हमारी हिन्दी के शिखर पुरुष का जाना

0
218

 ललित गर्ग 

हिंदी का एक मौन साधक, महर्षि, मनीषी, जिसके आगे हर हिंदी प्रेमी नतमस्तक है, जिसके कर्म से हिन्दी भाषा समृद्ध बनी, ऐसे सजग हिन्दीचेता, महान् रचनाकार एवं समन्वयवादी-जुनूनी व्यक्तित्व श्री अरविन्दकुमार का गत सप्ताह मौन हो जाना, हिन्दी भाषा एवं सृजन-संसार की एक अपूरणीय क्षति है। उन जैसा हिन्दी भाषा का तपस्वी ऋषि आज की तारीख में हिंदी में कोई दूसरा नहीं है। दसवें दशक की उम्र में आज भी वह हिंदी के लिए जी-जान लगाये हुए थे। रोज छः से आठ घंटे काम करते थे, कंप्यूटर पर माउस और की बोर्ड के साथ उनकी अंगुलियां नाचती रहती थी हिन्दी भाषा को समृद्ध एवं शक्तिशाली बनाने के लिये। हिन्दी को यदि उनके जैसे दो-चार शब्द-शिल्पी और मिल जाते तो हिंदी के माथे से उपेक्षा का दंश हट जाता और वह दुनिया की प्रथम भाषा होने के साथ भारत की राष्ट्र-भाषा होने के गौरव को पा लेती।
अरविंद कुमार ने हिंदी थिसारस की रचना का जो विशाल, मौलिक, सार्थक और श्रमसाध्य कार्य किया है, उसने हिंदी को विश्व की सर्वाधिक विकसित भाषाओं के समकक्ष लाकर खड़ा किया है। उनका यह प्रयास न सिर्फ अद्भुत है, स्तुत्य है और चमत्कार-सरीखा है। निश्चित ही वे शब्दाचार्य थे, शब्द ऋषि थे, तभी हिंदी अकादमी, दिल्ली ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2010-2011 के हिंदी अकादमी शलाका सम्मान से सम्मानित किया था। हिन्दी भाषा के लिये कुछ अनूठा एवं विलक्षण करने के लिये उम्र को अरविन्दकुमार ने बाधा नहीं बनने दिया, यही कारण है कि उम्र की शताब्दी की ओर बढ़ते पड़ाव पर भी उन्होंने खामोशी अख्तियार नहीं की है। वह लगातार काम पर काम कर रहे हैं। अरविन्दजी हिन्दी का जो स्वरून गढऋ रहे थे, वह बिलकुल नया एवं युगानुरूप था। वे अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी को समृद्ध करना चाहते थे। उनका मानना था कि अंग्रेजी की स्पर्धा में यदि हिन्दी न खड़ी हो पाई तो हमारा सर्वस्व नष्ट हो जायेगा। इसलिये उनका नया काम थिसारस के बाद अरविंद लैक्सिकन है। आजकल हर कोई कंप्यूटर पर काम कर रहा है। किसी के पास न तो इतना समय है न धैर्य कि कोश या थिसारस के भारी भरकम पोथों के पन्ने पलटे। आज चाहिए कुछ ऐसा जो कंप्यूटर पर हो या इंटरनेट पर। अभी तक उनकी सहायता के लिए कंप्यूटर पर कोई आसान और तात्कालिक भाषाई उपकरण नहीं था। अरविंद कुमार ने यह दुविधा भी दूर कर दी थी। अरविंद लैक्सिकन दे कर। यह ई-कोश हर किसी का समय बचाने के काम आएगा।
अरविंद लैक्सिकन पर 6 लाख से ज्यादा अंग्रेजी और हिंदी अभिव्यक्तियां हैं। माउस से क्लिक कीजिए- पूरा रत्नभंडार खुल जाएगा। किसी भी एक शब्द के लिए अरविंद लैक्सिकन इंग्लिश और हिंदी पर्याय, सपर्याय और विपर्याय देता है, साथ ही देता है परिभाषा, उदाहरण, संबद्ध और विपरीतार्थी कोटियों के लिंक। उदाहरण के लिए सुंदर शब्द के इंग्लिश में 200 और हिंदी में 500 से ज्यादा पर्याय हैं। किसी एकल इंग्लिश ई-कोश के पास भी इतना विशाल डाटाबेस नहीं है। लेकिन अरविंद लैक्सिकन का सॉफ्टवेयर बड़ी आसानी से शब्द कोश, थिसॉरस और मिनी ऐनसाइक्लोपीडिया बन जाता है। इसका पूरा डाटाबेस अंतर्सांस्कृतिक है, अनेक सभ्यताओं के सामान्य ज्ञान की रचना करता है। अरविंद लैक्सिकन को माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के साथ-साथ ओपन ऑफिस में पिरोया गया है। इस का मतलब है कि आप इनमें से किसी भी एप्लीकेशन में अपने डॉक्यूमेंट पर काम कर सकते हैं। सुखद यह है कि दिल्ली सरकार के सचिवालय ने अरविंद लैक्सिकन को पूरी तरह उपयोग में ले लिया है। अरविंद कहते हैं कि शब्द मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है, प्रगति के साधन और ज्ञान-विज्ञान के भंडार हैं, शब्दों की शक्ति अनंत है। वह संस्कृत के महान व्याकरण महर्षि पतंजलि को कोट करते हैं, ‘सही तरह समझे और इस्तेमाल किए गए शब्द इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं।’ वह मार्क ट्वेन को भी कोट करते हैं, ‘सही शब्द और लगभग सही शब्द में वही अंतर है जो बिजली की चकाचैंध और जुगनू की टिमटिमाहट में होता है।’ वह बताते हैं, ‘यह जो सही शब्द है और इस सही शब्द की ही हमें अकसर तलाश रहती है।’
हिंदी और अंगरेजी के शब्दों से जूझते हुए वह जीवन में आ रहे नित नए शब्दों को अपने कोश में गूंथते रहते थे, ऐसे जैसे कोई माली हों और फूलों की माला पिरो रहे हों। ऐसे जैसे कोई कुम्हार हों और शब्दों के चाक पर नए-नए बर्तन गढ़ रहे हों। ऐसे जैसे कोई जौहरी हों और कोयले में से चुन-चुन कर हीरा चुन रहे हों। ऐसे जैसे कोई गोताखोर हों और समुद्र में गोता मार-मार कर एक-एक मोती बिन रहे हों शब्दों का। जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चों के लिए एक-एक दाना चुनती है अपनी चोंच में और फिर बच्चों की चोंच में अपनी चोंच डाल कर उन्हें वह चुना हुआ दाना खिलाती है और खुश हो जाती है। ठीक वैसे ही अरविंद कुमार एक-एक शब्द चुनते हैं और शब्दों को चुन-चुन कर अपने कोश में सहेजते थे और सहेज कर खुश हो जाते थे उस चिड़िया की तरह ही। कोई चार दशक से वह इस तपस्या में लीन थे सभी तरह की सुध-बुध खोकर। काम है कि खत्म नहीं होता और वह हैं कि थकते नहीं। वह किसी बच्चे की तरह शब्दों से खेलते रहते हैं। एक नया इतिहास बनाया और फिर दूसरा नया इतिहास बनाने चल पड़ते।
अरविन्द कुमार का जन्म 17 जनवरी 1930 को उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मेरठ के नगरपालिका विद्यालय में हुई। सन 1943 में उनका परिवार दिल्ली आ गया। यहां उन्होने मैट्रिक किया। वे अंग्रेजी साहित्य में एमए हैं। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी कुसुमकुमार के साथ मिलकर हिन्दी का प्रथम समान्तर कोश (थिसारस) रचा, उन्हांेने संसार का सबसे अद्वितीय द्विभाषी थिसारस द पेंगुइन इंग्लिश-हिन्दी-हिन्दी-इंग्लिश थिसॉरस एण्ड डिक्शनरी भी तैयार की जो अपनी तरह का एकमात्र और अद्भुत भाषाई संसाधन है। यह किसी भी शब्दकोश और थिसारस से आगे की चीज है और संसार में कोशकारिता का एक नया कीर्तिमान स्थापित करता है। इतना बड़ा और इतने अधिक शीर्षकों उपशीर्षकों वाला संयुक्त द्विभाषी थिसारस और कोश इससे पहले नहीं था।
अरविंद फिल्म पत्रिका माधुरी और सर्वोत्तम (रीडर्स डाईजेस्ट का हिन्दी संस्करण) के प्रथम संपादक थे। पत्रकारिता में उनका प्रवेश दिल्ली प्रेस समूह की पत्रिका सरिता से हुआ। कई वर्ष इसी समूह की अंग्रेजी पत्रिका कैरेवान के सहायक संपादक भी रहे। कला, नाटक और फिल्म समीक्षाओं के अतिरिक्त उनकी अनेक फुटकर कवितायें, लेख व कहानियां प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनके काव्यानुवाद शेक्सपीयर के जूलियस सीजर का मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिये इब्राहम अल्काजी के निर्देशन में हुआ। 1998 में जूलियस सीजर का मंचन अरविन्द गौड़ के निर्देशन में शेक्सपियर नाटक महोत्सव (असम) और पृथ्वी थिएटर महोत्सव, भारत पर्यावास केन्द्र (इंडिया हैबिटेट सेंटर) में अस्मिता नाट्य संस्था ने किया। अरविंद कुमार ने सिंधु घाटी सभ्यता की पृष्ठभूमि में इसी नाटक का काव्य रूपान्तर भी किया है, जिसका नाम है – विक्रम सैंधव।
‘सर्वोत्तम’ अंग्रेजी परिवेश की हिन्दी पत्रिका है, इस पत्रिका को उन्होंने अपने हिन्दी-प्रेम के कारण हिन्दी की अद्भुत पत्रिका बनाया। उसके स्तंभों के नाम, उसकी भाषा और उसके विषय इतने अनूठे हुआ करते थे कि कहीं से भी अंग्रेजी की बू नहीं आती थी। शुरू से लेकर अंत तक अपनी तमाम विशेषताओं एवं अनूठेपन के साथ-साथ चलते हुए भी वे जिस एक विशेषता को हमेशा अपने साथ रखते थे, वह था उनका भाषा ज्ञान। शब्दों की उनकी जानकारी। वे जितना जटिल काम अपने हाथ में लेते हैं, उतनी ही सफलता से उसे शिखर भी देते थे। काम के प्रति कठोर एवं क्रांतिकारी होकर भी वे अपने निजी जीवन में उतने ही सरल, उतने ही सहज और उतने ही व्यावहारिक थे, तो शायद इसलिए भी कि उनका जीवन इतना संघर्षशील रहा है कि कल्पना करना भी मुश्किल होता है कि कैसे यह आदमी बाल-मजदूरी से अपनी जीवन-यात्रा प्रारंभ कर सफलता के इन मुकामों पर पहुंचा। हिन्दी के लिये उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। आज सचमुच हिन्दी का यह शब्दशिल्पी हमसे जुदा हो गया है, तो शायद ही उनकी कमी को कोई कभी भर पाए।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here