गुरुकुलीय शिक्षा का राष्ट्र निर्माण में योगदान

स्वामी दयानंद जी महाराज पहले महापुरुष थे, जिन्होंने अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली का पहले दिन से विरोध करना आरंभ किया था। उन्होंने देश के लोगों को लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति से दूर रहने का परामर्श देते हुए गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के साथ जुड़ने का आवाहन किया था। इसके पीछे उनका एक ही उद्देश्य था कि यदि हमने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को अपना लिया तो हम अपने अस्तित्व को नहीं बचा पाएंगे। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आवश्यक है कि अपने गुरुकुलों के साथ हम गहराई से जुड़े रहें। अपने मंतव्य को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी महाराज ने अपने अमर ग्रंथ ‘ सत्यार्थ प्रकाश ‘ में भारत की प्राचीन शिक्षा नीति का उल्लेख करते हुए गुरुकुलों की स्थापना पर जोर दिया। भारत की गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली ने संपूर्ण मानवता को एक सूत्र में पिरोने का सराहनीय कार्य किया। यही कारण है कि सृष्टि प्रारंभ से लेकर करोड़ों वर्ष तक भारत की यही शिक्षा नीति संपूर्ण संसार में लागू रही। इसी शिक्षा प्रणाली ने भारत को अनेक वैज्ञानिक ऋषि प्रदान किए, अनेक उत्कृष्ट साहित्यकार प्रदान किये, अनेक क्रांतिकारी चक्रवर्ती सम्राट प्रदान किये। इसी शिक्षा प्रणाली को जीवंत बनाए रखने के लिए तक्षशिला नालंदा जैसे अनेक विश्वविद्यालय भारत में स्थापित रहे। जिन्होंने चिरकाल तक मानवता का मार्गदर्शन किया।
भारत की उन्नति का रहस्य जब विदेशी आक्रांताओं को समझ में आया तो उन्होंने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के केंद्र बन गए गुरुकुलों को नष्ट करने और उनमें रखी उत्कृष्ट सामग्री को नष्ट करने का मानवीय कृत्य किया। लॉर्ड मैकाले ने भी 1835 ईस्वी में भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा को नष्ट करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू करने का कार्य किया। स्वामी दयानंद जी महाराज अंग्रेजों से पूर्व में देश पर बलात शासन करने वाले मुगलों और तुर्कों की नीति रणनीति को समझ चुके थे। जिन्होंने गुरुकुलों के स्थान पर मदरसे स्थापित कर भारत की संस्कृत और संस्कृति को मिटाने का अपराध किया था। स्वामी जी महाराज ने इस बात को गहराई से समझा कि यदि भारत को वेदों की ओर लौटाना है तो उसका माध्यम केवल गुरुकुल ही हो सकते हैं। यही कारण था कि उन्होंने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति का विरोध करते हुए लोगों को अपनी संस्कृत और संस्कृति से जोड़ने के लिए गुरुकुलों की ओर लौटने काआवाहन किया। स्वामी जी जानते थे कि भारत के वैदिक वांग्मय से परिचित होकर ही लोग स्वदेशी, स्वराष्ट्र , स्वसंस्कृति और स्वराज्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं। यही कारण है कि स्वामी जी महाराज ने ‘ सत्यार्थ प्रकाश ‘ के तीसरे समुल्लास में गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली पर विशेष प्रकाश डाला है।
स्वामी जी की राष्ट्रभक्ति और अपनी संस्कृति के प्रति पूर्ण समर्पण की उत्कृष्ट भावना के चलते भारत के लोगों ने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति का पूर्णतया बहिष्कार किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के लागू होने के लगभग 100 वर्ष पश्चात 1931 की जनगणना में अंग्रेजों ने जब भारत के पढ़े-लिखे लोगों का आंकड़ा जारी किया तो उस समय की जनसंख्या में से कुल 3 लाख लोग ही अंग्रेजी पढ़े – लिखे निकले । शेष सभी लोगों को उन्होंने निरक्षर और अनपढ़ घोषित कर दिया।
1931 की जनगणना के इस आंकड़े को सही दृष्टिकोण से पढ़ने की आवश्यकता है। यदि उस समय केवल 3 लाख लोग ही अंग्रेजी पढ़े लिखे थे तो मानना चाहिए कि स्वामी दयानंद जी का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था। जिसके चलते वे बड़ी संख्या में गुरुकुलों में जाकर विद्या अध्ययन कर रहे थे।
स्वामी दयानंद जी महाराज के गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के साथ जुड़ने के सपने को साकार करने में स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने विशेष भूमिका निभाई। जिन्होंने 1902 में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के साथ मिलकर हरिद्वार के कांगड़ी नामक गांव में गुरुकुल की स्थापना की। इस गुरुकुल ने अनेक क्रांतिकारी तैयार किए। अंग्रेज उस समय इस गुरुकुल को ‘ क्रांतिकारियों का कारखाना’ कहने लगे थे। गुरुकुल से ब्रह्मचारी निकलकर जिस प्रकार देश के लिए काम करता था , उससे अंग्रेजों की नींद हराम हो जाती थी।
गुरुकुल से निकलने वाले ब्रह्मचारियों ने देश में क्रांतिकारी आंदोलन को बहुत ही तीव्रता के साथ विस्तार दिया। यही कारण है कि देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों की कुल संख्या में से 85% गुरुकुल के विद्यार्थी अर्थात आर्य समाज से जुड़े हुए लोग रहे। गुरुकुल के इन ब्रह्मचारियों ने अनेक ग्रन्थों की भी रचना की। जिससे वैदिक वांग्मय को समृद्ध करने में बड़ी सहायता मिली। लोगों को अपने महान पूर्वजों की बौद्धिक धरोहर के साथ जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अनेक विद्वानों ने देश के भीतर फैली हुई कुरीतियों को दूर करने का सराहनीय प्रयास किया। जबकि अनेक विद्वान ऐसे हुए जिन्होंने विधर्मियों को शास्त्रार्थ के लिए खुली चुनौती दी और जो लोग भारत के लोगों का धड़ाधड़ धर्मांतरण कर अपनी संख्या बढ़ा रहे थे, उनकी मजहबी मान्यताओं के खोखलेपन को सरे बाजार चौराहे पर फोड़ने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। जिससे हताशा और निराशा की शिकार बनी हिंदू जाति को बहुत संबल मिला। भारत के गुरुकुलों ने भारत के वेद मत को सर्वोपरि सिद्ध करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत के अनेक लोग जब पश्चिम के खोखले ग्रन्थों और इस्लाम की खोखली मान्यताओं का शिकार बन रहे थे, तब तेजी से भागती हुई लोगों की उस भीड़ को आर्य समाज ने रोकने का काम किया। इतना ही नहीं, स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने तो ‘ शुद्धि आंदोलन ‘ चलाकर इस बात को अति सरल कर दिया कि जो लोग ‘ घर वापसी’ करना चाहते हैं, वे लौटकर अपने घर अर्थात हिंदू समाज में आ सकते हैं।
स्वामी दयानंद जी महाराज के ‘ सत्यार्थ प्रकाश’ को अपने लिए प्रेरणा ग्रंथ मानकर अनेक क्रांतिकारी योद्धाओं ने देश के लिए समर्पित होकर कार्य किया । जहां कुछ लोगों ने देश की जेलों में जाकर अनेक प्रकार की यातनाएं सहीं, वहीं कुछ ऐसे महारथी भी रहे, जिन्होंने स्वामी जी के ‘ सत्यार्थ प्रकाश’ के आधार पर समाज की जेल में पड़े अनेक लोगों को पाखंडियों और विधर्मियों के अत्याचारों से मुक्त करने का कार्य करना आरंभ किया। इस प्रकार गुरुकुल के पढ़े ब्रह्मचारियों ने कई मोर्चे एक साथ खोले और प्रत्येक मोर्चे पर बड़ी संख्या में योद्धाओं के रूप में जमकर खड़े हो गए। जिनका सामना सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कोई भी शक्ति कर नहीं पाई।
भारत की स्वाधीनता के लिए काम कर रही क्रांतिकारी विचारधारा में जहां स्वामी श्रद्धानंद जी, भाई परमानंद जी, लाला हरदयाल जी, श्याम जी कृष्ण वर्मा, महादेव गोविंद रानाडे, बाल गंगाधर तिलक जैसे अनेक क्रांतिकारी गुरुकुलों से मिली ऊर्जा शक्ति का राष्ट्रहित में विस्तार कर रहे थे, वहीं गोखले जी जैसे नरमपंथी विचारधारा के लोग भी स्वामी दयानंद जी के विचारों से अछूते नहीं थे। जहां राम प्रसाद बिस्मिल और सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली पर बल देने वाले आर्य समाज को अपनी मां मानते थे, वहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी आर्य समाज को बड़े गर्व के साथ अपनी मां कहते थे। भारत के गुरुकुलों ने भारत की स्वाधीनता को दिलाने में अपना अप्रतिम योगदान दिया।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने मनुस्मृति के राजधर्म विषयक चिंतन को ‘ सत्यार्थ प्रकाश’ में विशेष स्थान दिया। इसके पीछे उनका मंतव्य यही था कि भारत की राजनीति महर्षि मनु के सिद्धांतों से प्रेरित होनी चाहिए। हमारा मानना है कि स्वामी दयानंद जी महाराज के विशेष चिंतन और परिश्रम का ही परिणाम रहा कि चाहे भारतीय संविधान में कितनी ही विदेशी मनीषा को स्थान क्यों न दे दिया गया हो, परंतु इस सबके उपरांत भी उस पर स्वामी जी के विचारों का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रभाव है। गुरुकुलों ने वेद, धर्म, संस्कृति और भारतीय राष्ट्र की परंपराओं को बचाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वामी श्रद्धानन्द जी, की जीवनी गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के ही एक वरिष्ठ स्नातक, यशस्वी पत्रकार एवं स्वतन्त्रता सेनानी पं. सत्यदेव विद्यालंकार ने लिखी है। इसमें पं. सत्यदेव विद्यालंकार जी लिखते हैं कि समाज के गुरुकुल की प्रगति में अनेक बाधाओं में से एक बाधा गुरुकुल के मार्ग में सरकार की सन्देहास्पद दृष्टि थी।
वे लिखते हैं कि – ‘‘आर्यसमाज के संगठन में अभी जो महत्वपूर्ण विकास हुआ है, वह वास्तव में सरकार के लिए बहुत बड़े संकट का स्रोत है। वह विकास है गुरुकुल-शिक्षा-प्रणाली। इस प्रणाली में चाहे कितने ही दोष क्यों न हों, किन्तु भक्ति-भाव और बलिदान की उच्च भावना से प्रेरित जोशीले धर्मपरायण व्यक्तियों का दल तैयार करने का यह सबसे सुगम और उपयुक्त साधन है, क्योंकि यहीं आठ बरस की ही आयु में बालकों को माता-पिता के प्रभाव से बिल्कुल दूर रखकर त्याग, तपस्या और भक्तिभाव के वायुमण्डल में उनके जीवन को कुछ निश्चित सिद्धान्तों के अनुसार ढाला जाता है, जिससे उनके रग-रग में श्रद्धा और आत्मोत्सर्ग की भावना घर कर जाती है। यदि इस प्रकार की शिक्षा का क्रम आर्यसमाज के सुयोग्य और उत्साही नेताओं की सीधी देख-रेख में बालकों की उस सत्रह वर्ष की आयु तक बराबर जारी रहा, जो कि मनुष्य के जीवन में सबसे अधिक प्रभावग्राही समय है, तो इस पद्धति से जो युवक तैयार होंगे, वे सरकार के लिए अत्यन्त भयानक होगे। उनमें वह शक्ति होगी जो इस समय के आर्यसमाजी उपदेशकों में नहीं है। उनमें पैदा हुआ व्यक्तिगत दृढ़ विश्वास और अपने सिद्धान्त के लिए कष्ट-सहन करने की भावना, अपितु समय आने पर प्राणों तक को न्यौछावर कर देना, साधारण जनता पर बहुत गहरा प्रभाव डालेगा। इससे उनको अनायास ही ऐसे अनगिनत साक्षी मिल जायेंगे जो उनके मार्ग का अवलम्बन करेंगे और उनसे भी अधिक उत्साह से काम करेंगे। यह याद रखना चाहिये कि उनका उद्देश्य सारे भारत में एक ऐसे जाति-धर्म की स्थापना करना होगा, जिससे सारे हिन्दू एक भातृभाव की श्रृंखला में बन्ध जायेंगे। वे सब दयानन्द के ‘सत्यार्थप्रकाश’ के ग्यारहवें समुल्लास की इस आज्ञा का पालन करेंगे कि श्रद्धा और प्रेम से अपने तन, मन-धन-सर्वस्व को देश हित के लिए अर्पण कर दो।”
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि भारत में राष्ट्रवाद की बयार को तेजी से बहाने में गुरुकुलों ने विशेष योगदान दिया। भारत को भारत के रूप में समझने में हमें गुरुकुलों ने ही सहयोग दिया। भारत के गौरवशाली अतीत को पुनर्स्थापित करने में भी गुरुकुलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिससे प्रेरित होकर लोगों को अपने पूर्वजों के महान कार्यों पर गर्व और गौरव का बोध हुआ। भारत ने निद्रा को छोड़कर क्रांति पथ पर आगे बढ़ना आरंभ किया और भारत की स्वाधीनता के लिए अब से पूर्व जिन महान क्रांतिकारी योद्धाओं ने अपने बलिदान दिए थे, उनके बलिदानों का स्मरण कर लोग स्वयं भी बलिदान देने के लिए तैयार हो गए। 1947 में भारत की स्वाधीनता के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे लॉर्ड एटली बाद में 1965 में जब भारत में अपनी निजी यात्रा पर आए तो उनसे पूछा गया था कि क्या उन्होंने गांधी की अहिंसा से भयभीत होकर भारत को आजाद किया था या कोई अन्य कारण था ? तब उन्होंने कहा था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में जिस प्रकार क्रांतिकारी लोग निरंतर आगे बढ़ते जा रहे थे और देश की सेना जिस प्रकार क्रांतिकारियों का साथ दे रही थी, उससे भयभीत होकर हमें भारत छोड़ना पड़ा था।
इसे आप वास्तव में क्रांतिकारियों के भय के साथ साथ गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली से उत्पन्न हुए उन वीर देशभक्तों का भय भी सकते हैं, जिन्होंने अपना जीना – मरना सब कुछ देश के लिए समर्पित कर दिया था।
उपरोक्त विद्वान लेखक हमें यह भी बताते हैं कि -‘‘सरकार के लिए सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न यह है कि इस समय आर्यसमाज के गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने वाले उपदेशकों (ब्रह्मचारियों) का शिक्षा समाप्त करने के बाद सरकार के प्रति क्या रुख होगा ? इस समय के उपदेशकों की अपेक्षा वे किसी और ही ढांचे में ढले हुए होंगे। जिस धर्म का वे प्रचार करेंगे, उसका आधार व्यक्तिगत विश्वास एवं श्रद्धा होगी, जिसका जनता पर सहज में बहुत प्रभाव पड़ेगा। उनके प्रचार में मक्कारी, सन्देह, समझौता और भय की गन्ध भी न होगी और सर्वसाधारण के हृदय पर उसका सीधा असर पड़ेगा।“

  • डॉ राकेश कुमार आर्य

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