हे दिव्य प्रेम की शिखर मूर्ति
तुम ही हो जननी
भगिनी तुम्हीं
तुम्हीं हो पत्नी
पुत्री तुम्हीं।
हे कोटि कंठों का दिव्य गान
तुम ही हो भक्ति
शक्ति तुम्हीं
तुम ही हो रिद्धि
सिद्धि तुम्हीं
तुम ही हो शान्ति
क्रान्ति तुम्हीं
तुम ही हो धृति
कृति तुम्हीं
तुम ही हो मृत्यु
सृष्टि तुम्हीं
तुम ही हो मेधा
कृति तुम्हीं
ऐश्वर्य तुम्हीं
सौन्दर्य तुम्हीं
तुम ही श्री हो
स्मृति तुम्हीं।
हे कोटि जनों की दिव्य श्रद्धा
तुम ही हो दुर्गा
लक्ष्मी तुम्हीं
तुम सरस्वती
गायत्री तुम्हीं।
हो पूजित सर्वाधिक तुम ही
हो भारत माता रूप तुम्हीं।
वन्दे मातरम! वन्दे मातरम!
आपकी यह अति-सुन्दर व संवेदनशील कविता भारत ही नहीं अपितु आदर्श नारी के अनेक रूपों का वर्णन करते हुए स्पष्ट रूप से पुनःपुनः स्त्री के पावन,पवित्र व उच्च स्थल की महिमा का गुणगान कर रही है। परन्तु कविता के साथ छपी हुई स्त्री की प्रतिलिपि शाब्दिक चित्रण पर पूर्णिमा के नवोदित चन्द्रमा पर भद्दे दाग समान है!
क्या हमारे हिन्दी-भाषीय मुद्रणालय ( इंटरनेट-based ) पारम्परिक आदर्शों को प्रदर्शित करनेवाली नारी की छवि नहीं छाप सकते है ?
वर्तमान में हर पत्र व पत्रिकाओं में इसी ‘विदेशी स्त्री’ रूप का अनन्त प्रदर्शन किया जा रहा है। क्यों?
हमारी भारत की नारी क्या अपने गौरव की महिमा को भूल चुकी है?
उसकी दृष्टि को क्या यह नहीं खलता है?
क्या अंग्रेज़ी शिक्षण के साथ वह अपना अस्तित्व,पावन व सनातन स्त्रीधर्म को भूल रही है?
साथ में ऐसे चित्र उसके मानसपटल पर आघात करते हुए उसे मृगत्ृष्ना की ओर पथभ्रष्ट करने लगी हैं।
आगे आनेवाली पीढ़ियों पर इसका कैसा परिणाम होगा?
क्या भारत में भारतीय जन अपनी संस्कृति व कलात्मक संवेदनाओं से इतने परे हो चुके हैं कि उनकी दृष्टि में यह विदेशीय व बेढंगा नहीं लगता है?
विजया पन्त
मैंने सिर्फ कविता भेजी थी, कोई चित्र नहीं. चित्र हमने आज ही देखा है. उसमें मुझे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा. उसमें मुझे एकं ऐसी बेटी दिखाई दे रही है जो सौंदर्य, शील, स्नेह और संस्कृति कि साक्षात् मूर्ति लग रही है. फिर भी चित्र पर कोई आपत्ति है तो मैं अपनी और प्रवक्ता की ओर से क्षमा मांगता हूँ. कविता की प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.