प्रत्येक पर्व एवं त्योहार हमारी जीवन-यात्रा के लिए कुछ न कुछ प्रकृति प्रेम का संदेश लेकर आता है. भारत में मेलों और उत्सवों का उदय भी इसी का क्रमबद्ध रुप था और ये मेले और उत्सव प्रकृति की गोद में, नदी के किनारे या खेती से प्राप्त लाभ की उमंग के रुप में उदय हुए और सामूहिक रुप से इकठ्ठे होकर, मनोरंजन के साधन तथा सामाजिक मेल-मिलाप के माध्यम भी बने.
त्योहारॊं की श्रृखंला में एक ऎसा ही मनभावन त्योहार है दीपावली. इस त्योहार को पूरे देश मे बडी ही श्रृद्धा एवं उल्ल्हास के साथ मनाया जाता है. दीपावली से दो दिन पूर्व से ही धनतेरस, नरक चौदस, दीपावली, अन्नकूट एवं गोवर्धन पूजन मनाए जाने की परंपरा है. दीपावली पूजन के ठीक दूसरे ही दिन अहीरों की टोली अपनी पारम्परिक वेषभूषा में नृत्य करते देखे जा सकते है. ढोलक की थाप पर एवं बांसुरी की तान पर, आप इन्हें मस्ती में नाचते-गाते देखते हैं. यह सब क्यों होता है, और क्यों किया जा रहा है, इसे जानने के लिए हमें थोडा इतिहास में जाना होगा.
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है. इस दिन गोवर्धन की पूजा कर अन्नकूट उत्सव मनाया जाता है. इससे भगवान विष्णु की प्रसन्नता प्राप्त होती है.
“कार्तिकस्य सिते पक्षे अन्नकूटं समाचरेत !
गोवर्धनोत्सवं चैव श्रीविष्णुः प्रीयतामिति!!
इस दिन प्रातःकाल घर के द्वार देश में गौ के गोबर का गोवर्धन बनाकर तथा उसे शिखरयुक्त बनाकर वृक्ष-शाखादि से संयुक्त और पुष्पों से सजाया जाता है. इसके बाद गन्ध पुष्पादि से गोवर्धन भगवान का विधिपूर्वक पूजन किया जाता है. तथा यथा सामर्थ्य भोग लगाया जाता है. मन्दिरों में विविध प्रकार के पकवान, मिठाइयां नमकीन और अनेक प्रकार की सब्जियाँ, मेवे फ़ल आदि भगवान के समक्ष सजाए जाते हैं तथा अन्नकूट का भॊग लगाकर आरती होती है फ़िर भक्तों में प्रसाद वितरण किया जाता है. काशी, मथुरा, रुन्दावन, गोकुल, बरसाना, नाथद्वारा आदि भारत के प्रमुख मन्दिरों में लड्डुऒं तथा पकवानों के पहाड(कूट) बनाए जाते है, द्वापर में वृज में अन्नकूट के दिन इन्द्र की पूजा होती थी. श्रीकृष्णजी ने गोप-ग्वालों को समझाया कि गाएं और गोवर्धन प्रत्यक्ष देवता हैं. अतः इनकी पूजा होनी चाहिये,क्योंकि इन्द्र तो यहाँ कभी दिखायी नहीं देते और न ही आप लोगों के द्वारा बनाये गये पकवान ही ग्रहण करते है. भगवान की प्रेरणा से बृजवासियों ने गोवर्धन पर्वत का पूजन किया और स्वयं गोवर्धन का रुप धारणकर पकवानों को ग्रहण किया.
जब इन्द्र को इस बात का पता चला तो वे अत्यन्त ही क्रोधित हुए और प्रलयकाल के सदृश मुसलाधार वृष्टि कराने लगे. यह देख श्रीकृष्णजी ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अँगुली पर धारण किया, उसके नीचे सब वृजवासी, ग्वालबाल, गायें-बछडे आदि आ गये. लगातार सात दिन तक वर्षा होती रही ,लेकिन वे कुछ नहीं बिगाड पाये. इन्द्र को इससे बडी ग्लानि हुई. तब ब्रह्माजी ने इन्द्र को श्रीकृष्ण के परब्रम्ह परमात्मा होने की बात बतलायी, तो लज्जित हो इन्द्र ने बृज आकर क्षमा मांगी. बृजवासियों ने मिलकर मांगलिक गीत गाये और जमकर नृत्य किया. अहीरों के नृत्य करने के पीछे यह भी एक कारण हो सकता है. श्रीकृष्णजी का जन्म ऎसे समय में हुआ था, जब धरती कंस के अत्याचार से कांप रही थी.
जन्म के साथ ही एक-एक असुरों कॊ मारना, वन में गौवें चराने जाना, दधी-माखन के बेचे जाने का विरोध कर, मटकियों का फ़ोडना, माखन चुराकर खाना, ग्वालबालाओं के साथ नृत्य करना, कालियादह से कालिया नाग को वहाँ से मार भगाना आदि-आदि घटनाओं पर यदि हम विचार करें तो भगवान श्रीकृष्णजी की पर्यावरण के प्रति सजगता एवं उनके रक्षण एवं संवर्धन की दृष्टि को समझा जा सकता है. आज विकास के नाम पर प्रकृति का विनाश होते हुए हम देख रहे हैं और भयावह परेशानियों के दौर से गुजर भी रहे हैं. अगर हमारा यह क्रम जारी रहा तो दुर्दिन आने में वक्त नहीं लगेगा. अहीरॊं के नृत्य के पीछे, इस प्रकृति- प्रेम की भावना को समझा जाना चाहिए.
श्रीकृष्ण व्यावहारिक दार्शनिक थे. जन्म की पहली रात से जीवन की अंतिम घडी तक, वे पूर्ण परिपक्व बने रहे. विशेषताओं के रत्नाकर, श्रीकृष्ण के जीवन के, जिस भी पक्ष को हम छुएं,वह मणि की तरह चमकदार ही दिखता है. आज का समय कलियुग का युग है कलियुग को सामान्य रुप से विपरीत काल, प्रतिकूल स्थितियां ,परेशानियों तथा, संकट का दूसरा रुप माना जा सकता है. श्रीकृष्ण ने कलियुग को इनसे निकालकर, एक ऎसी जीवन शैली का रुप दिया, जो वर्तमान के लिए सबक का विषय है.
बचपन में लीलाओ का वैचित्र्य, जवानी में द्वारकाधीश का पराक्रम, प्रौढावस्था में योगेश्वर का चिन्तन तथा वृद्धावस्था में श्रीकृष्ण के विवादास्पद निर्णय,अधिक नए-नए विचार देने वाले रहे. इस अद्भुत समाधानकारी व्यक्तित्व को, सदैव प्रश्नॊं के घेरे मे खडा किया गया .दो सवाल आज भी हमें उलझनॊं मे डालने के लिए पर्याप्त है कि उन्होने बचपन में महारास और बाद की आयु मे महाभारत क्यों कराया ?.क्या कभी आपने इस विषय पर गंभीरता से विचार किया है ? मेरा अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार मेरा अपना मत है कि बचपन में बालकॊं का हृदय स्वच्छ-साफ़ और सरल होता है. यदि वे मिलकर नृत्य करते है तो उसमे कृत्रिमता कहीं नहीं होती,.क्योकि वे जो कुछ भी सोचते और करते हैं उसमें हृदय प्रमुख होता है. उसमे बुद्धि का कहीं भी योगदान नहीं रहता. अतः उनके द्वारा किया गया हर कार्य, भले ही वह नृत्य ही क्यों न हो, उसमे बनावटीपन नहीं होता. उनके नृत्य में वे कोमल भाव सदैव उपस्थित रहते है. यहाँ नाटकीयता का प्रयोग नहीं के बराबर है .बच्चा जब जवान होने लगता है तो उसकी बाल- सुलभ हरकतॊं मे अन्तर आने लगता है. वह हर कार्य दिल से न करते हुए बुद्धि से करने लगता है और उसमे कृत्रिमता आने लगती है .फ़िर बाललीलाओं में मधुरता का चरम जो होता है. अतः श्रीकृष्णजी ने बचपन में महारास लीलाएं कीं. उनके नाचने के साथ केवल बृज ही नही नाचा बल्कि विश्व भी उनके साथ नृत्य करने लगा था.
युवावस्था में प्रवेश करते ही बुद्धि अपना काम करने लगती है. उसमें इतनी समझ विकसित हो जाती है कि वह अच्छे और बुरे मे फ़र्क महसुस करने लगता है. पाप क्या है और पुण्य क्या है, इसे समझने लगता है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उसकी बुद्धि, निर्णय करने की क्षमता विकसित हो चुकी होती है..उन्होने देखा कि कौरव, पाण्डवों के साथ सही न्याय नहीं कर रहे हैं , तब उन्होंने इसका फ़ैसला युद्ध के जरिये करने का विकल्प खोज निकाला.
ऎसा भी नहीं था कि पूरी प्रजा को उन्होने युद्ध मे झोंक दिया. युद्ध से पहले वे स्वयं शांतिदूत बनकर गये और सभी पहलुओं पर विस्तार से अपनी बात रखी. मैं समझता हूँ कि बढती उम्र मे नृत्य नहीं, बल्कि महाभारत ही हो सकता है . यह बात हमें ध्यान मे रखना होगा. इसी महाभारत के नेतृत्व के कारण हम उन्हें एक विशिष्ट स्थान पर खडा पाते है. मित्रों, बात स्पष्ट है कि जब नृत्य अपने चरम पर जा पहुँचता है तो वह महारस मे तब्दील हो जाता है. आज की तिथि में हमें नृत्य को उस चरम तक पहुँचाना है, जो महारस मे बदल जाए. केवल हम ही नहीं नाचें, बल्कि हमारे साथ समूचा विश्व नाचने लगे और नाचने लगे जड-चेतन भी. इस बात पर भी हमें गंभीरता से सोचना होगा.
जमुना के तट पर बैठ करबासुंरी बजाना, गाय चरना, भोली-भाली गोपियों के साथ नाचना, बडे-बडे सुरमाओं को धूल चटाते कृष्ण को समझ पाना यदि कठिन नहीं है, तो सरल भी नहीं है. आज अपने आपको श्रीकृष्ण के वंशज होने का दावा करने वाले सभी यदुवंशियों को इस बात पर गहनता से अध्ययन करना होगा, कि क्या वे उस दिव्यता का एक अंश भी अपने जीवन में उतार पाने में कहाँ तक सफ़ल हो पाए हैं ? हम थोडा यहाँ उन्हें समझते चलें.
ज्ञानक्रांति के उदघोषक के रुप में वे गीताकार हैं. उनके ज्ञान की इस प्रखर और प्रबल धारा का लोहा सारा संसार मानता है. नैतिकक्रांति ,भावनात्मक नवनिर्माण के लिए वे भक्तिरस के संचारक हैं. उनकी भक्तवत्सल, लोकहित के लिए समर्पित भाव को कोई नकार नहीं सकता.
सामाजिक क्रान्ति-नायक के रुप में, वे वृज में गोरस सत्याग्रह से लेकर, महाभारत तक का संचालन किया. इन सबके पीछे उनके दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति-संवर्धन का, युगधर्म की स्थापना का, सुदृढ संकल्प कार्य करता दिखाई देता है. सामाजिक कार्यक्रमॊं के रुप में उन्होंने अनेक अभियान चलाए , उन्हें यहाँ आज समझने की ज्यादा जरुरत है.
श्रीकृष्णजी के अग्रज बलराम हलधर कहलाए तथा वे स्वयं गोपाल कहलाए. इस संबोद्धन के पीछे उनकी विशेष मंशा झलकती है. भारत कृषिप्रधान देश है. यहाँ की उपजाऊ भुमि में अन्न, फ़ल से लेकर औषधियों, वनस्पतियों की अटूट संपदा उपजती है इसी संपदा को विकसित कराने की साधना का नाम कृषि और उक्त साधना मे निष्ठापूर्वक लगे रहने वाले साधक का नाम कृषक है. कृषक यानी हलधर. गोपाल के बगैर हलधर और हलधर के बगैर गोपाल की कल्पना कैसे की जा सकती है ? आज स्थूल पर्यावरण एवं सूक्ष्म मानवीय संवेदना, दोनो के संरक्षण एवं विकास के लिए गोपालवृत्ति आवश्यक हो गयी है. हम आज गोपाल के गूढ अर्थ को भूल गये है तथा पहले दूध व्यापार और फ़िर मांस व्यापार से सम्पन्न बनने के क्रूर प्रयास करने लगे. इस भ्रम में हम पशुधन के प्रति तो क्रूर बने ही, पर्यावरण और मानवीय संवेदनॊं के हनन में भी हमें संकोच नहीं रह गया है.
गोरस आंदोलन: भगवान श्रीकृष्ण ने धन के लोभ मे गोरस बेचे जाने के विरुद्ध, बृज में सबसे पहले सत्याग्रह छेडा था. धन के लोभ में बछ्डॊं और बालकों को गोरस से वंचित करके उसे राक्षसों को उपलब्ध कराने का कडा विरोध किया था. मटकी फ़ोड उसी आन्दोलन का एक अंग था. गॊपूजन जैसी भावभरी परिपाटियाँ उन्होनें चलायीं थीं. आज की परिस्थितियों में, हमें उसी तथ्य को समझना तथा समझाना होगा . फिर आज देश में, ऊर्जा की बडी समस्या है. पशुधन से प्राप्त गोबर से उपयोगी बायोगैस तथा कीमती खाद का भली-भांति उपयोग में लेने का क्रम बना लिया जाय, तो उससे पर्यावरण बिगडने के स्थान पर, पर्यावरण-संवर्धन का लाभ उठाया जा सकता है. गोबर, गोमूत्र में खरपतवार को जैव खाद मे बदलने की अद्भुत क्षमता होती है. वह अपने से १० गुने खरपतवार को उपयोगी उर्वरक के रुप मे बदल सकता है. गाय के दूध, दही , घृत से लेकर गोबर, गोमूत्र, चर्म और हड्डियों तक में औषधीय गुण पाये जाते है. यदि हम इनका महत्व समझ लें तो देश के पर्यावरण, आर्थिक-स्वावलम्बन, आरोग्य, कृषि विकास तथा मानवीय संवेदनाओं के संरक्षण-संवर्धन की दिशा में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं.
हमने आपने दीपावली के समय टी.वी पर देखा है कि करोडों मन खोया , जो नकली दूध से बनाया गया था, अधिकारियों ने जमीन मे दफ़न किया और हजारों लीटर नकली दूध, नालियों में बहाया गया. कभी सोचा है आपने कि हम केवल धन कमाने की लालच मे कितना आगे बढ गये है कि हमे अपने ही देशवाशियों की जान की परवाह नही है? पशुधन की स्थिति भी आज किसी से छिपी नहीं है. आज सबसे ज्यादा जबाबदारी उस समाज की है जो अपने आपको गोपालक – अथवा अहीर कहलाने पर गर्व महसूस करता है. और गर्व महसूस करता है कि वह श्रीकृष्ण का वंशज है, एक श्वेत क्रान्ति लाने मे उसे आगे आना होगा.
अपने मन की पीडा मैं यहाँ उजागर करना चाहूँगा कि वर्तमान समय में जो नर्तक दल अपनी पारम्परिक वेषभूषा मे गली-गली घूमता है, वह मुझे प्रीतिकर नहीं लगता. लोगों के मन में अब वह सम्मान नहीं रह गया है जो पहले कभी देखने को मिलता था. अतः स्थानीय समिति को चाहिए कि वह नृत्यमंडलियों के बीच स्पर्धा का आयोजन करवाये और पुरस्कार में उन्हें नगद राशि के अलावा भेंट मे सुखसागर-गीता या अन्य ग्रंथ जो श्रीकृष्ण की लीलाओं को विस्तार से बतलाता हो, दिया जाना चाहिए.
इस दिशा में हमने एक प्रयोग यहाँ छिन्दवाडा में किया. छ्ट के दिन मढई मेले मे जिले के आसपास की नृत्य मंडलियों को आमंत्रित किया. उनके बीच स्पर्धा करवाई गई और उन्हें पुरस्कृत किया. हालांकि ऎसे आयोजन पूर्व में भी होते रहे है. लेकिन इस साल हमने इस जिले के प्रख्यात जनलोकप्रिय सांसद एवं शहरी विकास मंत्री माननीय श्री कमलनाथजी को आमंत्रित किया. उन्होने इस मढई मेले में, सिर्फ़ शिरकत ही नहीं की बल्कि अहीरॊं के पारम्परिक पोषाक को भी पहना और घोषणा की कि आने वाले समय में इसे और भी भव्य रुप मे मनाने और शरीक होने का आश्वासन भी दिया. श्रीकॄष्ण मंदिर निर्माण में वे काफ़ीसमय पूर्व, पाँच लाख की राशि भी प्रदत्त कर चुके हैं. एक विशाल मंदिर की आधारशिला रखी जा चुकी है जिसके निर्माण में वे अपना पूरा सहयोग देने के लिए भी तत्पर है, इसकी उन्होने घोषणा वे कर चुके हैं.
भगवत गीता का घर- घर में पाठ हो,लोगों में नैतिकता का प्रकाश फ़ैले, लोग सदाचारी बनें और श्रीकृष्ण के अनुयायी बनें, इस विचार धारा को जन-जन तक पहुँचाने के लिए यहाँ गीता प्रतिष्टान्न नामक संस्था का गठन किया गया. श्रीयुत केशवप्रसाद तिवारी, पूर्व जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने इस पुनीत कार्य के लिए अध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया और विगत पाँच साल से यह संस्था नियमित रुप से प्रति रविवार , दिन के नौ बजे से गीता पाठ करवाती है. इसमें बडी संख्या में लोग इकठ्ठे होते हैं और अपने जीवन कॊ धन्य बनाते हैं. जल्दी ही यहाँ गीता मन्दिर का निर्माण भी होने जा रहा है. श्री काबराजी ने मन्दिर निर्माण में भूमि दान में दी है. इसी तरह अन्य जिलों तथा गाँवो में इसका विस्तार किया जाना, मैं आवश्यक समझता हूँ.
मंदिर तो बनते रहेगे, लेकिन हमे अपने मन में एक ऎसे मन्दिर को भी आकार देना होगा, जिसमें हमारे जगदीश्वर आकर विराजें. जब मन में ईश्वर का वास हो जाता है, तो भय दूर भाग खडा होता है. अतः हम ऎसा कार्य नहीं करे जिससे हम खुद ही अपनी नजरों में गिर जाएं. देर सबेर कृष्ण आप में उतरेंगे, लेकिन इसके लिए हमारे मंदिर का हर कोना पवित्र एवं सुवासित होना जरूरी है. वह हमे दिखाई भी पडेगें, बशर्ते हमारी दृष्टि, उस अर्जुन की तरह होनी चाहिए. यह दृष्टि अर्जुन को तब मिली थी जब उसने उन पर भरोसा किया. जिस दिन हमें उन पर इतना भरोसा हो जाएगा, सच मानिए हमें यह कहने की जरुरत ही नहीं पडेगी कि “बडी देर भई नन्दलाला”. तब नंदलाल हमारे साथ होगे, हर पल, हर संकट में.