बिना जुताई की खेती संभव है

बाबा मायाराम

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद शहर से भोपाल की ओर मात्र 3 किलोमीटर दूर है टाईटस फार्म। यहां पिछले 25 साल से कुदरती खेती का अनोखा प्रयोग किया जा रहा है। राजू टाईटस जो स्वयं पहले रासायनिक खेती करते थे, अब कुदरती खेती के लिए विख्यात हो गए है। उनके फार्म को देखने देश-विदेश के कई लोग आते हैं। होशंगाबाद जिले में हाल ही में 3 किसानों की आत्महत्याएं हुई हैं, इससे वे विचलित हैं, पर निराश नहीं। वे कुदरती खेती को विकल्प के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि अब रासायनिक खेती के दिन लद गए हैं। बेजा रासायनिक खाद, कीटनाशक, नींदानाशक और जुताई से मिट्ठी की उर्वरक शक्ति कम हो गई है। तवा बांध की सिंचाई से शुरूआत में समृद्धि जरूर दिखाई दी लेकिन अब वह दिवास्वप्न में बदल गई है। ऐसे में वैकल्पिक खेती के बारे में विचार करना जरूरी है। इसी परिप्रेक्ष्य में कुदरती खेती का प्रयोग ध्यान खींचता है।

हाल ही में जब मैं उनके फार्म पर पहुंचा, तब वे मुख्य द्वार पर मेरा इंतजार कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने चाय के बदले प्राकृतिक पेय पिलाया, जिसे गुड़, नीबू और पानी से तैयार किया गया था। खेत के अमरूद खिलाए और फिर खेत दिखाने ले गए। थोड़ी देर में हम खेत पहुंच गए। इस अनूठे प्रयोग में बराबर की हिस्सेदार उनकी पत्नी शालिनी भी साथ थीं। हरे-भरे अमरूद के वृक्ष हवा में लहलहा रहे थे। एक युवा मजदूर हाथ में यंत्र लिए खरपतवार को सुला रहा था। क्रिम्पर रोलर से खरपतवार को सुला दिया जाता है। इस खेत में गेहूं की बोवनी हो चुकी थी। खेत में ग्रीन ग्राउंड कवर कर रखा था। यानी खरपतवार से ढंककर खेत को रखना। यहां खेत को धान के पुआल से ढंक रखा था। इसमें गाजरघास जैसी खरपतवार का इस्तेमाल किया गया था। पूछने पर बताया कि सामान्य सिंचाई के बाद पुआल या खरपतवार ढंक दी जाती है। सूर्य की किरणों से ऊर्जा पाकर सूखे पुआल के बीच से हरे गेहूं के पौधे ऊपर आ जाते हैं। यह देखना सुखद था। राजू बता रहे थे कि खेत में पुआल ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं जिससे फसल अच्छी होती है। उनका कहना है कि रासायनिक खेती में धान के खेत में पानी भरकर उसे मचाया जाता है जिससे पानी नीचे नहीं जा पाता। धरती में नही समाता। खेत का ढ़काव एक ओर जहां जमीन में जल संरक्षण करता है, यहां के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है। वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है क्योंकि वहां अनेक फसल के कीटों के दुष्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं है।

उनके मुताबिक जब भी खेत में जुताई और बखरनी की जाती है। बारीक मिट्टी को बारिश बहा ले जाती है। साल दर साल खाद-मिट्टी की उपजाऊ परत बारिश बह जाती है। जिससे खेत भूखे-प्यासे रह जाते हैं और इसलिए इसमें बाहरी निवेश की जरूरत पड़ती है। यानी बाहर से रासायनिक खाद वगैरह डालने की जरूरत पड़ती है। जमीन के अंदर की जैविक खाद जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते हैं, जुताई से गैस बनकर उड़ जाती है, जो धरती के गरम होने और मौसम परिवर्तन में सहायक होती है। ग्लोबल वार्मिग और मौसम परिवर्तन इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा चिंता का सबब बने हुए हैं। लेकिन अगर बिना जुताई (नो टिलिंग) की पद्धति से खेती की जाए तो यह समस्या नहीं होगी और अब तो जिले में जो ट्रेक्टर-हारवैस्टर की खेती हो रही है, वह ग्लोबल वार्मिंग के हिसाब से उचित नहीं मानी जा सकती।

राजू टाईटस के पास 13.5 एकड़़ जमीन है, जिसमें 12 एकड़ में खेती करते हैं। इस साल पड़ोसी की कुछ जमीन पर यह प्रयोग कर रहे हैं। इस 12 एकड़ जमीन में से 11 एकड़ में सुबबूल (आस्टेलियन अगेसिया) का घना जंगल है। यह चारे की एक प्रजाति है। इससे पशुओं के लिए चारा और ईंधन के लिए लकडियां मिलती हैं। जिन्हें वे सस्ते दामों पर गरीब मजदूरों को बेच देते हैं। उनके अनुसार सिर्फ लकड़ी बेचने से सालाना आय ढाई लाख की हो जाती है। सिर्फ एक एकड़ जमीन पर ही खेती की जा रही है। राजू बताते हैं कि वह खेती को भोजन की जरूरत के अनुसार करते हैं, बाजार के अनुसार नहीं। हमारी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से हमें अनाज, फल, दूध और सब्जियां मिलती जाती है। जो परिवार की जरूरत पूरी कर देते हैं। जाड़े में गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल ली भोजन की आवष्यकता की पूर्ति करते हैं।

कुदरती खेती को ऋषि खेती भी कहते है। राजू टाईटस इसे कुदरती-जैविक खेती कहते हैं। जिसमें बाहरी निवेश कुछ भी नहीं डाला जाता। न ही खेत की हल से जुताई की जाती है और न बाहर से किसी प्रकार की मानव निर्मित खाद डाली जाती। नो टिलिंग यानी बिना जुताई के खेती। पिछले 25 साल से उन्होने अपने खेत में हल नहीं चलाया और न ही कीटों को मारने के लिए कीटनाशक व दवा का इस्तेमाल किया जाता है। यह पूरी तरह अहिंसक कुदरती खेती है। इसकी शुरूआत जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओवा ने की थी, जो स्वयं यहां आए थे। फुकुओवा ने बरसों तक अपने खेत में प्रयोग किया और एक किताब लिखी-वन स्ट्रा रेवोल्यूशन यानी एक तिनके से आई क्रांति। यह पद्धति इतनी सफल हुई है कि अमरीका में भी अब इसका प्रयोग किया जा रहा है जहां बिना जुताई की खेती का तेजी से चलन बढ़ा है।

आमतौर से खेती में फसल के अलावा किसी भी तरह के खरपतवार, पेड़-पौधों को दुष्मन माना जाता है। लेकिन कुदरती खेती इन्हीं के सहअस्तित्व से होती है। इन सबसे मित्रवत व्यवहार किया जाता है। पेड़ पौधों को काटा नहीं जाता। जिससे खेत में हरियाली बनी रहती है। राजू बताते हैं कि पेड़ों के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है जिससे जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि हमारी जमीन की उर्वरता और ताकत अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। बिना जुताई (नो टिलिंग) के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। जब पहली बार मैंने सुना था तब मुझे भी विश्वाकस नहीं हुआ था। लेकिन देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गई। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमषः घटती जाती है और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं उपजता। वह बंजर हो जाती है। वास्तव में कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। शुद्ध हवा और पानी मिलता है। धरती को गर्म होने से बचाने और मौसम को नियंत्रण करने में भी मददगार है। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उसे धरती माता कहते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता हो सकता है। भले ही आज यह व्यावहारिक न लगे लेकिन इसमें वैकल्पिक खेती के सूत्र दिखाई देते हैं। (चरखा फीचर्स)

3 COMMENTS

  1. बहुत ही सुन्दर विवेचन.इस तरह की खेती से मिलता जुलता कुछ प्रयोग श्री सुभाष पालेकर के निर्देशन में भी हो रहा है.बिहार के नालंदा जिले में भी इस तरह के किसी विधि द्वारा एक किसान ने चीन या जापान के मुकाबले अधिक उपज की है.राजू टाईटस जो प्रयोग कर रहे हैं ,वह भी अनूठा है.जैसा कि जगदीश पाण्डेय जी ने लिखा है,उनके यहाँ पर्वतीय एरिया में एक जमाने से आज भी इस प्रकार की खेती होती है. .मेरा प्रश्न केवल यह है कि अगर ऐसी बात है तो यह केवल एक ही जाति में क्यों सिमट कर रह गयी?क्यों नहीं उसको बढ़ावा मिला?
    मुझे तो आश्चर्य यह होता है कि जब हमारे यहाँ इस तरह के खेती की सफल पद्धतियाँ हैं,जो प्रकृति के साथ रह कर हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है,तो उसको प्रोत्साहन क्यों नहीं मिल रहा है?वह क्यों जुगनू की चमक मात्र सिद्ध हो रही है?

  2. हमारे यहाँ पर्वतीय एरिया में एइसी खेती एक ज़माने से आज भी होती है . यह खेती बेगा जाती के लोग करते है . जिसे बेम्रह खेती कहते है .बाबा कोई नया नहीं कर रहे है .

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