—विनय कुमार विनायक
कोयल तुम बोलती हो अपनी बोली,
इसलिए तू आजाद हो नीलगगन में!
कोयल तुम्हारी कूक अपने दिल की,
इसलिए तुम बसी हो सबके मन में!
कोयल तुम नहीं कूकती पराई वाणी,
इसलिए तू कैद नहीं किसी बंधन में!
कोयल तुम्हारी भाषा नहीं नकल की,
इसलिए तू रहती हो अपने चमन में!
कोयल तू तोते सा नहीं हो नकलची,
इसलिए तुम नहीं, किसी जकड़न में!
आजादी की परिभाषा स्वअभिव्यक्ति,
तू सदियों सिखा रही अपने वतन में!
किन्तु कोयल सी स्वभाषा व जुबानी,
अबतक गूंजी नहीं भारत जनगण में!
तोते सा निज जुबां को रखके गिरवी,
कबतक भजन करेंगे, पराई जुबान में!
अस्तु कोयल तू छोड़ना नही कुहुकना,
हमारे छत पे बरगद-पीपल-आम्रवन में!
हे कोयल तुम बंद करो नहीं अलापना,
हम जबतक बंधे विदेशी तोतलेपन में!
कोयल तू काली, मगर लगती हो भोली,
जब गाती गीत पंचमसुर व स्वधुन में!
कोयल तुम पलती हो कौए के संग में,
मगर भूली नही स्वभाषा अंतःकरण में!
कोयल तुम काक के साथ में रहके भी,
ग्रहण नहीं करती काक भाषा जेहन में!
हम मानव संगति से प्रभावित होते रहे,
सच देर से,झूठ ग्रहण करते तत्क्षण में!
हम वर्षों तोते सा गुलाम रहे पिंजरे में,
हम गाते नहीं सामगान घर आंगन में!