दीनदयाल जयंती पर विशेष- संस्कृतिनिष्ठा

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deendayaljiप. दीनदयाल उपाध्याय जी जनसंघ के विचारदाता थे। देश में समतामूलक समाज बनाने में प्रयासरत् पंड़ित जी ने भारतवर्ष में, धर्मराज्य जो एक असाम्प्रदायिक राज्य, उच्च विचार में एक विधान का राज्य की स्थापना की कामना की थी। उनके अनुसार धर्मराज्य अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य पर बल देने वाला राज्य है। पंडितजी के अनुसार मनुष्य के शरीर-बुद्धि-आत्मा सबका विकास हो, तभी मानव का सम्पूर्ण विकास हो सकता है। जनसंघ के राष्ट्र जीवन-दर्शन के निर्माता दीनदयाल जी का उद्देश्य स्वतंत्र भारत की पुर्नरंचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्‍व-दृष्टि प्रदान करना था।

राष्ट्रधर्म नामक पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित दीनदयाल जी के लेख ‘भारत के राष्ट्र-जीवन की समस्याएं’ में भारतीय जनता को चार विचारधाराओं- एकसंस्कृतिवाद, द्विसंस्कृतिवाद, साम्प्रदायिकतावाद तथा बहुसंस्कृतिवाद में बांटने का उल्लेख है। एकसंस्कृतिवाद का पक्ष राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (और उसके वैचारिक संगठन), पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे कांग्रेस-जन तथा अधिकांश भारतीय जनता लेती है। बहुसंस्कृतिवाद विचार से कम्युनिस्ट ग्रसित है। तीसरा पक्ष द्विसंस्कृतिवादी लोगों का है जिसमें कांग्रेस के कुछ नेता (आज के परिवेश में अधिकांश नेता) एवं मुस्लिम लीग आदि के लोग हैं। चौथा पक्ष साम्प्रदायिकतावादियों का है जिसमे मुल्ला-मौलवी आते हैं, जो पंथ के आधार पर भारत की पुनर्रचना करना चाहते हैं। संस्कृति भारत की आत्मा है। हमारी संस्कृति ही भारतीयता का संरक्षण एवं विकास कर सकेगी।

संस्कृतिनिष्ठा दीनदयाल जी के द्वारा जनसंघ के लिए निर्मित राजनैतिक जीवनदर्शन का पहला सूत्र है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ हमारी सभ्यता से प्रचलित है। भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त है। भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन है। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहेश्तभी भारत एकात्म रहेगा।

कांग्रेस शासन काल मे छपी भारतीय सरकारी राजपत्र (गजट) में यह स्पष्ट वर्णन है कि हिन्दुत्व या हिन्दुइज्म एक ही शब्द है। हमारे माननीय उच्चत्तम न्यायालय के अनुसार हिन्दुइज्म या हिन्दुत्व जीवन जीने की एक शैली है, इसलिए भारतीय संस्कृति को हिन्दुत्व के नाम से जाना जाता है। अगर हम भारतीय मूल के हिन्दु, मुसलमान और ईसाइयों की संस्कृति की बात करें तो धार्मिक रीति-रिवाजों को छोड़ इन सारे खुशी के मौकों पर साथ-साथ रहते-रहते प्राय: सबने एक-दूसरे के बहुत सारे रीति-रिवाजों, सभ्यता, कार्य-संस्कृति और तौर-तरीकों को ग्रहण किया है तथा उसे अपने व्यवहार और जीवनव्यवस्था में सम्मिलित किया। यह इन सारे धर्मो में समान है जो कि अन्य दुसरे देशों की संस्कृति से बिल्कुल भिन्न है। वास्तव में यही धर्मनिरपेक्षता एवं हिन्दू समाज की सभ्यता की तस्वीर है तथा इसे देश-विदेश में हिन्दुत्व या हिन्दुस्तानी सभ्यता या संस्कृति के नाम से जाना जाता है। यही कारण है कि भारतीय मूल के मुसलमान और इसाई सम्प्रदाय अपने को अन्य देशों के भाइयों से अलग पाते हैं ।

भारतीय संस्कृति ने सदियों से इस राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांध कर रखा है । भारतीय सभ्यता, संस्कृति, षिक्षा का विस्तार एवं प्रसार प्राचीन काल से ही एशिया महाद्वीप के हर कोने में अंकित है। इतिहास गवाह है कि भारतवासियों ने सत्ता का राजनैतिक प्रयास नहीं किया लेकिन भारतीय संस्कृति इतनी विकसित एवं उन्नत थी कि इसका स्वत: विस्तार एवं प्रसार दूर सुदूर पष्चिम देशों तक पाया गया था। इसका उजागर जावा निवासी मुसलमानों के रामायण तथा महाभारत का विधिवत् अध्ययन से होता हैं। वे रामायण और महाभारत हिन्दुओं की तरह सम्मानपूवर्क पढ़ते हैं तथा कुरान को अपना धर्म पुस्तक मानते हैं।

हमारे धार्मिक ग्रथों में यह कहा गया है कि कलियुग में ‘संघ’ अथवा एकता मे ही शक्ति समाहित है। भारतीय संस्कृति के एकतारूपी मंत्र से प्रेरित होकर जापान ने राष्ट्रवाद के सिध्दान्त पर अमल करते हुए, मात्र बीस वर्षों में अपने को विकासशील से विकसित देश की श्रेणी में दुनिया के सामने ला खड़ा किया है। अपने सभी नागरिकों को रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा वह सम्पूर्ण सामाजिक संरक्षण प्रदान किया है जिसमें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय तीनों का समावेश है, जबकि हम सामाजिक न्याय रूपी प्रलोभन देकर भी विगत 60 सालों में अपनी जनता को ऐसी एक भी सुविधा की भरपूर पूर्ति नहीं कर पाए हैं। स्पष्ट है, भारतीय संस्कृति स्वार्थपरक नहीं वरन् परमार्थ के गुणों से पूर्ण है।

आज तुष्टीकरण के नीति के तहत अधिकांश राजनैतिक पार्टियाँ द्विसंस्कृतिवाद, साम्प्रदायिकतावाद पक्षों का सर्मथन कर रही हैं, जो राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए अत्यंत घातक है। आज के परिवेश मे राजनीति केवल राज्यसत्ता के लिए नहीं, अपितु भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों तथा भारत की राष्ट्रीय संस्कृति की जीवन-प्रणाली के आधार पर वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक प्रश्नों का समाधान करने का मार्ग दिखाने के लिए भी अत्यंत आवश्यक है।

-वी. के. सिंह

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