राकेश कुमार आर्य
देश की संसद के मानसून सत्र को कोयला की कालिमा लील गयी है। हमने इस सत्र में भी वही पुराना शोर-शराबा, नारेबाजी और आरोप-प्रत्यारोप का दौर देखा। किसी सकारात्मक सोच के साथ परस्पर सौहार्दपूर्ण सामंजस्य स्थापित करके एक सकारात्मक निर्णय पर पहुंचने की पहल पक्ष-विपक्ष में से किसी ने भी नही की है। पीआरएस लैजिस्लेटिव रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार विगत 24 अगस्त तक लोकसभा के कामकाज के घंटों का 62 प्रतिशत हिस्सा गतिरोध में समाप्त हो गया। निर्धारित किये गये 60 घंटों में से सदन 22.57 घंटे चल सका। इसी प्रकार राज्य सभा का 51 प्रतिशत हिस्सा नष्टï हो गया।
संसद के 2012 के बजट सत्र में लोकसभा में 30 बिल पेश किये जाने थे लेकिन समय को हमारे मान्यवरों ने व्यर्थ की बातों में खोया और लोकसभा में केवल 17 विधेयक ही पेश किये जा सके। इसी प्रकार 39 विधेयक पास होने थे जिनमें से 12 विधेयक ही पास हो सके। अब तनिक विचार कीजिए कि जब हम अपनी मांगों के समर्थन में रोड जाम करते हैं, तो क्या उस समय रोड जाम में फ ंसी गाडिय़ों का डीजल पेट्रोल ही अधिक फुंकता है या शासन व प्रशासन पर दबाव बनाने में ही हम सफल हो पाते हैं? अथवा इन दोनों बातों से अलग हटकर भी कुछ नुकसान होता है।
सचमुच नुकसान होता है, और वह ऐसा नुकसान होता है जो कभी भी प्रकाश में नही लाया जाता। ‘मौन बलिदानों’ को हमने राष्ट्रीय इतिहास से ही ओझल नही किया है बल्कि हम उन्हें प्रतिदिन के जीवन में भी ओझल करते हैं। ‘मौन बलिदानों’ की उपेक्षा करना हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया लगता है। रोड जाम में कितने ही छात्र फंसे और उनकी परीक्षाएं छूट गयीं, कितने ही अभ्यर्थी फंसे और उनका इंटरव्यू उनसे सदा सदा के लिए छूट गया, कितने ही रोगी फंसे और उनसे उनकी सांसें सदा के लिए छूट गयीं, कितनों के ही परिजन बिछड़ गये। कितने ही लोग जाम में क्या फंसे रात को अपने आशियाने पर पहुंचने में विलंब हुआ और अंधेरे में उनके साथ ऐसी घटना घटी कि आज तक वह उसे भूल नही पाए। जनहित के नाम पर जनहितों के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ सिद्घ होते हैं-रोड जाम। लेकिन राजनीति ने इसे आज भी अपना एक हथियार बना रखा है। किसी के पास समय नही है कि इस हथियार की उपयोगिता और प्रामाणिकता पर विचार किया जाए। यही स्थिति देश की संसद की है। देश की संसद दीखने में तो एक छोटा सा सभागार है, लेकिन वास्तव में तो यह सभागार उतना ही बड़ा है जितना कि इस देश का विस्तार है, इस सभागार की भावना उतनी ही व्यापक है जितनी कि इस भारतीय राष्ट्र की भावनाएं व्यापक और असीमित हैं। एक छोटी सी सड़क के जाम होने से यदि जनहित को क्षति उठानी पड़ती है तो संसद के जाम होने से भी कितनी भारी क्षति देश को उठानी पड़ती होगी-यह भी विचारणीय है। देश के सुदूर देहात में बैठा एक किसान अपने खेत के लिए पानी बिजली की सुविधा संबंधी बिल के पास होने की प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता से करता है पर जब उसे पता चलता है संसद के शोर शराबों के कारण यह बिल या प्रस्ताव इस बार पेश नही हो पाया तो उसके दिल पर जो गुजरती है, उसे बस वही जानता है। यही स्थिति देश के हर क्षेत्र के हर आंचल के निवासियों की अपनी-अपनी भावनाओं और अपनी अपनी अपेक्षाओं की होती है। संसद के कीमती समय पर संसद पर होने वाला आर्थिक व्यय ही इस बात की गणना कराने में समर्थ नही है कि संसद की एक मिनट कितनी कीमती है, बल्कि संसद की एक मिनट देश के सवा अरब लोगों की भावनाओं की पूर्ति और अपेक्षाओं पर खरा उतरने के दृष्टिकोण से कितनी महत्वपूर्ण और कीमती है इस दृष्टिकोण से आंकलन किया जाना चाहिए।
देश की संसद के सत्र के प्रति हमारे माननीयों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार बड़ा कष्टप्रद है। विधेयकों के पेश होने के समय भी 543 लोकसभा सदस्यों में से 40-45 सदस्य ही उपस्थित होते हैं। शेष क्या कर रहे होते हैं कुछ पता नही। संसद के प्रति ऐसा उपेक्षापूर्ण व्यवहार लोकतंत्र के लिए घातक है। एक अध्ययन के अनुसार जीडीपी विकास दर भी संसद के रोज रोज के शोर शराबे से प्रभावित होती है। यदि जीडीपी में एक प्रतिशत की कमी आ जाए तो अर्थव्यवस्था को 90000 करोड़ की चपत लगती है, जबकि राजस्व आय में भी 15000 करोड़ रूपये की क्षति होती है।
इस क्षति को हम मौन बलिदानों की श्रेणी में रखकर उपेक्षित कर जाते हैं। संसद में सत्तापक्ष निरंकुश हाथी का सा व्यवहार करता है जबकि विपक्ष अडंगे का प्रयोग एक हथियार के रूप में करता है। इसी से रोड जाम की सी स्थिति देश की संसद में होती है जिससे पूरा देश ही जाम में फंसकर रह जाता है। यदि सत्तापक्ष विपक्ष के बोलने का सम्मान करने लगे औंर विपक्ष राष्ट्रहित में सत्तापक्ष का समर्थन करना सीख जाए तो हम इस स्थिति में उबर सकते हैं, लेकिन जिस देश की संसद में देश के मूल्यों के मर्मज्ञ विद्वानों को घुसने से ही ‘लोकतंत्र के गुण्डे’ रोक दें, और जिस देश में देशहित की कुर्बानी देकर दलगत हितों के लिए लड़ा जाता है, उससे यह आशा कैसे की जा सकती है कि वहां देशहित पर दोनों पक्ष मिलकर चलेंगे?
मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनाकर कांग्रेस ने एक ‘शरीफ आदमी’ की ओट में शिकार खेलना आरंभ कर दिया, शिकार से कांग्रेस देश का ‘मोटा माल’ काट रही है। शरीफ आदमी को बदनसीब और बेशर्म बनाकर रख दिया गया है। सारा देश तमाशा देख रहा है-संसद जाम है पर कांग्रेस को शर्म नही आ रही है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे अपने विशेषज्ञों को लगायें कि संसद के मानसून सत्र के जाम रहने से देश में कितना भ्रष्टाचार हो गया? क्या ही अच्छा हो कि हमारी राजनीति और राजनीतिज्ञ समय रहते चेत जाएं और इस बात का आंकलन कर लें कि उनकी गतिविधियों से या कार्यशैली से राष्ट्र का कितना अहित हो रहा है। आज मनमोहन सिंह सरकार भ्रष्टाचार की जिस दल दल में फंसी खड़ी है उसमें मनमोहन सिंह एक ऐसे नक्षत्र बन गये हैं जहां अपनी कक्षा में सर्वत्र वह स्वयं ही दीखते हैं, उनके ऊपर उपग्रह उन्हीं के मुखौटे के पीछे छिपे हुए हैं। इसलिए मनमोहन सिंह इस समय देश के लोगों की ईष्र्या और घृणा का पात्र बन गये हैं।
कसाब की फांसी…..
इन दोनों महामानवों का चरित्र राष्ट्र धर्म के समिष्टïवादी स्वरूप से निर्मित है और यह समष्टिवाद ही भारत के राष्ट्रधर्म का प्राणतत्व है। परंतु इस समष्टिवादी राष्ट्रधर्म की व्याख्या को इतना लचीला बना देना कि उससे आतंकी लाभ उठायें और शांतिप्रिय लोग उससे भयभीत होने लगें तो यह स्थिति आत्मप्रवंचना ही कही जाएगी। शासन की नीतियों में कठोरता और लचीलेपन का सम्मिश्रण होना चाहिए। केवल कठोरता का प्रदर्शन शासन को तानाशाह बना देता है और जनता उससे दूर हो जाती है जबकि केवल लचीलापन शासन को दुर्बल बना देता है।
कठोर शासन में भले लोग आतंकित रहते हैं, तो लचीले शासन में भले लोग चोर बनने लगते हैं। क्योंकि तब वह भ्रष्टाचारियों को भ्रष्टाचार के बल पर मौज करते देखते हैं और सोचते हैं कि जब इनका कुछ नही बिगड़ रहा तो हमारा क्या बिगड़ेगा? इसलिए क्यों न भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाकर मोतियों की खोज की जाए। भारत में वर्तमान में जो स्थिति बनी हुई है उसके लिए भारत के दुर्बल शासन की लचीली नीतियां ही उत्तरदायी हैं।
कसाब जैसे लोग भारत में प्रवेश करें और यहां निरपराध लोगों की हत्याएं करें-उन हत्याओं को आतंकी को फांसी की सजा पूरा नही कर सकती। पड़ोसी देशों को आतंकित करना भी हमारा उद्देश्य नही हो सकता। परंतु पड़ोसी देशों को हमारी एकता और अखण्डता से खेलने का अधिकार भी नही हो सकता और यदि वह ऐसा कर रहे हैं और बार-बार कर रहे हैं तो हमें अपनी विदेश नीति की समीक्षा करनी ही होगी। कसाब का हिसाब तो न्यायालय ने कर दिया है लेकिन फिर कोई कसाब ना हो ये देखना तो सरकार का ही काम है। सरकार कसाब को जल्दी फांसी दे। देश अब ये ही चाहता है।