बाजार के निशाने पर अब गाँव

1
174

सुनील अमर

देश के गाँव इन दिनों कई तरह से बाजार के फोकस पर हैं! घरेलू उपयोग की वस्तुऐं बनाने वाली बड़ीबड़ी कम्पनियाँ को अगर वहाँ अपनी बाजारु संभावनाऐं दिख रही हैं, तो बिल्कुल शहरी व्यवसाय माने जाने वाले बी.पी.ओ. क्षेत्र ने भी अब गॉवों की तरफ रुख कर लिया है। सरकार अगर देश के प्रत्येक गाँव में बैंक शखाऐं खोलने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुकी है तो निजी क्षेत्र की दिग्गज कम्पनी हीरो समूह अब गॉवों में साप्ताहिक किशत के कर्ज पर बाइसिकिल बेचने का ऐलान कर रही है, और उधर, आई.टी. सेक्टर ने भी घोशणा की है कि गाँवों के इलेक्ट्रानिकीकरण बगैर देश का त्वरित विकास संभव नहीं है!पूॅजीवादी व्यवस्था के बारे में कहा जाता है कि यह पत्थर से भी पानी निचोड़ने की कला जानती है और किसी क्षेत्र को अगर इसने उपेक्षित कर रखा है तो यह मान लेना चाहिए कि वहाँ किसी भी तरह की आर्थिकदोहन की संभावनाऐं बची ही नहीं है। इस व्यवस्था की नजरए-इनायत अगर गॉवों पर हुई है तो इसका अर्थ है कि अब यह बालू से तेल निकालने का खेल शुरु करेगी। पिछले कुछ महीनों में हुई सरकारी घोशणाओं से ही यह शक़ होने लगा था कि सरकार को गॉवों की एकायक हुई चिन्ता अनायास नहीं हो सकती। जैसे जब केन्द्रीय कृशि मंत्री कहते हैं कि फलां चीज की पैदावार कम हुई है या फलां जिन्स के दाम बढ़ सकते हैं, तो वह अनायास नहीं होता। उसका अर्थ ही होता है कि वह मुनाफाखोरों को लाभ पहुॅचाने के लिए किया गया  इशारा है। इसी प्रकार देश के प्रत्येक गाँव में एक अदद डाकखाना होने के बावजूद अगर सरकार को वहॉ बैंको की जरुरत बड़ी शद्दत से महसूस होने लगी है तो इसका अर्थ यही है कि वहॉ बहुराश्ट्रीय कम्पनियों के चरण पड़ने ही वाले हैं, जिनका काम कोर बैंकिंग सर्विस यानी सी.बी.एस. सुविधा के बगैर हो नहीं सकता। और यह जरुरत सरकार को इस तथ्य के बावजूद हो रही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रही सरकारी बैंकों की शखाओं में आधे से भी अधिक खाते नश्कि्रिय ही पड़े रहते है!

इस सच्चाई के बावजूद कि गॉवों में विकट बेकारी और गरीबी है, बड़ीबड़ी कम्पनियों का मानना है कि जीवन यापन तो वहाँ भी हो ही रहा है। यही वह दार्न है जो इन कम्पनियों को उन गाँवों की तरफ ले जा रहा है जहॉ भारत की तीनचौथाई आबादी अभी भी बसती है। दैनिक उपभोग की वस्तुऐं बनाने वाली एक बहुराश्ट्रीय कम्पनी के बड़े अधिकारी बताते हैं कि सिर्फ उ.प्र. के गॉवों से होने वाला व्यवसाय लगभग दो लाख करोड़ रुपया प्रतिवशर का है! वे यह भी बताते हैं कि जब से वस्तुओं का पाउच और भौसे संस्करण आने लगा, बिक्री में जबर्दस्त उछाल आ गया और उन वस्तुओं की बिक्री भी होने लगी है जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था कि ये भी गॉवों में बिक सकती हैं! शम्पू, मैगी, हेयर डाई, मेंहदी, ब्यूटी क्रीम, कॉफी, चाय पत्ती, नमकीन, नूडल्स, पान मसाला, वाशिंग पावडर, पिसा मसाला, गरज ये कि घरेलू उपभोग से लेकर सौन्दर्य प्रसाधन तक की तमाम सामाग्रियाँ आज एक रुपये से लेकर चारपाँच रुपये के अत्यन्त आकशर्क पैकेटों में गलीगली की दुकानों पर उपलब्ध हैं और इनकी अच्छी खासी बिक्री हो रही है। कभी सोचा गया था कि टूथ पेस्ट भी पाउच में मिल सकता है?

जरुरत के सामानों की बिक्री हो रही है तो इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है लेकिन असल मायाजाल तो इसके पीछे छिपा हुआ है, जब गैर जरुरत की वस्तुऐं भी बच्चों से लेकर बड़ों तक को ललचाकर उन्हें अपना स्थायी ग्राहक बना लेती हैं। दोचार रुपये में उपलब्ध होने के कारण लोग अपनी अन्य जरुरतों में कटौती करके इनकी खरीददारी करते हैं, जिससे उनका अत्यन्त सीमित दैनिक बजट उल्टापुल्टा हो जाता है। इसका सबसे बुरा असर तो बच्चों पर पड़ रहा है जो प्रायः ही पटरीपेन्सिल या कापी खरीदने के लिए मिले पैसे में से कटौती करके तमाम तरह के चूरनचटनी, च्यूइंगगम आदि खरीद लेते हैं। यह वैसे ही है जैसे स्वरोजगार करने के लिए किसी गरीब व्यक्ति को मिले सरकारी सहायता के धन को अन्य कार्यों पर खर्च कर देना। वास्तव में बहुराश्ट्रीय कम्पनियों के गॉव की तरफ रुख करने का मन्तव्य भी यही है। हम देख ही रहे है कि गॉवों में खुले भाराब के ठेके पर किस तरह लोग दवा के पैसे तक खर्च कर देते हैं और इसका प्रतिरोध करने वाली घर की औरत को कितने प्रकार के जुल्मों को सहना पड़ता है। गॉव की दुकानों पर लटके सामान के पाउचों को एक निगाह देखकर ही जाना जा सकता है कि सिर्फ 70 रुपये दैनिक पारिवारिक आय (यह ऑकलन भी सरकार का ही है) वालों के लिए इसकी खरीददारी करना परिवार को किस संकट पर खड़ा कर देता होगा!

लेकिन यह बिक्री जोरशोर से होती रहे इसके लिए गॉव वालों के पास क्रय शक्ति भी होनी चाहिए। अब बी.पी.ओ. यानी बिजनेस प्रॉसेस आउटसोर्स जैसे निहायत शहरी धंधे को गॉव का रुख कराया जा रहा है। देश के अग्रणी उद्यमी संगठन ॔नास्कॉम’ ने हाल में एक रिपोर्ट जारी की है। ॔स्ट्रैटेजिक रिव्यू 2011’ नामक इस रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरों में बी.पी.ओ. का काम कराना बहुत खर्चीला होता जा रहा है, जबकि इसके विपरीत अगर गॉव के पढ़े लिखेयुवाओं से यही काम कराया जाय तो लागत काफी कम हो जाएगी। कई बी.पी.ओ. कम्पनियों ने दो के दक्षिणी राज्यों में ऐसे कार्यों को भी शुरूकिया है जिसमें फाइनेंस, एकाउन्टिंग, कॉल सेन्टर, इंजीनियरिंग, डाटा मैनेजमेंट तथा मेडिकल सर्विस आदि कार्य भामिल हैं। कर्नाटक में इस तरह के प्रयोग सार्थक असर दिखा रहे हैं। नास्कॉम का कहना है कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन, यूटीलिटी, हेल्थकेयर व रिटेल सेक्टर आदि कार्यो में गॉवों में काफी संभावनाऐं हैं और इनके मार्फत ग्रामीण युवाओं को रोजगार मुहैया कराये जा सकते हैं।निश्चय ही यह कार्य प्रांसनीय है और यह अगर सलीके और संतुलित  ढंग से किया गया तो गॉवां की तस्वीर बदल सकता है लेकिन यहॉ सवाल सरकार की नीयत का आता है कि वह पहले गॉव का विकास चाहती है या बहुराश्ट्रीय कम्पनियों का भला?

देश के गॉवों में सस्ता और पर्याप्त श्रम आज भी मौजूद है। इसमें पढ़े लिखे युवा भी हैं। पूंजी के धंधेबाज यह जानते हैं कि उन्हें फायदा कहॉ से हो सकता है। इस प्रकार अगर यह बाजारी व्यवस्था की मॉग है कि अब गाँव चला जाय तो वह वहॉ पहुॅचेगी ही। अब यहॉ जिम्मेदारी सरकार की आ जाती है कि गॉव में वही रोजगार पहुॅचें जो वहॉ असंतुलन न पैदा करें। मसलन रिटेल चेन और मॉल कल्चर गॉवों के लिए खतरनाक है क्योंकि इससे वे करोड़ों लोग भुखमरी के कगार पर आ जायेंगें जो छोटीमोटी दुकान, ठेलारेहड़ी या फुटपाथ पर बैठकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम करते हैं। नास्कॉम ने गॉवों में अपनी संभावनाओं में रिटेल सेक्टर को भी रखा है, इसे भूलना नहीं चाहिए। हो सकता है कि यह उपर गिनाए गये रोजगार की तमाम संभावनाओं के पीछे छिपता हुआ आये! आखिर सरकार पर भी तो लम्बे अरसे से रिटेल सेक्टर को मंजूरी देने का अंतरराश्ट्रीय दबाव है।

Previous article‘मनरेगा’ : रोजगार और भत्ते की गारंटी
Next articleभ्रष्टाचार : कारण एवं निवारण
सुनील अमर
लगभग 20 साल तक कई पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करने के बाद पिछले कुछ वर्षों से स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन| कृषि, शिक्षा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था तथा महिला सशक्तिकरण व राजनीतिक विश्लेषण जैसे विषयों से लगाव|लोकमत, राष्ट्रीय सहारा, हरिभूमि, स्वतंत्र वार्ता, इकोनोमिक टाईम्स,ट्रिब्यून,जनमोर्चा जैसे कई अख़बारों व पत्रिकाओं तथा दो फीचर एजेंसियों के लिए नियमित लेखन| दूरदर्शन और आकाशवाणी पर भी वार्ताएं प्रसारित|

1 COMMENT

  1. रीटेल सेक्टर को बढावा देने से उम्मीद की जा सकती है की वस्तुओं की गुणवता बढ़ेगी और मिलावट में कमी आयेगी.यहभी एक विरोधाभास ही है की शहरों से भी ज्यादा मिलावट का दुष्प्रभाव ग्रामीणों को झेलना पड़ताहै.जहां तक नशीली वस्तुओं के सेवन का प्रश्न है,आज भी गाँव शहरों से पीछे नही* है.अगर बीपीओ वगैरह गाँव का रूख करते हैं तो यह एक तरह से अच्छा ही है. गाँव वालों की आमदनी बढ़ेगी और वे शहरों की ओर रूख न करके अपने गाँव को ही सम्पन्न बनायेंगे.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here