सिर्फ संस्कृति ही नहीं देश के भविष्य का भी संकेतक है बालपन

-पंकज

किसी भी देश का बच्चा उस देश की वास्तविक स्थिति पेश करता है। वह उसके सभ्यता संस्कृति से ही साक्षात्कार नहीं कराता है बल्कि उसके भविष्य का भी स्पष्ट संकेत देता है। इस स्थापना के आलोक में देखें तो हमारे नौनिहाल जिस हाल में हैं उसे देख कर खासी निराशा होती है। लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है कि क्योंकि पिछले दो तीन दशकों में तमाम प्रकार के संघर्ष और कठिनाईयों के बावजूद आज हमारा देश जहां खडा है उसकी कल्पना शायद बहुत कम लोगों ने ही की होगी।

बहरहाल हमारे देश के नौनिहाल कई वर्गों में बंटे हैं। कुछ सामान्य जीवन जी रहे भाग्यशाली हैं तो कुछ परिस्थितियों के मारे हुए हैं। कुछ बच्चे ऐसे हैं जो आर्थिक विपन्नता का अर्थ ही नहीं जानते हैं। कुछ ने घुटटी में गरीबी का कडवा स्वाद ही चखा है।

कुछ मां बाप और परिवार के संरक्षण में हैं तो कुछ अनाथ और बेसहारा हैं। इतनी विषमता वर्ग विभेद के बावजूद एक बात सौ फीसदी सच है कि उनमें आपसी स्तर पर कोई वैमनस्य नहीं है। वह जाति धर्म समुदाय जैसे संकुचित अर्थ से शायद अपरिचित ही रहते हैं और उनके आपसी व्यवहार में इनकी छाया तक महसूस नहीं होती।

बच्चे अमीर हों या गरीब परिवार में रहते हों अथवा फूटपाथ पर उनकी अपनी एक दुनिया होती है जिनमें उनकी कलपनायें उडान भरती है। लेकिन क्या उन्हें और उनकी दुनिया को हम समझने की कोशिश करते हैं। सामान्यतया यह लगता है कि बच्चे सबसे अधिक संरक्षित हैं। गहराई से सोचे उनके साथ वह न्याय नहीं होता जिनकी वास्तव में उन्हें आवश्‍यकता होती है।

दरअसल हमारा सामाजिक ढांचा ही ऐसा है कि हम बच्चों की स्वतंत्रता अस्मिता एवं उनके व्यक्तित्व को मान्यता नहीं देते हैं। हमारा ध्यान उन्हें भविष्‍य में बडा आदमी या महान व्यक्ति बनाने पर होता है उनकी जरूरतों और आकांक्षाओं पर उतरना नहीं। उनकी सोच उनके विकास और उनकी समस्याओं पर हम उतना गौर नहीं करते हैं जितना उनसे जुडी अपनी इच्छाओं पर करते हैं।

परिवार एवं विद्यालय बच्चे के समाजीकरण का सबसे बडा माध्यम है लेकिन ये उस भूमिका का उपयुक्त निर्वाह करते हैं कहना मुश्किल है। उन पर पढाई और होमवर्क का बोझ लगातार बढता जाता है और बस्ते का बोझ तो अनिवार्य सत्य है।

जैसे जैसे वह बडे होते हैं उनको लेकर माता पिता और परिजनों की इच्छायें विस्तार लेती जाती हैं प्रतिस्पर्धा के इस दौर की बहुत बड़ी मार बच्चों पर भी पड रही है आज बच्चों में कुंठा एवं आत्महत्या करने का इरादा यू हीं नही घर किया है। इसके पीछे पड़ोस और सामाजिक दबावों की भी बेहद नकारात्मक भूमिका है। इस पर गंभीरता से सोचना होगा। बच्चों को भविष्‍य का औजार मानने की बजाए उन्हें बच्चा समझना ही उनका बडा सहयोग होगा।

जहां तक पिरिस्थितियों के मारे वंचित गरीब और तमाम तरह के शोषण झेलने के लिए अभिशप्त बच्चों का सवाल है तो उनके प्रति सरकार समाज और लोगों के साथ साथ स्वैच्छिक संगठनों को और उदार नजरिया अपनाना होगा। बच्चे संरक्षित और सुरक्षित होंगे तो यह देश और और भी खूबसूरत और चमकदार नजर आएगा। देश के नौनिहालों की दुनिया की पड़ताल की एक कोशिश इस शोध में की गयी है।

भारत की कुल जनसंख्या का 42 फीसदी 18 साल से कम आयु के बच्चों का है। एक हालिया सर्वेक्षण में कहा गया है कि वर्ष 2000 और 2005 के बीच केंद्र सरकार द्वारा व्यय किये गए प्रत्येक 100 रुपये में से औसतन तीन पैसे बच्चों की सुरक्षा पर खर्च किये गए जबकि बाल स्वास्थ्य के हिस्से में 40 पैसे गए। उसके बाद बाल विकास पर 45 पैसे और प्रारंभिक शिक्षा पर डेढ रुपये खर्च हुए। ध्यान देने की बात है कि भारत में बच्चों के विकास में ह्रास का को जो सिलसिला बना हुआ है वह पिछले डेढ दशक में विकास प्रक्रिया की विफलता का एक प्रमुख दृष्‍टांत है। अतः विषमतायें मिटाने अंतर को समाप्त करने और देशवासियों का कल्याण सुनिश्चित करने वाली किसी भी रणनीति का संभारंभ बच्चों के अधिकारों के प्रति सम्मान के साथ होना चाहिए। इस बात को अब अधिकाधिक स्वीकार किया जा रहा है कि नियोजन केंद्र में बच्चों के अधिकार आधारित विकास को प्रमुखता देनी होगी। पिछले कुछ सालों में बच्चों पर जो हमारा रणानीतिक फोकस रहा वह कल्याण से आगे बढ कर विकास और अधिकार आधारित दृष्टिकोण पर केंद्रित है।

पांचवी योजना में फोकस बाल कल्याण से हट कर बाल विकास पर किया गया। नौवीं योजना में बाल विकास को न केवल देश के भविष्‍य में वांछित सामाजिक निवेश के रूप में देखा गया बल्कि इसे अपनी विकास क्षमताओं को हासिल करने के प्रत्येक बच्चे के अधिकार के रूप्प में भी देखा गया। दसवीं योजना में कतिपय अंतर मंत्रालयीन और अंतर्विभागीय कदम बाल विकास की दिशा में उठाए गए। विद्यालयों में बच्चों की संख्या बढाने और यह सुनिश्चित करने कि प्रत्येक बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने का अधिकार है, सर्वशिक्षा अभियान शुरू किया गया। समेकित बाल विकास सेवा योजना का विस्तार किया गया और राष्‍ट्रीय किशोरी कन्या कार्यक्रम की षुरूआत हुई। ग्यारहवीं योजना सभी आयु समदाय और आर्थिक समूहों के बच्चों की उत्तरजीविता, सुरक्षा और बहुमुखी विकास के लिए प्रतिबद्ध है। हाल ही में राष्‍ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को अधिसूचित किया गया है। भारत सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बचनबद्ध है। बाल अधिकार अभिसमय समझौता: सहित अनेक अंतरराष्‍ट्रीय संधियों में भी भारत शामिल है।

इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए बच्चों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार देना और उनके समग्र विकास के अवसर प्रदान करना अभी भी एक चुनौती बनी हई है। परंतु सामूहिक प्रयास और सभी क्षेत्रों की सामेकित कार्रवाई से निकट भविष्‍य में इसे यथार्थ में बदला जा सकता है। केंद्र सरकार ने 2006 से रेस्त्रां, होटल , चाय की दूकानों, भोजनालयों, और घरों में नौकरों के रूप में काम करने के लिए 14 साल से कम उम्र के बच्चों को रोजगार देने पर रोक लगा दिया गया है। बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार इससे स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।

पूरे देश मे बाल श्रम अभी भी प्रचलित है। 2001 की जनगणना के अनुसार होटलों, रेस्तराओं, चाय की दुकानों, और ढाबों में आदि में काम करने वाले बच्चों की संख्या 61 हजार से अधिक है। यह संख्या तो भारत में कार्यरत एक करोड. 26 लाख बाल श्रमिकों की कुल संख्या का एक अंश भर है। सबसे अधिक बाल श्रमिक भारत में ही है।

कानून एक आवश्यक उपाय जरूर है। लेकिन इससे समस्या का निराकरण नहीं होता। केवल प्रतिबंध से काम नहीं चलता। यह गौर करना जरूरी है कि क्या संबद्ध कानून यथार्थवादी है। क्या वह सफल होगा। क्या अभिभावक सहयोग करेंगे। यदि बच्चे वास्तव में आजीविका के लिए कुछ कमाई कर रहे हैं तो क्या यह आसानी से अपना काम छोड. देंगे। 90 के दशक में जब अमेरिका ने नेपाल से कालीन के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया तो नेपाली बच्चों ने वेश्‍यावृत्ति अपना ली।

बांग्लादेश के कपडा उद्योग को जब नुकसान उठाना पड़ा तो वहां के बच्चों ने पत्थर तोडने जैसे जोखिम काम करना शुरू कर दिये। लगभग हरेक मामले में बच्चों को या तो आर्थिक अथवा सामाजिक विवशता के कारण या फिर अवसरों एवं विकल्पों के अभाव के कारण काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कामकाजी बच्चों के पालनकर्ता या तो बेरोजगार होते हैं और यदि उन्हें काम मिलता भी है तो वह साल में पचास से साठ दिनों से अधिक काम नहीं होता है। हमारे नीति निर्धारक समाज के इस कटु सत्य से निश्चित रूप से अवगत होंगे। यदि बच्चों को काम से हटा कर विद्यालयों में पढ़ने के लिए भेजा जाए तो वह उच्च विद्यालय तक की पढाई अवश्‍य कर सकेंगे। लेकिन उसके बाद क्या उनके लिए किसी काम की गारंटी है। हमारे देश में रोजगार मिलना कोई आसान बात नहीं है। परंतु बच्चे अगर कोई शिल्प सीख रहे हैं तो उनहें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उसी के साथ साथ उनकी शिक्षा के लिए भी उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए। पैसा कमाने के साथ साथ उन्हें पढ़ना लिखना भी सिखाया जा सकता है। खेलने के लिए भी बच्चों को पर्याप्त समय मिलना चाहिए। उन्हें नैतिक, भावात्मक और शारीरिक विकास की सभी सुविधायें प्रदान करना समाज का दायित्व है। अतः हमें इसे और सामयिक रूप से देखना होगा।

(लेखक स्वस्तंत्र लेखन से जुड़े हुए हैं और पत्रकारिता में मास्टर डिग्री प्राप्त कर देश के बड़े बड़े पत्रों में नियमित लेखन कर रहे हैं।)

2 COMMENTS

  1. पंकज का यह लेख पढ़कर आंकड़ों पर गौर करें तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के रहनुमा देश के भविष्य की सुरक्षा पर सौ रूपये में से सिर्फ तीन पैसे और प्रारंभिक शिक्षा पर सिर्फ ४५ पैसे खर्च करते हैं जबकि खुद लुटियंस की दिल्ली में डीलक्स और वातानुकूलित कमरों में रहते हैं |
    शायद बच्चे उनके वोटर नहीं हैं इसलिए उनकी ओर उन रहनुमाओं का ध्यान नहीं जाता जो कथित रूप से इस देश को चलाते का दावा करते हैं |
    मेरा ये मानना है की अब १८ साल से कम उम्र के बच्चों को भी मतदान का अधिकार दे दिया जाना चाहिए | शायद इसी से उनकी किस्मत बदल जाए | ऐसे भी जर्मनी में १६ साल उम्र तक के बच्चों को मतदान का अधिकार दे दिया गया है |
    हो सकता है कि वोट बैंक के चक्कर में ये नेता इन बेसहारा बच्चों का कुछ भला कर दें |
    शशिरंजन ठाकुर
    पत्रकार

  2. सिर्फ संस्कृति ही नहीं देश के भविष्य का भी संकेतक है बालपन| पंकज के इस निबंध को पढ़कर ऐसा लगता है कि पंकज जी ने गहरी छानबीन करके व्यापक स्तर पर भारत में बच्चों की स्थिति को बताने कि कोशिश की है| अमीर और गरीब के फर्क को देखते हुए जहाँ पर उन्होंने बच्चों के लालन पालन में विषमता को तलाश किया है | हमारे देश की यह सबसे बरी विडंबना है कि आजादी के ६३ वर्ष में भी आकर हंम अमीर और गरीब की इस खाई को पाट नहीं सके हैं |
    पंकज की दृष्टि वहां तक जाती है जिसकी कल्पना मात्र से हमारे रोंगटे खरे हो जाते हैं|
    उल्लेखनीय है कि भारत में बच्चों को विष्णु का रूप कहा गया है और आज उसी रूप की जो स्थिति हम देखते हैं उसे नजरंदाज कर देते हैं लेकिन युवा लेखक ने इस तरफ हमारा ध्यान खींचा है | इनकी द्र्स्टी विस्तृत हैं लेकिन बच्चों के साथ हो रहे हरस एवं घरेलू हिंसा तथा पारिवारिक विसंगति की तरफ पंकज जी का ध्यान नहीं जा सका है |अतः इस तरफ भी सोचने की जरुरत है |
    मेरी ओर से उनको और आपके प्रवक्ता की पूरी टीम को कोटिशः साधुवाद |
    रवि रंजन कुमार ठाकुर
    जामिया मिलिया इस्लामिया
    हिंदी विभाग

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