संतुलन खोते लोकतंत्र के स्तंभ

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

 

हमारी लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था के चार स्तंभ हैं। विधानपालिका यानी संसद, कार्यपालिका यानी सरकार, न्यायपालिका यानी अदालत और खबरपालिका यानी अखबार और टीवी-रेडियो चैनल! क्या ये चारों स्तंभ अपना-अपना काम सही-सही कर रहे हैं? ये सब काम तो कर रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनके काम-काज में कोई बुनियादी कमी आ गई है कि या तो एक स्तंभ का काम दूसरे से लिया जा रहा है या कोई स्तंभ स्वयं इतना पस्त हो गया है कि उसका किया और अनकिया बराबर होता जा रहा है।

 

सबसे पहले हम संसद को लें। संसद में पहले असहिष्णुता की बहस चली। इससे बढ़कर नकली बहस क्या हो सकती थी? यह बहस जितने आक्रामक ढंग से चलती रही, उसी से सिद्ध हो गया कि देश बड़ा सहनशील है। ऐसी बहस क्या रूस, चीन या किसी अरब राष्ट्र में चल सकती है? इस बहस का नतीजा क्या निकला? संसद का समय खराब हुआ और बहस बिना किसी नतीजे के बंद हो गई। अब कांग्रेस पार्टी ने ‘नेशनल हेराल्ड’ और अरुणाचल के मामले को लेकर संसद को सिर पर उठा रखा है। ‘आम आदमी पार्टी’ ने वित्तमंत्री अरुण जेटली पर हमला बोल दिया है। उनके दिल्ली जिला क्रिकेट संघ अध्यक्ष रहते भ्रष्टाचार होने के आरोप मढ़े जा रहे हैं। यहां विरोधी दलों से मैं पूछना चाहूंगा कि क्या संसद सिर्फ इसीलिए है कि आप वहां बैठकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहें? संसद के विगत और वर्तमान सत्र में कितने कानून बने, कितने राष्ट्रीय मुद्‌दों पर सार्थक बहस हुई, कितना नीति-निर्माण हुआ- इन सब प्रश्नों के जवाब क्या निराशाजनक नहीं हैं?

 

आश्चर्य तो यह है कि जिस दल ने लगभग 60 साल हुकूमत चलाई, वही संसद का अवमूल्यन कर रहा है। यदि अदालत ने सोनिया, राहुल और उनके कुछ साथियों को पेश होने के लिए कह दिया तो इसमें कौन-सा अनर्थ हो गया? क्या कांग्रेस के ये नेता बाल गंगाधर तिलक, गांधी, नेहरू, सावरकर, इंदिरा गांधी और नरसिंह राव से भी बड़े हैं? इन लोगों ने अदालत के सामने पेश होने में कभी गुरेज नहीं किया? यह भी क्या राजनीति कि अदालत ने पेशी का हुक्म दिया है और आप संसद की टांग तोड़ने पर उतारू हैं। संसद ने आपका क्या बिगाड़ा है? उसे तो चलने दीजिए। आपको सरकार से लड़ना है तो लड़िए। धरने, प्रदर्शन, जुलूस, सभाएं कीजिए। आपकी इस धमकी को जनता मजाक मान रही है कि आप डरेंगी नहीं, क्योंकि आप इंदिराजी की बहू हैं। आप इंदिराजी से भी ज्यादा बहादुर हो सकती हैं, लेकिन कहां इंदिरा गांधी और कहां सोनिया गांधी? कहीं कोई तुलना है, क्या? ‘नेशनल हेराल्ड’ के मामले में यदि मां-बेटे अपराधी पाए गए तो उनके साथ अन्य निरपराध दरबारी भी जेल जाएंगे। उनमें मोतीलाल वोरा जैसे अत्यंत वयोवृद्ध और प्रतिष्ठित व्यक्ति भी हैं, लेकिन कई नौटंकीबाज नेता सलाह दे रहे हैं कि मां-बेटा जेल जरूर जाएं।

जमानत न दें। वे जमानत दें और अपना मुकदमा जमकर लड़ें तो क्या मालूम वे जीत जाएं। किंतु अगर वे यह समझ रहे हैं कि गिरफ्तार होने के बाद जैसे देश ने इंदिरा गांधी को हथेली पर उठा लिया था और प्रधानमंत्री चरणसिंह का चूरण बना दिया था, वैसा ही नरेंद्र मोदी का भी बना देगी तो वे स्वप्न-लोक में विचरण कर रहे हैं। ‘नेशनल हेराल्ड’ के मामले में आरोप व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का है, जबकि इंदिराजी का मामला राजनीतिक अतिवाद का था। यह ठीक है कि मां-बेटे के फंसने पर भाजपाइयों और मोदी को आनंद हो रहा हो, लेकिन यह कहना कि मुकदमा डाॅ. स्वामी ने मोदी के इशारे पर चलाया है, न तो तथ्यपूर्ण है और न ही तर्कपूर्ण! यह मुकदमा स्वामी ने भाजपा का सदस्य बनने और मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद की दौड़ में आने से पहले दायर किया था। यदि अदालत ने मानो मां-बेटे को सजा दे दी और कांग्रेस पार्टी इसका ठीकरा मोदी के सिर फोड़ना चाहेगी तो इसका असर उल्टा ही होगा। मोदी को मजबूती मिले या न मिले, कांग्रेस बहुत कमजोर हो जाएगी। मां-बेटे के नेतृत्व को खुली चुनौती मिलने लगेगी। निष्पक्ष लोगों को भी आश्चर्य है कि कोर्ट का नाम लिए बिना कांग्रेस का जैसा रवैया है, उसका सार यही है कि अदालत मोदी के इशारे पर मां-बेटे को तंग कर रही है। यानी कार्यपालिका (सरकार) को न्यायपालिका (अदालत) की मालकिन सिद्ध किया जा रहा है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता तो लोकतंत्र की प्राणवायु है। वही दूषित की जा रही है।

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इसी प्रकार दिल्ली की ‘आप’ सरकार अपने मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव को बचाने के लिए पता नहीं, क्या-क्या द्राविड़-प्राणायाम कर रही है। उसने खबरपालिका को निचोड़ डाला। पहले खबर चलवाई कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के दफ्तर पर छापा मारा गया है। इस खबर के फूटते ही लोगों को लगा कि मोदी ने अब केजरीवाल से बदला निकाला है, लेकिन कुछ ही घंटों में सबको मालूम पड़ गया कि श्याम के गले की घंटी राम के गले में बांध दी गई थी। मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार पर भ्रष्टाचार के पुराने आरोप थे और उस पर अदालत की अनुमति से छापा मारा गया था। मुख्यमंत्री और प्रधान सचिव, दोनों के दफ्तर पास-पास हैं। इसका फायदा उठाकर खबरपालिका को गुमराह किया गया। यदि मुख्यमंत्री में परिपक्वता होती तो वे इस छापे से खुश होते और मानते कि उस विवादास्पद अफसर से अपने आप पिंड छूटा। उनकी अपनी छवि चमक जाती। यदि वे यह मानते हैं कि उनका प्रधान सचिव बिल्कुल निर्दोष है तो उन्हें अपनी पूरी ताकत लगाकर उसकी रक्षा करनी थी, लेकिन उसके पक्ष में एक भी शब्द बोलने की बजाय वह वित्तमंत्री अरुण जेटली का भांडाफोड़ करने पर उतारू हो गए। अब आप ही बताइए कि ‘कायर’ कौन है और ‘मनोरोगी’ कौन है? वे अपने आदमी के भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए दिल्ली जिला क्रिकेट संघ के गड़े मुर्दे उखाड़ लाए। जो पार्टी भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बनी थी, वही कह रही है, मेरा भ्रष्टाचारी अच्छा है और तुम्हारा भ्रष्टाचारी बुरा है। कितनी विडंबना है कि प्रधान सचिव के जिस मुकदमे से अदालत को निपटना है, उस मुकदमे से दिल्ली की ‘आप’ सरकार निपट रही है यानी न्यायपालिका का काम कार्यपालिका करना चाह रही है। उत्तरप्रदेश के लोकायुक्त की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय कर रहा है और अरुणाचल विधानसभा को गुवाहाटी हाईकोर्ट उठक-बैठक करवा रही है।

 

जब कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका का यह हाल है तो बेचारी खबरपालिका क्या करे? जैसा चेहरा होगा, वैसा प्रतिबिंब होगा। टीवी चैनलों पर कोई गंभीर विचार-विमर्श नहीं होता। पार्टी-प्रवक्ताओं की तू-तू, मैं-मैं ने टीवी पत्रकारिता को टीबी (तीतर-बटेर) पत्रकारिता बना दिया है। इस धमाचौकड़ी से हमारे अखबार अभी तक बचे हुए हैं, लेकिन क्या हम आशा करें कि हमारे लोकतंत्र का यह दौर अल्पकालिक सिद्ध होगा और इसके चारों स्तंभ शीघ्र ही अपना-अपना काम सही-सही करने लगेंगे।

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