संजय सक्सेना
उत्तर प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी में वर्ण भेद हमेशा से ही चर्चा में रहा है। भाजपा को बनिया-ब्राहमण, कांग्रेस को ठाकुर-ब्राहमण और समाजवादी पार्टी को पिछड़े और मुस्लिम ब्यूरोक्रेट्स पर ज्यादा भरोसा रहा तो बसपा ने दलित वर्ग के ब्यूरोक्रेट्स पर अधिक भरोसा किया, लेकिन अबकी बार माया का निजाम बदला-बदला नजर आ रहा है। यही वजह है कभी आंखों के ‘नूर’ रहे, दलित अफसर अबकी उनके लिए ‘नासूर’ बन गये हैं। लगता है कि पिछले तीन शासन कालों में बसपा और मुख्यमंत्री मायावती के करीबी रहे दलित अधिकारी इस बार माया के ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की नीति में फिट नहीं बैठ रहे हैं। बसपा की सोच को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले यह दलित ब्यूरोक्रेट्स अबकी के माया राज में उपेक्षित और महत्वहीन पदों पर बैठे हैं, इससे तो वह कुंठित हैं ही,इससे अधिक दुख उन्हें दुख इस बात का है कि मायावती ‘अपर कास्ट’ के अधिकारियों के चंगुल में फंस कर अपने वोट बैंक को कमजोर कर रही हैं। राजनैतिक पंडितों का आकलंन है कि बसपा सरकार के करीब चाल साल के कार्यकाल के दौरान दलित अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों के बजाय महत्वहीन पदों पर तैनाती मिलने से इस वर्ग के अधिकारियों में जो नारजगी बढ़ी हैं, वह भविष्य में होने वाले चुनावों में बसपा के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है। चौथी बार सत्ता पर काबिज हुईं माया ने अबकी अपर कास्ट के अधिकारियों पर तो अधिक विश्वास किया ही इसके अलावा जिन दलित अधिकारियों ने अपनी योगयता के बल पर महत्वपूर्ण पदों को हासिल किया था, उन्हें भी सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ‘बलि’ देनी पड़ गई।
कभी नेतराम, श्रीकृष्ण, कपिलदेव, डॉ जेएन चैम्बर, फतेहर बहादुर, चंद्रप्रकाश, चंद्रभानु तथा अनिल संत आदि अधिकारियों को मुख्यमंत्री का करीबी माना जाता था। ये दलित अधिकारी मायावती के पिछले तीन कार्यकालों में महत्वपूर्ण पदों पर तैनात भी रहे थे।यूपी में 13 मई 2007 को दलित की बेटी कहने वाली मायावती के नेतृत्व में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो दलित अफसरों की उम्मीदों के पंख लग गए। उनको विश्वास था कि अब उनका वनवास खत्म होगा और महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती मिलेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। न जाने क्यों माया ने दलित अफसरों से दूरी बढ़ा ली। सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके एक दलित अधिकारी ने माया की सोच में आए परिवर्तन के संबंध में कहा कि इस बात का उन्हें काफी दुख है कि उनकी उपेक्षा अपनी ही सरकार में हो रही है जबकि पूर्व सरकारों में भी इतनी उपेक्षा नहीं थी जिन दलित अधिकारियों के पास महत्वपूर्ण पद हैं वे अपने पद को बचाने के लए ज्यादा फिक्रमंद रहते हैं।’दलितों क मसीहा’ के चौथे कार्यकाल में माया के करीबी अधिकारियों में दलितों के बजाय सवर्ण जाति के अधिक हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि सवर्ण जाति के कुछ अधिकारी ही दलित अधिकारियों की महत्वहीन तैनाती करवाने में अहम भूमिका निभाते हैं। इन्हीं अधिकारियों की वजह से कई दलित अधिकारियों से महत्वपपूर्ण पद छीने गए हैं। जिनमें डा जेएन चैम्बर, नेतराम श्रीकृष्ण, कपिलदेव, चंद्र प्रकाश तथा एनएस रवि आदि हैं। इस सबंध में एक पूर्व आईजी एसआर दारूरी कहते हैं कि मुख्यमंत्री मायावती दलितों के नाम पर राजनीति तो जरूर कर रही हैं, लेकिन दलित अधिकरियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती नहीं दे रही हैं। इसकी वजह साफ है कि मायापती के एजेंडे में दलित नहीं अब सिर्फ ब्राहमण ही रह गये हैं। कभी मायावती के करीबी अधिकारियों में रहे बारबांकी से कांग्रेसी सांसद और राष्ट्रीय अनुसूचित जति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया का तो मायावती से विश्वास ही उठ गया है। वह जिस भी मंच पर जाते हैं,वहां बार-बार दोहराना नहीं भूलते हैं कि मायावती दलितों के साथ धोखा कर रही हैं। पुनिया, माया को दलितों का गुनहागार बताते हुए कहती हैं कि मायावती को सबसे अधिक चिढ़ दलित नेताओं और अधिकारियों से ही है। यही वजह है कि वह किसी भी दलित नेता या अधिकारी को आगे बढ़ने नहीं देना चाहती हैं।
पीएल पुनिया उदाहरण देते हुए बताते हैं कि नेतराम को अपर कैबिनेट सचिव पद से और पूर्व विधानसभा परिषद सभापति कमलाकांत गौतम को इसी वजह से हटाया गया कि कहीं ये दलित अधिकारी और नेता अधिक लोकप्रिय न हो जाएं। उन्होंने कहा कि उनके पास तमाम ऐसे दलित अधिकारी फोन कर अपने उत्पीड़न का दुखड़ा रोते हैं। इसमें से कुछ उम्मीद लगाए बैठे है कि विधान सभा का चुनाव करीब आते-आते उनको ‘शानदार’ तैनाती मिल जाएगी।
MAYA BAHAN सही कर RAHI HAI, अब वाई सबी को साथ लेकर CHAL रही है तो इन दलित ओफ्फिसर्स को चिंता HO रही है, इन ओफ्फिसर्स को कोई बताई की माया बहन IS रस्ते पर CHALKAR कुछ HI VARSH मई परिमे मिस्निस्टर भी बन SAKTI है……………..