हर चीज विशेषकर हथियार विदेशों से ही मंगाये गये जिससे कमीशन मिलता रहे। भारत में बनाने की चेष्टा नहीं हुयी। स्वाधीनता के पूर्व भारत के वैज्ञानिक यह सिद्ध करना चाहते थे कि वे किसी से कम नहीं हैं। अतः उनको नोबेल पुरस्कार भी मिला। स्वाधीनता के बाद पैदा हुये किसी भारतीय को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है। साहित्य में भी विदेशी लेखकों के उद्धरण के बाद ही शोध को प्रामाणिक मानते हैं। रेल व्यवस्था भारत में सबसे पहले शुरु हुयी पर भारत के बाद स्वाधीन हुआ चीन रेल में, कम्प्यूटर या हथियार में विश्व का अग्रणी बन गया है। विकास के नाम पर ब्रिटिश नियुक्त नेहरू केवल भारतीय क्षेत्र पाकिस्तान और चीन को बेचने में लगे रहे और उसके लिये ब्रिटेन की लिखित अनुमति लेते थे। (https://thewire.in/…/india-has-no-tibetan-card-to-play...)
(५) मूल भारतीयों को विदेशी तथा बाहरी लोगों को मूल बनाना-पूरे विश्व में प्रसिद्ध था कि भारत में सभी मूल निवासी हैं जिसको काटने के लिये पूरा ब्रिटिश इतिहास रचा गया।
https://projectsouthasia.sdstate.edu/docs/history/primarydocs/Foreign_Views/GreekRoman/Megasthenes-Indika.htm
Megasthenes: Indika -FRAGMENT I OR AN EPITOME OF MEGASTHENES. (Diod. II. 35-42.) (38.) It is said that India, being of enormous size when taken as a whole, is peopled by races both numerous and diverse, of which not even one was originally of foreign descent, but all were evidently indigenous; and moreover that India neither received a colony from abroad, nor sent out a colony to any other nation. …
बिहार ओड़िशा के खनिज क्षेत्र के निवासियों को मूल निवासी या आदिवासी कहा जा रहा है। पर यह नहीं कहा गया के मूल निवासी केवल खनिज क्षेत्रों में क्यों थे, या उनकी उपाधियां खनिजों के ग्रीक नाम क्यों हैं? क्या वे केवल लोहा ताम्बा खा कर जीवित रहते थे या इनके वंशज ग्रीस गये थे? खनिज दोहन के लिये प्रायः १६,००० ई.पू. में देवों-असुरों के मिलित सहयोग से खनन हुआ था जिसे समुद्र मन्थन कहा जाता है। उसके लिये उत्तर अफ्रीका के असुर झारखण्ड आये थे। ६७७७ ई.पू. में डायोनिसस या फादर बाक्कस का आक्रमण हुआ था (मेगास्थनीज) जिसमें सूर्यवंश का राजा बाहु मारा गया था। १५ वर्ष बाद बाहु के पुत्र सगर ने दण्ड देने के लिये यवनों को भारत की पश्चिमी सीमा अरब से खदेड़ दिया। हेरोडोटस के अनुसार इनके ग्रीस जाने के बाद उसका नाम इयोनिया पड़ा। ग्रीक तथा झारखण्ड के पूर्व असुर एक ही क्षेत्र से आये थे अतः उनके नाम एक जैसे हैं। खालको पाइराइट (ताम्बा खनिज) से खालको, टोपाज से टोप्पो आदि। यदि एक भी भारतीय विद्वान् अंग्रेजी शोध के बदले अपनी भाषा के शब्दों को देखते तो यह स्पष्ट हो जाता कि वैदिक सभ्यता आरम्भ से अरब से वियतनाम और इण्डोनेसिया तक थी। इन्द्र पूर्व दिशा के लोकपाल थे अतः उनके शब्द ओड़िशा से इण्डोनेसिया तक हैं। शिव तथा यज्ञ वृषभ के शब्द काशी, शक्ति तथा कृषि के शब्द मिथिला में हैं। विष्णु के शब्द मगध (विष्णुपद) में हैं। तीनों का संगम हरिहर क्षेत्र है। दक्षिण में भी हरिहर भाषाओं का संगम है। पश्चिम तट से अरब तक पश्चिम के लोकपाल वरुण के शब्द हैं।
(६) जाति तथा भाषा के अनुसार हजारों खण्ड-४ वर्णों के लिये मनुस्मृति को गाली देने वालों ने भारत में १०,००० से अधिक जातियां बना रखी हैं। इनमें विचित्र स्थिति है। भगवान् कृष्ण के वंशज के नाम पर गर्व भी करते हैं, तथा यादव के नाम पर पिछड़ा वर्ग का आरक्षण भी लेते हैं। कृष्ण की सहायता से भूख मिटाने वाले सुदामा को अत्याचारी शासक बना दिया गया है। जब पूरा देश पिछड़ा बनने के लिये प्रयत्न कर रहा हो तो उन्नति कैसे हो सकती है? ज्ञान या कौशल पाने के लिये कोई प्रयत्न नहीं है केवल आरक्षण द्वारा उपाधि तथा नौकरी एकमात्र उद्देश्य है। जिनको बिना आरक्षण पढ़ना पड़ा उनके लिये कौशल दिखाने का कोई अवसर नहीं है। पर बाहर में नासा आदि के अधिकांश वैज्ञानिक वही हैं। यदि देश में भी सम्मान तथ अवसर रहता तो वे विश्व में सर्वश्रेष्ठ रहते। भारत को सदा पिछड़ा रखने के लिये विदेशी प्रेरणा से झूठा इतिहास रच कर षड्यन्त्र हो रहा है जिसे रोकने की जरूरत है।
लेखक अरुण उपाध्याय, आईपीएस, पूर्व महानिदेशक, कटक, उड़ीसा
हिंदी और संस्कृत के विद्वान तथा इतिहास और संस्कृति के गहन अध्येता हैं।
भारतीय इतिहास के खुलासे करता हुआ उनका एक लेख।