कोरोना वायरस का जनक पेंगोलियन

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प्रमोद भार्गव

इस समय पूरी दुनिया कोरोना वायरस, कोविड-19 की वजह से महामारी का संकट झेल रही है। करीब एक लाख तीस हजार लोग मर चुके हैं और 21 लाख कोरोना के रोगी हैं। इस महामारी के शिकार यूरोपीय देशों के लोग ज्यादा हो रहे हैं। जबकि उनकी जीवनशैली, खानपान और स्वच्छता की दृष्टि से उत्तम मानी जाती है। इलाज के भी यहां श्रेष्ठ गुणवत्ता के संसाधन हैं। किंतु ज्ञान-विज्ञान की सारी शक्तियां अपने पास होने का दावा करने वाले ये देश एक अदृश्य सूक्ष्म जीव, यानी विषाणु के समक्ष लाचार दिखाई दे रहे हैं। अमेरिका जैसे महाशक्तिशाली देश को भारत ने हाइड्राॅक्सीक्लोरोक्वीन दवा देकर बड़ी मदद की है।

इस वायरस के बारे में कहा जा रहा है कि चीन में यह चमगादड़ की विष्ठा (मल) खाने से पेंगोलियन में आया और फिर इसे खाने से मनुष्य में पहुंचा। यह बात इसलिए सत्य लगती है क्योंकि चीन में चमगादड़ का मांस नहीं खाया जाता बल्कि उसका सूप पिया जाता है। यदि सूप 70 डिग्री सेल्सियस गर्म पानी में उबाल दिया जाए तो कोई भी वायरस या वैक्टीरिया जीवित नहीं रह पाता है। सूप लगभग इसी तापमान पर तैयार होता है। जाहिर है, सूप के जरिए मनुष्य के पेट में यह वायरस नहीं पहुंचा। किंतु पेंगोलियन को चीन में अधपका या कच्चा ही खा लिया जाता है। इससे यह आशंका उत्पन्न होती है कि चमगादड़ के मल से यह वायरस पेंगोलियन में पहुंचा और फिर मनुष्य में स्थानांतरित हो गया, जो आज वैश्विक महामारी का सबब बन गया है। महामारी एवं विषाणु विषेशज्ञ डाॅ. सैथ बर्कले ने बताया है कि 30 हजार से भी ज्यादा ऐसे वायरस जंगली प्राणियों में मौजूद हैं, जो कोरोना जैसी महामारी फैला सकते हैं।

जो पेंगोलियन आज महामारी का पर्याय बना हुआ है, वह भारत में भी पाया जाता है। किंतु भारत में इस दुर्लभ प्राणी को खाने से कोई बीमार हुआ हो, यह कभी देखने व सुनने में नहीं आया। भारत की जनजातियां इसे आहार बनाती है। इंदौर के पुरातत्व संग्रहालय में एक मृत पेंगोलियन भूसा भरकर रखा है। इस पेंगोलियन की पीठ में एक तीर भी चुभा है। सिंधु घाटी की सभ्यता के लोग इसे खूब जानते थे। मोहन जोदड़ो की खुदाई में मिले पुरा-अवषेशों में भी पेगोंलियन के चित्र अंकित हैं। साफ है कि भारतीय पेंगोलियन को पांच हजार साल से भी ज्यादा समय से जानते हैं।

पेंगोलियन को हिंदी में सल्लू सांप एवं चींटीखोर कहा जाता है। इसका सांप की प्रजाति से दूर का भी वास्ता नहीं है। हां, सांप की तरह इसकी लंबी जीभ जरूर होती है। सम्भवतः सांप से मिलती-जुलती जीभ के कारण ही इसे सल्लू सांप कहा जाने लगा होगा। चींटीखोर नाम इसीलिए दिया होगा क्योंकि यह चींटी खाता है। पूरी दुनिया में सल्लू की सात प्रजातियां उपलब्ध हैं। इनमें से केवल दो प्रजातियां ही भारत में पाई जाती हैं, भारतीय सल्लू और चीनी सल्लू। चीनी सल्लू केवल भारत में ही पाया जाता है। सल्लू की अन्य पांच प्रजातियां चीन समेत एशिया के अन्य भागों व अफ्रीेका में पाई जाती हैं। सल्लू सांप का पूरा शरीर कठोर शल्कों से ढंका होता है। वज्र के समान ये शल्क ही इसके रक्षा कवच होते हैं। सिर से लेकर पूंछ तक इसका पूरा शरीर इन शल्कों से ढंका रहता है। शल्क बेहद कड़े और ढालू होते हैं। ये एक-दूसरे के ऊपर इस तरह चढ़े होते हैं, जिस तरह घरों पर कवेलू या खपरे चढ़े होते हैं। शल्कों के बीच में कड़े बाल भी होते हैं। भारतीय सल्लू के शरीर पर शल्कों की 11 से 13 रेखाएं होती हैं, जबकि चीनी सल्लू के शरीर पर 15 से 18 रेखाएं होती हैं। भारतीय सल्लू की लंबाई 105 सेंटीमीटर से 120 सेंटीमीटर और चीनी सल्लू की 81 सेंटीमीटर से 96 सेंटीमीटर होती है। सल्लू की ऊंचाई 30 से 40 सेंटीमीटर होती है। सल्लू सांप के पैर और मुंह भी शल्कों से ढंके होते हैं। इसके बाहरी अंगों के यही मजबूत रक्षाकवच हैं। चार पैरों वाले इस अद्भुत जंतु के मुंह में दांत नहीं होते। स्तनधारी प्राणियों में बिना दांतों का यह जंतु एक अपवाद है।

सल्लू प्रायः अपने द्वारा बनाए बिलों में ही रहते हैं। खुदाई के लिए इनके पैरों में खुरपीनुमा मजबूत नाखून होते हैं। इन नाखूनों से ये मिट्टी खोदते भी है और फिर उसे गड्डे में से बाहर फेंकते भी हैं। सल्लू अगले पैरों से मिट्टी खोदता है और पिछले पैरों से उसे बाहर फेंकता है।

सल्लू की चाल बहुत धीमी होती है। ये पांच किलोमीटर प्रति घंटे की गति से ही चल पाते हैं। चलते वक्त इसका शरीर धरती से ऊपर उठा होता है और पीठ धनुषाकार रहती है। चलते वक्त यह दुश्मन से बेहद सतर्क रहता है। इसीलिए यह बीच-बीच में पिछले पैरों के बल सीधा खड़ा हो जाता है और फिर गर्दन घुमाकर दुश्मन को देखने की कोशिश करता है।

इस दौरान यदि इसे खतरे का आभास होता है तो यह दुश्मन से बचने के लिए तत्परता से गेंद की तरह लिपट जाता है। उस समय इसके शल्क ही ऊपर दिखाई देते हैं। इस वक्त यह ऐसा दिखाई देता है, जैसे कोई आसन हो। इसे आसानी से खोला भी नहीं जा सकता। नतीजतन इसके दुश्मन इसे जड़वस्तु समझकर आगे बढ़ जाते हैं। जानवरों से अपने प्राण बचाने के लिए सल्लू यही तरीका अपनाते हैं। जंगल में इन्हें कभी भी आमने-सामने अथवा आरपार की लड़ाई लड़ते नहीं देखा गया है।

भारत में पाए जाने वाले सल्लू पेड़ों के खोलों और चट्टानों की दरारों में भी पाए जाते हैं। ये दिन में अपने घरों में पड़े सोए रहते हैं और रात में ही भोजन की तलाश में निकलते हैं। इसीलिए इन्हें जंगलों में देख पाना मुश्किल होता है। सल्लू मिट्टी में खोदे हुए जिन बिलों में अपना घर बनाता है, उनके मुहाने पर सोते वक्त ऊपर से मिट्टी डाल लेता है। इससे ऊपर से जमीन समतल हो जाती है और सल्लू को वन्य जीवों का कोई खतरा नहीं रह जाता। लेकिन पेशेवर शिकारी इन बिलों को इसके पैरों के पंजों के निशानों से पहचान जाते हैं।

सल्लू का मुख्य आहार चीटिंया और दीमक हैं। इनके अलावा यह नरम घोंघे, भिण्डोले और कीड़े-मकोड़े भी चट कर जाता है। सल्लू के भोजन का तरीका भी विचित्र है। यह अपनी जीभ मुंह से बाहर निकालकर चुपचाप लेट जाता है। इसकी जीभ से चिपचिपा-लिसलिसा गाढ़ा-सा द्रव्य पदार्थ रिसता रहता है। चींटी और दीमक इस पदार्थ को चूसने के लालच में जीभ पर चढ़कर चिपक जाते हैं। जब ढेर सारी चिंटियां अथवा दीमक इसकी जीभ से चिपक जाते हैं, तो यह अपनी जीभ को मुंह के भीतर लेकर उन सबको चट कर जाता है।

सल्लू चिंटियों और दीमकों की तलाश में पेड़ों पर भी चढ़ जाता है। पेंड़ों पर चढ़ने का इसका तरीका भी खासा विचित्र है। पेड़ों पर यह उल्टा चढ़ता है। पेड़ों पर चढ़ने का यह तरीका भालू भी अपनाता है। पेढ़ पर चढ़ते वक्त सल्लू अपनी पूंछ के जरिए पेड़ को पकड़ता है। फिर पेड़ पर यह चींटियों और दीमकों को खा जाता है। उनके अंडे, बच्चों को चट कर जाता है। लाल चींटे इसके प्रिय भोजन हैं। सल्लू जीभ के सहारे ही पानी पीते हैं। बिना पानी के भी ये कई दिन गुजार सकते है। अपनी इसी क्षमता के कारण ये कम पानी वाले रेगिस्तानी इलाकों में भी रह लेते हैं।

आहार-संबंधी इनकी इस विचित्रता के कारण सल्लुओं को चिड़ियाघरों में पालना बड़ा मुश्किल काम होता है। इसलिए इनके द्वारा अपना जोड़ा बनाए जाने के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। देश के कुछ चिड़ियाघरों में विभिन्न महीनों में जन्मे बच्चों से यह अंदाजा लगाया गया है कि ये पूरे साल बच्चे जनते हैं। आमतौर पर मादा एकबार में एक ही बच्चा जनती है। अपवादस्वरूप ही एक साथ दो बच्चे जन्मती है। नवजात बच्चे के शल्क मुलायम होते हैं। मादा सल्लू बच्चे को अपनी पूंछ पर बिठाकर उछलकूद करती है। खतरे का अहसास होने पर यह ऐसा गुंजलक बनाती है कि बच्चा मादा के शरीर में एकदम छिप जाता है और खतरा टलने तक वे दोनों ‘निष्क्रिय अवस्था’ में पड़े रहते हैं। शिशु की देखभाल में नर भी मादा का सहयोग करता है लेकिन बिल के भीतर तो मां-बेटे ही रहते हैं।

भारत में सल्लू एक दुर्लभ संरक्षित प्राणी है। 1972 के ‘अनुसूचित प्राणी कानून’ के तहत इसे मारना या इसका शिकार करना कानूनी अपराध है। इसके बावजूद सल्लू का खूब शिकार हो रहा है। मजमा लगाकर दवा बेचने वाले दवाफरोश इसे विभिन्न दवाएं बनाने के लिए मारते हैं। गठिया, वाय और बवासीर के रोगियों को इसके तेल का उपयोग करने से लाभ मिलता है। इसके शल्कों से बनाई गई अंगूठियां लोग भंगदर और बवासीर जैसी बीमारियां दूर करने के लिए पहनते हैं। आदिवासियों की अनेक प्रजातियां और कबिलाई लोग मांस खाने के लिए इसे मारते हैं।

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