(प्रस्तुत आलेख श्री एम एन कुंडू द्वारा अँग्रेज़ी में लिखित और टाइम्स ऑफ इंडिया के ‘द स्पीकिंग ट्री’ नामक स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित आलेख ‘द कल्चर ऑफ स्पिरिचुअल सेक्युलिरिजम’ का हिन्दी अनुवाद है. मुझे लगा कि यह एक ऐसा लेख है, जो भारत की मूल संस्कृति को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है, अतः इसे अनूदित करने से मैं अपने को रोक नहीं सका. यह लेख एक जाने माने विशेषज्ञ का है, अतः इसके हिन्दी स्वरूप में जो त्रुटि हैं, उसका ज़िम्मेवार मैं हूँ.- आर. सिंह)
धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना भारतीय प्रखण्ड में न केवल एक ईश्वर बल्कि सर्व अस्तित्व की महत्वपूर्ण एकता के कारण गुंजायमान था. “एकम सत विप्र बहुधा वदंति”. परम सत्य एक ही है, पर अवास्तविक भिन्नता के कारण बहुत दिखता है. ऋग्वेद घोषित करता है कि पूजा की विभिन्न पद्धतियाँ उसी प्रकार एक ही लक्ष्य की ओर ले जाती हैं, जैसे अलग-अलग नदियाँ एक ही महासागर में विलीन होती है. गीता इसकी पुष्टि करता है कि हर प्रकार की पूजा परमात्मा तक पहुँचने का सही रास्ता है. लेकिन सत्य धार्मिक कर्मकांड के कोहरे से ढँका हुआ है.
सम्राट अशोक के एक शिलालेख में यह उल्लिखित है कि दूसरे के धर्म का आदर करो, क्योंकि ऐसा करने से अपना और दूसरे दोनों का धर्म मजबूत होता है.
सम्राट अकबर तुलनात्मक अध्ययन से सब धर्मों की विभिन्नता और समानता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हिंदू, क्रिस्तान और अन्य धर्मावलंबियों के साथ बैठक करता था. वह ऐसे वैवाहिक संबंधों के प्रति बहुत उत्साहित था, जिसमे दूल्हा और दुल्हन भिन्न मतावलंबी होते थे और वह उन्हें विवाह संबंध के बाद भी अपने भिन्न मतों के अनुसऱण करने के लिए प्रोत्साहित करता था. वह कभी भी धर्म परिवर्तन पर ज़ोर नहीं देता था. इसको केवल राजनैतिक औचित्य कह कर बर्खास्त करना अत्यधिक सरलीकरण होगा.
आधुनिक युग में भी एक सार्वभौमिक धर्म का स्वप्न देखते हुए, विवेकानंद ने घोषणा की थी, “हमलोग मानवों को वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ न कोई वेद हो, न कोई बाइबल और क़ुरान हो,फिर भी इसको सब धर्मों के पवित्र ग्रंथों को सम्मिलित करके करना है अलग-अलग धर्म केवल एकत्व की विभिन्न अभिव्यातियाँ हैं, जिसे मानव अपने उपयुक्तता के अनुसार अंगीकार करता है.”
परमहंस योगानन्द ने योग के संदेश को पश्चिम में विस्तारण किया, जहाँ मूलतः क्रिस्तान थे. जिन्होंने इसे आत्मबोध के शास्वत संदेश के रूप में स्वीकार किया. भारतीय अध्यात्म ने तत्वतः धर्म निरपेक्ष होने के कारण दुनिया भर के सत्य की खोज करने वालों को अभिभूत कर दिया. महात्मा गाँधी के प्रतिदिन की प्रार्थना में सर्वधर्म की स्तुति सम्मिलित थी. युगों से भारत ने परस्पर आदर और समता पर आधारित धर्म निरपेक्षता की एक गहरी परम्परा स्थापित की थी. आधुनिक भारत ने एक धर्म निरपेक्ष संविधान अंगीकृत किया, जिसके लिए हम सबको गर्व है. पर फिलहाल का प्रस्तुतिकरण धार्मिक सहिष्णुता को पारस्परिक आदर के बदले एक मूलभूत श्रेष्ठतः मनोग्रंथि के भाव में प्रकट करता है. अगर धर्मनिरपेक्षता को राजनैतिक सीमा में बाँध दिया जाता है तो यह अपना अर्थ खो देता है.
धर्मनिरपेक्षता की पाश्चात्य संकल्पना धर्म विरोधी होने के कारण मूलतः इससे भिन्न है. यह धर्म के प्रति नकारात्मक रवैये से उभरता है और न्याय के लिए चिंता से प्रेरित होता है, जबकि भारत में धर्म निरपेक्षता का तात्पर्य होता है, सर्व धर्मों के लिए अगाध सम्मान, यहाँ तक की नास्तिकों के प्रति भी विस्तृत और निष्पक्ष रवैया.
इसी सन्दर्भ में श्री राधाकृष्णन ने व्याख्या की है, “जबकि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र माना जाता है,तो इसका मतलब यह नहीं होता है कि हमलोग एक अनदेखे आत्मा की वास्तविकता से इनकार करते हैं या जीवन में धर्म का औचित्य नहीं समझते हैं या हमलोग अधार्मिकता को बढ़ावा देते है. इसका यह अर्थ भी नहीं होता है कि धर्म निरपेक्षता ही एक सकारात्मक धर्म बन जाता है या राष्ट्र एक ईश्वरीय प्राधिकार ग्रहण कर लेता है. हमलोग यह मानते हैं कि किसी ख़ास मत या धर्म को विशेषाधिकार नहीं प्राप्त हो सकता. धार्मिक निष्पक्षता के बारे में यह विचारधारा या अवधारणा और सहिष्णुता का राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय जीवन में एक पैगंबरीय भूमिका है.”
धर्म आध्यात्मिकता का बाहरी आवरण है. इसका अंत आध्यात्मिकता में होता है. ‘आत्मानम विधि’ या स्वयं का ज्ञान, इस देश का आदर्श था. कर्म कांड, धर्म की परंपरा और अनुशासन हमे आत्मा की एकता का स्वर्गिक बोध देता है.
इस वैज्ञानिक युग में, धर्मनिरपेक्षता को धर्म के विज्ञान पर आधारित होना चाहिए, जिससे स्वाभाविक रूप से सामाजिक. राजनैतिक और नैतिक मूल्य पद्धति, परस्पर लाभ के लिए शांति पूर्ण और सामंजस्य पूर्ण सह अस्तित्व की दिशा में ले जाने के लिए, जीवन के हर पहलू में प्रवाहित होना चाहिए.