समाज

भ्रष्टाचार : कारण एवं निवारण

राजेश करमहे

श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में कहा गया है –

“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥ “

“नरक के तीन द्वार हैं – काम, क्रोध तथा लोभ। प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चहिए कि इन्हें त्याग दें, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है|”

आत्मा का पतन ही तो भ्रष्टाचार का उदगम स्थल है| अब विवेचन का विषय यह है कि काम, क्रोध एवं लोभ रुपी ये दुर्वृतियाँ जो आत्मा या अंतरात्मा के पतन के कारक हैं, तो हमारे हृदय में क्यों उत्पन्न होते हैं? ईश्वर ने कामना की – “एकोऽहं बहुस्यामः” तात्पर्य मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ| फिर सृष्टि का सूत्रपात संभव हुआ, ऐसा आर्षमत है| मनुष्य की प्रकृति पर विजय की कामना से ही विज्ञान का उद्भव, वैभव और विकास संभव हुआ| फिर काम या कामना विकार या दुर्वृति क्यों? तात्पर्य यह कि सत्य काम तो पुरुषार्थ की श्रेणी में है; काम से ही सृष्टि एवं सकल भौतिक जगत उत्पन्न हुआ| किन्तु इस भौतिकतावादी युग में असत्य काम ही मनुष्य का इष्ट हो गया है| मनुष्य जीवन एवं यौवन की क्षणभंगुरता से भयग्रस्त हो जाता है, फिर आवश्यकता से अधिक काम अर्थात् संसारिक भोगों(स्त्री ही नहीं वरन् सभी ऐश–आराम भी) को भोगना चाहता है और काम पुरुषार्थ से वासना बन जाती है| अतएव असम्यक एवं असत्य काम या अकर्मण्यता के बावजूद समस्त भोगों की इच्छा ही भ्रष्टाचार का पहला स्रोत है| काम का ही दूसरा स्वरूप लोभ या लिप्सा है जो भ्रष्टाचार का दूसरा जनक है| हमारा या हमारे सगे संबंधियों का सुख समाप्त न हो जाये, यह भय हमें सतत् सताता है और राज्य या समाज के द्वारा हमारी योग्यता एवं श्रम के अनुरूप प्राप्तियों से हमें संतोष नहीं मिलता है और हमारा लोभ हमें भ्रष्टाचार के मार्ग पर प्रवृत कर देता है| भ्रष्टाचार का तीसरा कारण है – मद| सत्ता से पद एवं पराक्रम (power) प्राप्त होता है| मनुष्य अपने जीवन में संघर्ष से बचने के लिए सतत् पद एवं पराक्रम में अभिवृद्धि करते रहना चाहता है| अयोग्य को पद एवं ताकत प्रदान करने पर मद या अहंकार रूपी विकार का सृजन होता है जो उसे भ्रष्टाचारगामी बना देता है| किसी ने कहा भी है –“ ताकत भ्रष्टाचारी बनाता है और पूर्ण ताकत तो पूर्णरूपेण|”

इस उदारीकरण एवं बाज़ार आश्रित व्यवस्था के दौर में समाज के अमीर एवं गरीब तबकों के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है| अमीर वर्ग तो भोग, लोभ और मद के कारण भ्रष्टाचाररत हैं, परन्तु दलित, शोषित एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग में ये लालसाएं दमित होकर और भी विकृत स्वरूप में क्रोध, मोह एवं मात्सर्य (ईर्ष्या) के रूप में उभरती है| फलतः वंचित वर्ग भी भ्रष्टाचार एवं अपराध की शरण में जाना पसंद करते हैं| अब जब शासक एवं शासित, घुस लेने वाले एवं घुस देने वाले दोनों ही राज़ी हो तो कोई क़ानून क्या कर लेगा? दहेज लेना एवं देना दोनों ही जुर्म है, परन्तु दहेज विरोधी कानून का क्या हश्र हुआ है सभी जानते हैं|

कहने का तात्पर्य यह है कि काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद और मात्सर्य मानव के आंतरिक छह विकार हैं और भ्रष्टाचार आंतरिक दौर्बल्य तो फिर इसका उन्मूलन तो कदापि संभव नहीं है| ध्यातव्य है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ साथ भ्रष्टाचार भी फलता फूलता रहा है| हां, हम इसे नियंत्रित करने की कवायद कर सकते हैं|

पूंजीवादी व्यवस्था में धीरे धीरे समाज द्विध्रुवीय हो जाता है –पहला संचित तो दूसरा वंचित| एक अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए तो दूसरा उस स्थिति में जाने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लेता है| अतएव समाज में धन या अर्थ का संवितरण भ्रष्टाचार नियंत्रण की पहली शर्त है और यह राज्य का दायित्व है| परन्तु बाज़ारवादी व्यवस्था में जहाँ एक रूपये का ठंडा पेय उफभोक्ता तक पहुँचते पहुँचते दस रूपये का हो जाता है और बीच में सारा माल उद्योगपतियों, राजनेताओं, मीडिया-विज्ञापन कर्ताओं और सम्बंधित अफसरशाहो के द्वारा गड़प कर लिया जाता है, यह कैसे संभव है? सूचना का युग है इसलिए राज्य-राज्य, शहर-शहर, गाँव-गाँव, मोहल्ला-मोहल्ला का अपना अखबार, अपना टीवी, अपना रेडियो होगा? जितना माध्यम उतना राजस्व, उतना विज्ञापन, उतना निवेश, उतनी उन्नत अर्थव्यवस्था, उतने खुश बड़े लोग, उतनी बढती महँगाई, उतने पिसते आम लोग, रामलीला मैदान में डंडे खाते लोग, जगह-जगह अनशन करते लोग, जो चाहें आका वही पढते, सुनते, बोलते लोग? हद तो तब हो गयी जब एक दैनिक में पढ़ा कि हार्वर्ड युनिवर्सिटी के राजनीतिक विश्लेषक सैमुएल हंटिगटन ने एक शोध में कहा कि भ्रष्टाचार से लोकतंत्र बेहतर तरीके से काम करता है| इसी का परिणाम है कि सामाजिक विज्ञान और प्रसिद्ध साहित्य दोनों कभी कभी लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को एक जरूरी बुराई मानते हैं| क्या भारत जैसे देश में जहाँ एक बड़ा तबका अभी भी गरीबी की रेखा से नीचे गुजर बसर करता है, यह माडल मान्य होगा?

भ्रष्टाचार नियंत्रण की दूसरी शर्त है – अत्यधिक लिप्सा पर अंकुश| हमारे देश में जहाँ आम जनता के विकास हेतु निर्धारित एक सौ रुपया उन तक पहुँचते-पहुँचते एक रुपया हो जाता है| तो फिर यही एक रुपया बांटनेवाले प्रशासन के लोग लोकपालों के हुक्म को तामील करेंगे? जहाँ वाहन चालकों के दुर्घटना से बचाव के बदले पुलिसवाले रूपये वसूल करने में मशगूल रहेंगे, ऐसे ही पुलिसवाले लोकपाल की रक्षा का बीड़ा उठाएंगे?

क्या ब्रिटिश काल का क़ानून जो गुलामों पर शासन के लिए था, आज प्रासंगिक है? क्या न्यायपालिका को साहब की कुर्सी से उठकर जनसेवक बनकर त्वरित न्याय करने की जरूरत नहीं है? जब भी भारत में भ्रष्टाचार रहित समाज की बात होती है तो रामराज्य का जिक्र अवश्य होता है| राम के राज्य में जब एक आमजन ने सीताजी के चरित्र की आलोचना भर की और राम ने उन्हें वन में त्याग दिया फिर हम राष्ट्रीय सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था के अलावे अन्य मामलों में प्रधानमंत्री एवं प्रमुख न्यायविदों को लोकपाल के हवाले करने की बात करें तो क्या गलत है?

यह सच है कि प्रजातंत्र में संविधान सर्वोच्च होता है, पर संविधान तो आम जनता के हित के लिए ही तो बना है| सवाल अन्ना हजारे के समान्तर लोकपाल या बाबा रामदेव के चरित्र या आन्दोलन करने के तरीके का नहीं है, सवाल है भ्रष्टाचारियों को मात देने का| जब व्यक्ति या समाज मानसिक विकृतियों से ग्रस्त होकर गलत कार्य करता है तो समाज के पुरोधा उसके कृत्य को नंगा कर उसे लज्जित करते हुए पश्चात्ताप करने पर मज़बूर करते हैं| हम सूचना युग में जी रहें है| सूचना पारदर्शिता लाती है अतएव एक दूसरे को बेशर्मी से नंगा होते देखें| लोकतंत्र है इसलिए नंगो का बहुमत है| वहाँ क्या हो सकता है जहाँ कूप में ही भांग घुली हो और सब नशे में मस्त हों|