मर चुकी हैं संवेदना नेताओं की
शिक्षकों की और चिकित्सकों की भी,
साहित्यकारों की जो सिर्फ व्यापारी है,
जिनकी नहीं मरी हैं
उनको मारने की कोशिश जारी है
क्योकि उनसे ख़तरा है व्यापारी को।
आज बात करूंगी शब्दों के सौदागर की
जो साहित्यिक व्यापारी हैं।
शब्दों के तराशते है
मरी हुई है संवेदना के साथ,
राज्य सभा की सीट या कोई पद,
इनका लक्ष्य………कोई सरकारी पद
पद मिलते ही विदेशों में हिन्दी सम्मेलन,
यहां फोटो वहां फोटो शब्दों की जोड़ी तोड़
लो जी गया काम हो गया काम
हो गया काम नाम,
पर साहित्य शून्य,
भाषा शून्य,
कल्पना शून्य,
शून्य संवेदना शून्य।
ये है उनके पूरब की संस्कृति,
जी भर कर लिखेगें
पर बच्चे कहीं संस्कृत नहीं पढ़ेंगे
आक्सफोर्ड में पढेगें
पश्चिम मे ये दिखता है…
मां बाप साथ नहीं रहते पर
समाज कितना संवेंदनशील है
शील है ये नहीं दिखता!
दिखते हैं उनके छोटे कपड़े।
संवेदनशीलता के नाम पर डालेंगे
किसी अख़बार ओढ़े
बच्चे की तस्वीर
कंबल नहीं डालेंगे
डालेंगे तो उसका एक चित्र,
सोशल मीडिया पर होगा।
वाह वाह, लाइक
लो हो गयी पैसा वसूल
संवेदनात्मक अभिव्यक्ति।