देश का मैदानी प्रशासन तंत्र बुरी तरह से फेल हो चुका है

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डॉ अजय खेमरिया
तथ्य एक: मप्र में पिछली बीजेपी सरकार द्वारा शुरू की गई “संबल योजना” में लगभग 80 फीसदी हितग्राहियों को हटाने की करवाई कमलनाथ सरकार कर रही है।अकेले शिवपुरी जिला मुख्यालय के नगरपालिका क्षेत्र में दर्ज 57 हजार संबल हितग्राहियों में से 50 हजार फर्जी पाए गए है।संबल में पंजीकृत लोगों को 200 रुपए महीना में घरेलु बिजली एक रुपया किलो में 35 किलो मासिक अनाज, समेत तमाम मुफ्त की योजनाओं का प्रावधान है।एक साल से ज्यादा अवधि तक योजना में प्रदेश के लाखों अपात्र लोगों ने सरकारी धन का एक तरह से दुरुपयोग किया।
तथ्य दो:प्रधानमंत्री आवास योजना के एक दलित ,दिव्यांग  हितग्राही की मौत सदमे से मप्र के करैरा तहसील परिसर में ही इसलिये हो गई क्योंकि उसके खाते में आई आवास की राशि आहरण पर ब्लाक के सीईओ ने रोक लगा रखी थी वह तहसील,जनपद ,एसडीएम, सब जगह गुहार लगा रहा था।
तथ्य तीन:ग्वालियर में कलेक्टर की जनसुनवाई में आये एक किसान ने खुद को आग लगा लगी क्योंकि उसकी जमीन पर दबंगों ने कब्जा कर रखा था वह तहसीलदार, एसडीएम, एडीएम और डीएम सब जगह गुहार लगा लगा कर परेशान था।
नजीर के तौर पर मप्र के इन तीन मामलों को महज समाचार की सुर्खियों से इतर समझने की जरूरत है।सवाल यह है क्या देश की प्रशासनिक मशीनरी पूरी तरह से फेल हो गई है ? जिस  लक्ष्य के लिये इस तंत्र का प्रावधान किया गया है क्या वह केवल समाज के कुछ लोगों के लिये जीविकोपार्जन की राज्यपोषित गारंटी मात्र बनकर रह गया है? स्थाई कार्यपालिका ने यथास्थितिवाद को ही अपना संकल्प बना लिया है।जमीनी हकीकत यही है आज भारत का निचला प्रशासनिक ढांचा पूरी तरह से जनविमुख होकर आम भारतीय के लिये बोझ बनकर रह गया है।इसे हम व्यवस्था की त्रासदी निरूपित कर सकते है क्योंकि सरकार के स्तर पर केवल सत्ता बदल रही हैं व्यवस्था में कोई बुनियादी बदलाब नही आ रहा है बल्कि तंत्र का चेहरा अनुदार,अनुत्तरदायी औऱ घोर असंवेदनशील बनकर रह गया है।सवाल यह है कि इस स्थिति के लिये जिम्मेदार है कौन?संजीदगी से विश्लेषण किया जाए तो विधायिका ,कार्यपालिका और न्यायपालिका  सरकार के इन तीनों स्तरों पर पिछले 30 साल में सर्वाधिक पतन हुआ है।सत्ता के लिये असुरक्षा की स्थाई मार से पीड़ित हमारे जनप्रतिनिधियों ने सदैव व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर जनता से वोट  हासिल करने को ही अपनी सर्वोपरि प्राथमिकता पर रखा है।नागरिकबोध के नाम पर सिर्फ मुफ्तखोरी की जीवन संस्कृति को इस हद तक उपर उठा दिया गया है कि पूरा सरकारी सिस्टम ही आज ध्वस्त नजर आता है।1976 में दी गई समाजवाद की संवैधानिक गारंटी 1991 में ही मनमोहनराज के जरिये पहले ही हिन्द महासागर में डुबो दी गई है और  देश की नई आर्थिक नीतियों की राह ने स्थानीय प्रशासन को भी गहरे से कब्जे में लिया है गरीब को लगातार गरीब बनाया रखा जाए और सरकारी तंत्र के जरिये अनाज, केरोसिन,जैसी जीवनपयोगी चीजों में 80 फीसदी लोग उलझे रहे। दूसरी तरफ स्थानीय संशाधन की लूट की सुरक्षित व्यवस्था कुछ लोगो के लिये उपलब्ध करा दी जाए जो रेत ,कोल,स्टोन, भू माफिया के रूप में प्रतिष्ठित हो। यही इस अर्थशास्त्र का मूल उद्देश्य है।स्थानीय स्तर पर हितग्राहीमूलक योजनाओं की स्थिति किसी लावारिश पड़ी वस्तु की तरह हो गई है जिस पर कब्जा सिर्फ सर्वाधिक सबल आदमी ही कर सकता है।देश भर में 50 फीसदी से ज्यादा गरीबी रेखा से नीचे के कार्ड अपात्र लोगों पर है।प्रधानमंत्री आवास योजना में वास्तविक जरूरतमंद अभी भी गांव में बरसात में टपकती झोपड़ी में टिका है और कुछ परिवार के पास चार चार घर स्वीकृत हो गए।ओडीएफ का डंका यूएन तक बजाया जा रहा है लेकिन हकीकत में यह केवल सफेद आंकड़ों की बेशर्म बयानी भर है।मप्र के शिवपुरी में दो मासूम दलितों की खुले में शौच पर हत्या से मामले की अंतर्कथा को समझा जा सकता है।सवाल यह है कि इस व्यवस्थागत संत्रास में आखिर सरकारी तंत्र कहां खड़ा है?क्या केवल सत्ता की अर्दली और एजेंडे पर चलना ही उसका मूल काम रह गया है।इसे मप्र में संबल योजना के उदाहरण से समझा जा सकता है लोकप्रियता के अश्वारोही लग रहे तब के सीएम शिवराज सिंह के निर्देश पर अफसरों ने मजदूरों के नाम संबल योजना में उदारता से दर्ज करने की शुरुआत की और  इस काम मे ऐसी उदारता दिखाई की एक लाख मतदाता वाले कस्बों 50 हजार से ज्यादा लोगों को मजदूर के रूप में संबल पोर्टल पर दर्ज कर लिया क्योंकि 3 महीने बाद चुनाव होने थे।मप्र में सरकार बदल गई अब लाखों नाम काटने की प्रक्रिया जारी है। यानी अफसरशाही का विवेक सत्ता के खूंटे पर बंधक बनकर रह गया है।इससे यही साबित होता है।असल मे संबल योजना तो महज एक उदाहरण है सभी फ्लैगशिप योजनाओं की यही हकीकत है यानी जिस बुनियादी काम के लिये प्रशासन तंत्र का ढांचा बना था वह आज चरमरा चुका है।शीर्ष अफ़सरशाही ने समझ लिया है कि  शीर्ष नेताओं को भी सिर्फ चुनावी नतीजों से मतलब है सुशासन या लोककल्याण से कोई परिणामोन्मुखी संबन्ध नही है इसलिए सारी नीतियां इस तरह डिजाइन की जाती है कि उनका प्रचार इतनी जोर से हो मानो नई या स्थापित सत्ता से बड़ा मसीहा कोई नही हो सकता है साथ ही योजनाओं में नियमों की ऐसी सुइयां लगा दी जाए जो चुभे भी और आम आदमी को चिल्लाने भी न दें।मसलन मप्र में विधवा पेंशन 200 से बढ़ाकर 600 रुपये कर दी गई नाम बदलकर कल्याणी हो गया बड़ा प्रचार हुआ जब महिलाएं आवेदन लेकर पहुँची तो पता चला कि आयुसीमा 60 साल होनी चाहिये।अब मंत्रालय के मसूरी रिटर्न इण्डियन को क्या पता कि मजदूर,आदिवासियों, में महिलाएं 60 साल के बाद 10 फिसदी ही जीवित नही रह पाती है।योजना के वास्तविक हितग्राही कौन होंगे?इसे आसानी से समझा जा सकता है।किसी भी तहसील में चले जाइये आवेदन लिए याचक की तरह खड़ी अंतहीन भीड़ आपको खुद गवाही देगी की अंग्रेजी राज के तहसीलदार अभी जिंदा है।एक पिता की जमीन का नामान्तरण चार बेटों के नाम कराने में कितना खर्चा होता है यह भी सबको पता है।जमीन पर कब्जे या बंटबारे की बात हो या फसल बीमा का दावा तहसील आकर आपको भारत के सुशासन की हकीकत का अंदाजा हो जाता है।मजबूर आदमी कलेक्टर के जनदर्शन में खुद को आग लगाने क्यों विवश होता है इसे समझने में ज्यादा समस्या नही है।वेतनभोगी सरकारी तंत्र ने ठीक अंग्रेजी राज की तरह भर्ती और सेवा शर्ते ऐसी बनाई है जो अनुदार, अनुत्तरदायी तंत्र को जन्म देती है मानों अभी भी शासित वर्ग उपनिवेश हो भारत।सरकारी दफ्तर के चपरासी साफ सफाई नही करते,शिक्षक पढ़ाने के अलावा सब काम कर रहे है ,आंगनबाड़ी कार्यकर्ता केंद्र को रोज नही खोलना चाहती,गांव की पीएचसी पर ताले लटके रहते है नर्स शहरों या कस्बों में रहती है,ग्राम सेवक,पटवारी बगैर पैसे लिये कुछ भी नही करते, बाबूशाही से देश के दिग्गज भी हार जाते है।इन सब तथ्यों से अनजान कौन है?सत्ता- अफ़सरशाही सबको पता है।फिर भी 130 करोड़ लोग चुप है तो सिर्फ इसलिए की संसदीय लोकतंत्र मे निर्णयन चंद चिन्हित लोगों के हाथ मे समाहित हो गया है इसलिए इस सड़ चुके सिस्टम को कोई बदलना नही चाहता है।

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