एक कहावत है कि सोने पर हथौड़ा गिरता है तो आभूषण बन जाता है। लेकिन यह बात शायद नरेंद्र मोदी के विरोधियों के समझ नहीं आयी और वह चुनाव के अंतिम क्षण तक मोदी पर आरोपों का हथौड़ा चलाते रहे। कभी नपुंसक कहकर अपमानित किया तो कभी कसाई जैसे शब्दों से नवाजा। शायद उनका सोचना था कि इस अमर्यादित भाषा से उनकी धर्मनिरपेक्षता परवान चढ़ेगी और वोटबैंक मजबूत होगा। लेकिन वह शायद भूल गए कि सिमटी हुई सियासत जनतंत्र के विस्तार की शर्तें तय नहीं करती। नतीजा सामने है। विरोधी जितना मोदी पर इल्जाम मढ़ते गए वह उतना ही कुंदन बने और जनता के दिलों में उतरने में कामयाब रहे। नियति के खेल में बाधा डालने की सभी कोशिशें बेकार गयी। जनता ने अपना फैसला सुना दिया है। सुदूर असम से लेकर जम्मू-कश्मीर तक मोदी के नाम पर मुहर लग गयी है और भारतीय जनता पार्टी अकेले दम पर बहुमत का आंकड़ा पार कर ली है। सहयोगी दलों समेत उसका आंकड़़ा 335 से पार पहुंच गया है। भाजपा ने उन राज्यों में भी परचम लहराया है जहां उसका कोई नामलेवा नहीं था। मसलन तमिलनाडु में खाता खोलने में सफल रही वहीं आंध्रप्रदेश में सहयोगी दलों के साथ दर्जन भर सीटें जीत ली। असम में अकेले दम पर सम्मानजनक सीटें हासिल की है। 1984 के बाद यह स्पष्ट जनादेश है, जब सरकार गठन के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों के आगे दंड बैठक नहीं करेगी और न ही गठबंधन के सहयोगियों के दबाव में काम करेगी। गौर करें तो यह चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए आपातकाल से भी बुरा साबित हुआ है।
गुजरात और राजस्थान में उसका सूपड़ा साफ हो गया है वही उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और तमिलनाडु में स्थिति पहले से भी बदतर हुई है। कहना मुश्किल है कि प्रमुख विपक्षी दल का ताज भी उसके सिर सजेगा या नहीं। कांग्रेस को उतनी भी सीटें नहीं मिलीं, जितना भारतीय जनता पार्टी को अकेले उत्तर प्रदेश में मिला है। कांग्रेस को देश के किसी भी राज्य में दस से अधिक सीटें नहीं मिली है। धर्मनिरपेक्षता का चोंगा चढ़ा रखे उन क्षेत्रीय सूरमाओं को भी पटकनी मिली है जो तीसरे मोर्चे और फेडरल फ्रंट की आड़ में मोदी की राह में रुकावट पैदाकर दिल्ली की सत्ता को कब्जियाना चाहते थे। निःसंदेह पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में जयललिता एक ताकत के रुप में उभरी हैं और अपने विरोधियों को निपटाने में सफल रही। लेफ्ट का आंगन छोटा पड़ गया है, वहीं तमिलनाडु में डीमके का खाता तक नहीं खुला है। लेकिन इसके बावजूद भी ममता और जयललिता का दिल्ली की सत्ता को समर्थन के चाबुक से हांकने का ख्वाब पूरा नहीं हुआ। याद होगा चंद रोज पहले ममता ने बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर निकालने के बयान पर मोदी को प्रधानमंत्री न बनने देने की दहाड़ लगायी थी।
मोदी को रोकने के लिए उन्होंने तमिलनाडु और ओडिशा के मुख्यमंत्री से संपर्क साधा। लेकिन यह सब प्रयास बेकार साबित हुआ। राजनीति में वैसा नहीं होता जैसा सोचा जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 17 साल पुराने भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन इसलिए तोड़ा कि बिहार के अल्पसंख्यक उनके साथ आ जाएंगे। लेकिन हसरत पूरी नहीं हुई। उनकी पार्टी जेडीयू दो सीटों पर सिमटकर रह गयी है। अब तो सरकार जाने का भी खतरा मंडराने लगा है। उत्तर प्रदेश में सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी, बसपा और रालोद को भी करारी शिकस्त मिली है। समाजवादी पार्टी को आधा दर्जन सीटें नहीं मिली है, वहीं बसपा और रालोद का खाता तक नहीं खुला। गौर करने वाली बात यह कि यह वही दल हैं जो खुद को धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सबसे बड़े झंडाबरदार बताते हैं और भाजपा एवं मोदी को गाली देने देने में सबसे आगे रहते हैं। अब जब उन्हें करारी हार मिली है तो यह कहते सुने जा रहे हैं कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की वजह से उनकी हार हुई। मुस्लिम मत बिखर गया और भाजपा जीत गयी। लेकिन यह सच नहीं है। सच तो यह है कि उनकी सांप्रदायिक राजनीति ही उन्हें ले डूबी। मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैशी होने का स्वांग ही उनकी लुटिया डूबो दी। उनकी सांप्रदायिक राजनीति ने जनता को सोचने पर मजबूर किया कि वह गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी और अशिक्षा को लेकर गंभीर नहीं है और उनका मकसद येनकेन प्रकारेन सत्ता हासिल करना है। समाजवादी सरकार को विचार करना होगा कि क्या वजह है कि ढाई साल में ही उसका शीराजा बिखर गया? आखिर जनता उस पर विष्वास क्यों नहीं की? क्या यह समझा जाए कि वह जनता की आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा नहीं उतरी? या राज्य में षांति का माहौल स्थापित नहीं किया? यह दोनों बातें सच हैं। अगर वह राज्य में कानून का राज कायम की होती और दंगे नहीं होने दिए होते तो आज उसे आधा दर्जन सीटों पर सिमटना नहीं पड़ता। अगर देश-प्रदेश की जनता ने जांति-पांति, क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता के रेशे से बुने चक्रव्यूह को भेदा है और विकास की राजनीति पर मुहर लगायी है तो वह बधाई की पात्र है। यह राजनीतिक दलों के लिए संदेश भी है कि देश-प्रदेश की जनता जाति-पाति और मजहब की राजनीति से उब चुकी है। अब उसे नफरत के घरौंदों में कैद करके नहीं रखा जा सकता। अगर भारतीय जनता पार्टी ने देश में स्थिर और मजबूत सरकार की उम्मीद को आकार दिया है और उत्तर प्रदेश में 73 सीटें जीतने में कामयाब हुई है तो यह जीत कई संदर्भों को समेटे हुए हैं। राजनीतिक दलों को अब सांप्रदायिक राजनीति की खोल से बाहर निकल विकास की राजनीति पर केंद्रीत होना चाहिए।