गत सप्ताह, दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ‘ऑर्गनायजर’ इस अंग्रेजी साप्ताहिक में ‘Who is Secular? And what is Secular’ इस शीर्षक का मेरा लेख प्रकाशित हुआ था. इसकी सर्वत्र दखल ली गई इसका मुझे आनंद है. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ने भी अपने दि. ५ जुलाई के अंक में ‘व्ह्यू फ्रॉम द राईट’ स्तंभ में विस्तार से उसका सारांश प्रकाशित किया है. उस लेख के बाद, मुझे अनेक स्थानों से अभिनंदन के संदेश भी आए. ‘हिंदुस्थान टाईम्स’ इस विख्यात अंग्रेजी दैनिक के संवाददाता ने मुझे दूरध्वनि कर, प्रश्न किया कि, ‘‘दलित ईसाई और दलित मुस्लिमों को आरक्षण देने को संघ का विरोध है, ऐसा बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने कहा है, आपका मत क्या है?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं मेरा व्यक्तिगत मत दूँगा.’’ और उन्हें प्रश्न किया कि, ‘‘आपने ‘ऑर्गनायजर’ में का लेख पढ़ा?’’ उन्होंने वह पढ़ा नहीं था. फिर मैंने इतना ही कहा कि, ‘‘धर्म के आधार पर आरक्षण, देने को हमारे संविधान की मान्यता नहीं और सर्वोच्च न्यायालय ने भी वैसा निर्णय दिया है. आप मेरा लेख पढ़े और फिर प्रश्न पूछें.’’ उसके बाद उनका दूरध्वनि नहीं आया.
कोइमतूर की घटना
लेकिन, ‘हिंदुस्थान टाईम्स’ के संवाददाता की पृच्छा ने मुझे आज का भाष्य लिखने के लिए उद्युक्त किया है. इस निमित्त, एक पुराना प्रसंग याद आया. संघ के अधिकारी के नाते मेरा तामिलनाडु में जिला स्तर का दौरा आयोजित था. काइमतुर में, वहॉं के न्यायालय के बार ने मेरा भाषण रखा था. भाषण के अंत में कुछ प्रश्न-उत्तर हुए. एक ने पूछा कि, ‘‘दलित ईसाईयों को आरक्षण देने के बारे में आपका क्या मत है?’’ मैंने उत्तर दिया कि, ‘‘ईसाई चर्च के प्रमुख महामहिम पोप महोदय, कार्डिनल या बिशप यह मान्य करें कि, हमें जाति व्यवस्था मान्य है; हमने अस्पृश्यता का पालन और समर्थन कर हमारे ही बंधुओं पर अन्याय किया है; उन्हें ‘दलित’ बनाया है; उनकी उन्नति के लिए सरकारी प्रयासों की आवश्यकता है. वे यह मान्य करेंगे तो उनके लिए आरक्षण का विचार किया जा सकेंगा.’’ उसके बाद उन्होंने उपप्रश्न नहीं पूँछा. बाद में पता चला कि, प्रश्न पूछने वाले अधिवक्ता एक ईसाई व्यक्ति थे.
यह करीब १५ वर्ष पूर्व की बात होगी. उस समय ‘दलित मुस्लिम’ यह शब्दावली प्रचार में नहीं आई थी. हॉं, दलित ईसाईयों की एक संस्था होने की बात सुनी थी. मैं संघ का प्रवक्ता था उस समय, मतलब २००० से २००३ के कालखंड में, इस दलित ईसाईयों के संगठन के एक नेता मुझे दिल्ली में मिले थे. उनका नाम आज मुझे स्मरण नहीं.
मूलभूत प्रश्न
प्रश्न यह है कि, क्या ईसाई या मुस्लिम धर्म संस्था जाति व्यवस्था मानते हैं? उनमें अस्पृश्यता का पालन होता है? तामिलनाडु में, कुछ जगह, हिंदु समाज में उन्हें अस्पृश्यता के भोग भोगने पड़े और जिन्होंने इससे छुटकारा पाने के लिए अपने परंपरागत धर्म का त्याग कर ईसाई मत का स्वीकार किया, उन्हें ईसाईयों में के सवर्णों के चर्चेस में प्रवेश नहीं; उनके अलग चर्च है, ऐसा सुना था. कोइमतुर के वकील के मन में यही वस्तुस्थिति वास करती होगी. तो पोप महोदय, और प्रोटेस्टंट पंथ के जो विविध उप विभाग है, उनके प्रमुख घोषित करें कि, हॉं, हम अस्पृश्यता का पालन करते है; हम जन्म से आने वाली जाति की श्रेष्ठ-कनिष्ठता मानते है; हमसे, हमारें ही धर्म बंधुओं पर अन्याय हुआ है; इसका हमें खेद है, इसकी हमें शर्म भी आती है. हमारे उन पीडित, बहिष्कृत बंधुओं की उन्नति के लिए सरकार की मदद चाहिए; उनके लिए आरक्षण चाहिए. जो ईसाईयों के बारे में, वहीं मुसलमानों के बारे में भी. उनके भी देवबंद, बरेलवी और अन्य स्थानों के धर्मपीठ भी ऐसा ही कबुलनामा दे. फिर आरक्षण के लिए उनका विचार करना संभव है. क्या इन धर्म पंथियों की यह तैयारी है?
समाजसुधारकों के प्रयत्न
लेकिन ऐसी हिम्मत कोई भी नहीं दिखाएगा. तामिलनाडु में दलितों के लिए अलग चर्च होगा तो अपवाद है, वह स्खलन है, ऐसा वे कहेंगे. फिर उनके लिए अलग विचार करने का क्या कारण? सच तो यह है कि, किसी समय हिंदू समाज में अस्पृश्यता थी. कुछ स्वयंमन्य धार्मिक नेता, उस दुष्ट प्रथा का समर्थन भी करते थे. इसलिए यच्चयावत् सब धर्मसुधारकों ने अस्पृश्यता का पालन करने वाले अपने धर्मबंधुओं पर ही आलोचना के कठोर कोडे बरसाएं. वे केवल आलोचना करके ही नहीं रूके. उन्होंने अस्पृश्यताविरहित आचरण का भी पुरस्कार किया. आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कर अपने व्यवहार से अस्पृश्यता का संपूर्ण उच्चाटन किया. महात्मा कांधी ने ‘अस्पृश्य’ यह निंदावाचक शब्द हटाकर उसके बदले, उनके लिए ‘हरिजन’ शब्द का प्रयोग किया और हरिजनोद्धार के कार्य को अपने कार्यक्रम में महत्त्व का स्थान दिया. स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने तो पतितपावन मंदिर ही स्थापन किया और एक नए धर्मपालन को चालना दी. रा. स्व. संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने जाति-पाति, स्पृश्य-अस्पृश्यता आदि भेद विचार में लेना ही नकारकर, एकात्म हिंदू समाज का चित्र दुनिया के सामने रखा. पहले जाति का अस्तित्व मानना और फिर उसके निराकरण के प्रयास करना इसके बदले, उसका अस्तित्व ही नहीं मानना, ऐसा उन्होंने निश्चित किया और व्यवहार में भी लाया. आज ऐसा संघ दुनियाभर में फैला है.
डॉ. आंबेडकर का कार्य
इन सब में डॉ. आंबेडकर का कार्य विशेष महनीय है. दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डॉ. हेडगेवार आदि ने स्वयं अस्पृश्यता के भोग नहीं भोगे थे. डॉ. आंबेडकर ने वह भोगे थे और उसके विरुद्ध तीव्र संघर्ष भी किया था. १९२७ में महाड के तालाब के पानी के लिए अभूतपूर्व आंदोलन किया था. नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश करने के लिए भी उन्होंने संघर्ष किया. जब उनके ध्यान में आया कि, उन्हें अपेक्षित समाजसुधार संभव नहीं, तब उन्होंने कर्मकांडात्कम हिंदू धर्म का त्याग कर बुद्ध धर्म स्वीकार किया. इस्लाम या ईसाई धर्म को न चुनकर, आंबेडकर ने बौद्ध धर्म को क्यों चुना, इसका मर्म सबने समझ लेना चाहिए. लेकिन वह स्वतंत्र विषय है. संपूर्ण हिंदू समाज में भी मौलिक परिवर्तन की हवाएं चलने लगी थी. रा. स्व. संघ की प्रेरणा से १९६४ में स्थापन हुई विश्व हिंदू परिषद ने उडुपी में हुई सभा में, जिसमें अनेक शंकराचार्य, अनेक धर्मपीठों के अधिपति, अनेक महंत उपस्थित थे, हिंदू धर्म को अस्पृश्यता कतई मान्य नहीं, ऐसा स्पष्ट रूप में घोषित किया; और वहीं सब को एक मंत्र दिया :
हिन्दव: सोदरा: सर्वे | न हिंदु: पतितो भवेत् |
और वे यह कहकर ही रूके नहीं. उन्होंने तथाकथित पूर्व-अस्पृश्यों की बस्तियों में घूमना भी शुरू किया. इन प्रयासों से रूढिग्रस्त समाज में भी एक सुखद वातावरण निर्माण हुआ. धार्मिक नेताओं की इस पहल के कारण रूढिग्रस्त समाज में भी अस्पृश्यता का पालन त्याज्य बना. इतना ही नहीं अयोध्या में राम-मंदिर की निर्मिति के लिए खोदी नीव की पहली ईट एक पूर्वास्पृश्य व्यक्ति ने रखी.
आमूलाग्र परिवर्तन
कानून ने भी अस्पृश्यता दंडनीय घोषित की. इन सब प्रयासों के व्यापक स्तर पर सकारात्मक परिणाम दिखाई दिए. जिस कालाराम मंदिर में बाबासाहब आंबेडकर को प्रवेश नकारा गया था, उसी मंदिर के ज्येष्ठ पुजारी ने, अपने ‘दलित’ बंधुओं को सम्मान के साथ मंदिर में बुलाया; और उनका यथोचित सत्कार भी किया. मेरी तो ऐसी भी जानकारी है कि, यह मंदिर अनेक गरीब दलित बच्चों की शिक्षा का भार वहन करता है. समाज की मानसिकता कैसी पूर्णत: बदली है, इसका यह प्रतीक है.
बौद्धों को आवाहन
इस वातावरण में भी, दलित मुस्लिम और दलित ईसाई विद्यमान होंगे, तो दोष उन धर्मपंथीयों का है. इन लोगों को वे इसलिए दलित मानते होंगे कि, वे पहले हिंदू समाज में अस्पृश्य होने की अवहेलना सहते थे. उन्होंने निश्चित ही, उनके सामने समानता का व्यवहार करने के ईसाई या इस्लाम धर्म के गीत गाए होंगे. लेकिन समता का उद्घोष करने वाले भी उनके साथ विषमता का व्यवहार करते होंगे, तो वे उस धर्म से क्यों चिपके रहें? किसी बौद्ध नेता ने उससे संपर्क कर, उन्हें डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने अपनाए बौद्ध धर्म में आने का आवाहन कर, उनके स्वागत के लिए सिद्ध क्यों नहीं होना चाहिए?
केवल सत्ता के लोभ में
नीतिश कुमार हो या सलमान खुर्शीद, उनके मन में मुसलमानों में के दलितों के बारे में स्नेह उमड पड़ा है, ऐसा दिखता है, उसका कारण, उनकी राजनीति है. वोट बैंक की राजनीति. उनकी दृष्टि से ‘सेक्युलर’ मतलब अल्पसंख्यकों की खुशामद करने वाला. वे ‘अल्पसंख्यक’ कहते है, लेकिन उनके मन में का भाव रहता है ‘मुसलमान’. बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में मुसलमानों की संख्या काफी है. १५ प्रतिशत तो निशिचत ही होगी. वह चुनाव के परिणाम पर निश्चित ही प्रभाव डाल सकती है. यह मत-शक्ति अन्य राजनीतिक दलों की ओर न जाए और अपनी सांप्रदायिक वोट बँक सुरक्षित रहें और अपने ही ओर रहें, इसलिए यह सारे प्रयास चल रहें हैं. नीतिश कुमार का आग्रह कि भारत का भावी प्रधानमंत्री ‘सेक्युलर’ हो, या ओबीसी में मुसलमानों के लिए ४॥ प्रतिशत सिटें आरक्षित रखने की कॉंग्रेस की जो संविधान विरोधी छटपटाहट चल रही है, उसका हेतु केवल राजनीतिक स्वार्थ है. नाम ‘सेक्युलॅरिझम्’ का लेकिन व्यवहार सांप्रदायिक और राजनीतिक सत्ता के लिए अनुनय. मुसलमानों के सच्चे हित का उसमें अंशमात्र भी नहीं.
हिम्मत दिखाओ
इसका अर्थ मुसलमान या ईसाई इन दो समाजों में गरीब नहीं, ऐसा नहीं. लेकिन यह गरीबी दूर करने का मार्ग अलग है. उसके लिए सार्वजनिक रूप से यह भूमिका लेना आवश्यक है कि, आरक्षण का आधार आर्थिक होगा. वे आय की निश्चित सीमा निश्चित करें; और जिनकी आय उस मर्यादा से कम है, उनके लिए शिक्षा संस्थाओं में और सरकारी सेवाओं में आरक्षण मांगे. केवल ४॥ प्रतिशत नहीं. उससे दस गुना! नहीं उससे भी अधिक! ४९ प्रतिशत. पूरे समाज का लाभ होगा. किसे भी ‘दलित’ यह अवमानदर्शक उप पद लगाने की आवश्यकता नहीं होगी. सर्वत्र समानता आएंगी. दलितता हो या पिछड़ापन वह चिरस्थायी नहीं रहेगा. थोडे ही समय में वह समाप्त होगा. समाज एकात्म बनेंगा. दिखाएं यह हिंमत. लेकिन वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे. कारण, इस नीति से उनका राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा. वह स्वार्थ, समाज में के भेदों का उपयोग करने और वह भेद सदैव कायम रहने की नीतियॉं बनाने से ही सिद्ध होंगे, ऐसा उनका गणित है. संपूर्ण भारतीयों की एकात्मता चाहने वालों ने इन फूट डालने वाले राजनीतिज्ञों का विरोध करने की आज नितांत आवश्यकता है.
अनुवाद : विकास कुलकर्णी
आरक्षण से कार्यक्षमता की उपेक्षा होती है। सहायता परीक्षाओं के विषयों का ज्ञान देने में हो।
बिना योग्यता, सहायता “आरक्षित को पंगु” भी बना देती है। लंबे काल तक उसका उठ के पैरों पर खडा होना संभव नहीं होता।आलस्य, और अकर्मण्यता प्रोत्साहित होकर, जब अंत में सहायता काटी जाती है, तो वैमनस्य बढ कर, समाज में विघटन होता है।
हमारे राष्ट्र को आरक्षण “विघटित”ही करेगा।
क्या हम विघटन करना चाहते हैं? आर्थिक स्तर की सहायता विघटन नहीं करेगी।
आर्थिक स्तर पर पहले तो वोट बँक बनना कठिन। और बन गयी तो वह स्थायी होना संभव नहीं लगता।
मा. वैद्य जी सही कह रहे हैं।
दलित/ दलित मुस्लिम/ दलित ईसाई की बात ही गलत है
अब समय आ गया है की किसी भी आरक्षण व्यस्था को ख़त किया जाये
यह aarakshiton के आत्मसम्मान के विरुद्ध भी है
आर्थिउक रूप से आरक्षण पिछड़ों को दिया जा सकता ही पर केवल ईई अवं इव गर्दे नौकरी में – ऊपर की नौकरी और प्रोन्नति में किसी को नहीं दी जानी चाहिए
पर बिल्ली को घंटी बंधे कौन? कोई दल तैयार नहीं होगा
धर्म जाती को नहीं माननेवाला , अर्थ पर अनर्थ तक विचार करनेवाला समाजवादी वा साम्यवादी भी नहीं
आदरणीय वैद्य जी ,
आपका विश्लेषण एक दम सही है. दलित हिन्दुओं का मत परिवर्तन यह कह कर करवाया था कि इस्लाम /Christianity में जाति प्रथा नहीं है .राजनेताओं को न इतिहास से कुछ लेना है न कुछ सच्चाई से. उन्हें तो बस वोट चाहिए .