राजनीति

लोकतन्त्र या परिवारतन्त्र?

-तरुणराज गोस्वामी

काँग्रेस गर्व कर सकती है कि भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन मेँ उसकी भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण रही हो या स्वतन्त्रता के पश्चात् उसी ने भारत पर सबसे ज्यादा समय तक राज किया हो। लेकिन विश्व के सबसे महान कहे जाने वाले लोकतंत्र में सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते काँग्रेस को अपने भीतर के लोकतंत्र को लेकर तो कठघरे में खड़ा किया ही जा सकता है। बीते मंगलवार को नई दिल्ली में अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी की बैठक के नाम पर काँग्रेस ने जिस तरह एक पंक्ति के प्रस्तावोँ पर पंक्तिबद्ध खड़े होकर अधिक्रत करने की अपनी परम्परा का निर्वाह किया, लोकतंत्र मेँ उसके विश्वास को लेकर प्रश्न करने के लिये पर्याप्त नहीँ है क्या?

15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को जवाहरलाल नेहरु द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा से लेकर मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री पद पर मनोनयन करने तक क्या काँग्रेस को गाँधी – नेहरु परिवार के अतिरिक्त किसी अन्य काँग्रेसी या कहे कि भारतीय की योग्यता पर विश्वास नहीँ रहा? ( मजबूरी मेँ उठाये गये गिनती के कुछ कदम अपवाद कहेँ जा सकते है) क्या विश्व के किसी अन्य लोकतंत्र मेँ ऐसा कोई उदाहरण है कि जहाँ कोई व्‍यक्ति किसी पार्टी का प्राथमिक सदस्य बनने के 62 दिनोँ के भीतर सौ वर्षोँ से अधिक पुरानी उस पार्टी का सर्वमान्य अध्यक्ष बन जाये? क्या किसी और लोकतंत्र मेँ ऐसा होता है कि प्रधानमंत्री , राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष और विभिन्न राज्योँ के मुख्यमंत्री जैसे सर्वोच्च पदों किसको बैठाना या उठाना है निर्णय करने के लिये एक ही व्यक्ति को अधिक्रत कर देश के महत्वपूर्ण पदों पर मनो नयन का अधिकार दे दिया जाये? क्या भारत मेँ इससे पहले या भारत के अतिरिक्त किसी और देश मेँ ऐसा हुआ या होता है कि प्रधानमंत्री के उपस्थित रहते किसी राहत पैकेज, किसी योजना की घोषणा सत्ताधारी पार्टी का सर्वशक्तिशाली अध्यक्ष करेँ? क्या किसी और लोकतंत्र का कोई ’युवराज’ निर्णय करता है कि लाखों करोड़ो नागरिकों के भरे गये टैक्स का रुपया किस योजना में कितना और कैसे खर्च करना है? क्या भारत का कोई और सांसद या नेता है जिसकी सुरक्षा पर उतना खर्च किया जाता है जितना काँग्रेस के सर्वेसर्वा परिवार के एक – एक सदस्य पर किया जाता है?

उपरोक्त प्रश्नों को पढ़ने के पश्चात् किसी के भी मन में खींची जा सकने वाली मेरी धुँधली तस्वीर को साफ़ करने की कोशिश करते हुए स्पष्ट कर दूँ कि न तो नेहरु – गाँधी परिवार के प्रति मेरा कोई व्यक्तिगत दुराग्रह है या मुझे मैडम या युवराज की खुशनसीबी से कोई ईर्ष्या है। ऐसा भी नहीँ है कि मुझे काँग्रेस पार्टी या उसके नेताओँ से कोई दुश्मनी है या ऐसा भी नहीँ है कि मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी सहित किसी भी और पार्टी में परिवारवाद का ज़ोर न हो, लेकिन फ़िर भी मुझे शर्म आती है कि एक ओर तो हम अपने आप को विश्व का सबसे महान लोकतंत्र बताते नहीं थकते और दूसरी ओर हमें एक परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति में काबिलियत नज़र नहीं आती और स्वंय को लोकतंत्र का प्रहरी बताने वाला मीडिया इस परिवार को ऐसे निरुपित करता है जैसे अल्पसँख्कों, गरीबों, पिछड़ों और आम भारतीयोँ की चिंता में ही यह परिवार जीता और मरता है लेकिन यही मीडिया नहीं बताता कि इसी परिवार के सालों सत्ता में रहने के बावजूद इन वर्गों ने क्या खोया और क्या पाया है। काँग्रेस और उसका समर्थित मीडिया तर्क दे सकता है कि नेहरु – गाँधी परिवार ने स्वतंत्रता आंदोलन और उसके पश्चात् देश के लिये बहुत योगदान दिया लेकिन क्या भारत मेँ इस वीवीआईपी परिवार के अतिरिक्त कोई और महान व्यक्तित्व नहीं जन्मा जो भारत सरकार द्वारा चलने वाली लगभग हर दूसरी तीसरी योजना का नामकरण इसी महान परिवार के सदस्यों के नाम पर है और क्या कोई ऐसा दूसरा राजनैतिक – सामाजिक परिवार है जिसके सदस्यों ने स्वतंत्रता आंदोलन और उसके पश्चात् भारत निर्माण मेँ योगदान दिया हो और उसे मीडिया द्वारा समुचित महत्व मिला हो? अपने परिवार के स्वतंत्रता आंदोलन मेँ योगदान के बदले सालों सत्ता में रहने वाले इस परिवार के सदस्य शायद ही जानते हो कि भारत की आज़ादी के लिये अँग्रेजों के डंडे खाने वाले कितने ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेंशन के लिये सरकारी दफ्तरोँ के चक्कर काटते – काटते स्वर्ग चले गये लेकिन उनके परिवार को गाँधी – नेहरु के भारत मेँ कुछ नहीँ मिला।

इटली के सामान्य से परिवार मेँ जन्मी सोनिया गाँधी के भारत की सबसे शक्तिशाली मैडम बनने तक की कहानी और बारह वर्षों तक लगातार अध्यक्ष रहने के बाद उन्हीं मैडम का पुनः काँग्रेस अध्यक्ष चुना जाना काँग्रेस का आंतरिक विषय हो सकता है लेकिन फिर भी लोकतंत्र में प्रश्न पूछने के अपने अधिकार के अन्तर्गत क्या आम भारतीय को नहीं पूछना चाहिये कि सवा सौ साल पुरानी पार्टी मेँ कोई और ऐसा व्यक्ति नहीं है जो पार्टी की कमान संभालने की कूवत रखता हो। हर पद पर मनोनयन और हर निर्णय के लिये मैडम को अधिक्रत कर चरण वंदन करने वाले काँग्रेसियोँ से तो सिर उठाने की उम्मीद करना बेमानी ही है क्योँकि उन्हेँ तो मैडम के सामने अपने नंबर बढ़वाना ही है, साथ ही साथ एक तगारी भर उठा लेने, किसी दलित के घर रात गुजारने भर के एवज में युवराज को गरीबोँ का सबसे बड़ा हमदर्द महिमामंडित कर देने वाले मीडिया से भी आशा नहीं की जा सकती कि राजनीति के इस परिवारवाद के विरुद्ध मुँह खोलेगा। नेहरु से लेकर राहुल तक केवल एक ही परिवार में अपना प्रधानमंत्री देखने वाले भारतीय समाज का कोई युवा राहुल से सवाल कर सकता है जब उनकी (राहुल की) उम्र से भी अधिक समय से काँग्रेस का झंडा उठाने वाले कार्यकर्त्ता उनके परिवार की चापलूसी करते हैं उन्हें कैसा लगता है और वे इस परम्परा पर विराम लगाने के लिये क्या कर सकते हैं? लेकिन वर्तमान राजनीति को देखते हुए लोकतंत्र पर हावी परिवारतंत्र के समाप्त होने की कोई संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती क्योँकि फिलहाल तो इस हमाम में सभी नंगे है।