धर्म के अंसैवाधानिक चुनावी प्रयोग पर अंकुश

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प्रमोद भार्गव

सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ के ताजा फैसले से राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को धर्म, जाति, नस्ल, समुदाय और भाषा के आधार पर वोट मांगना मुश्किल होगा। वोट मांगे तो उम्मीदवारी को अंसैवाधानिक ठहराया जा सकता है ? हालांकि ऐसा तभी संभव होगा जब आचार-संहिता के उल्लघंन की उच्च न्यायालय में अपील हो और गैर-कानूनी आचरण अदालत में साक्ष्यों के साथ सिद्ध हो जाए ? अलबत्ता इस फैसले में ऐसी कोई नई बात नहीं है, जो इस निर्णय के बाद पहली बार सामने आई हो। जनप्रतिनिधित्व 1951 की धारा 123 (3) में स्पष्ट है कि उम्मीदवार या उसके एजेंट घर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर वोट नहीं मांग सकते। अंतर महज इतना है कि संवैधानिक पीठ ने न्यायालय के 1995 में आए फैसले के संदेहों को दूर करते हुए धारा 123(3) को दोबारा व्यापक दायरे में परिभाषित करते हुए, उक्त धारा में ही दर्ज प्रावधानों की पुष्टि की है। बहरहाल, इस निर्णय से इतना जरूर तय होगा कि ऐन चुनाव के वक्त दल और प्रत्याषी संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ नहीं कर पाएंगे। गोया, इस लिहाज से फैसले के दूरगामी असर सामने आ सकते  हैं।

मुबंई उच्च न्यायालय के एक फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की अध्यक्षता वाली पीठ ने 1995 में कहा था कि ‘चुनावी भाषणों में हिंदुत्व या हिंदू-धर्म के उल्लेख का हमेशा यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि धर्म के आधार पर वोट मांगा गया है। भाषण में हिंदूत्व या हिंदू-धर्म का जिक्र भारतीय जनता की जीवन शैली और भारतीय सांस्कृतिक लोकाचार पर प्रभाव डालने के लिए भी किया जा सकता है।‘ इस निर्णय में भी जनप्रतिनिधित्व कानून का प्रतिबिंब परिलक्षित था। यह फैसला भाजपा और शिवसेना जैसे राजनीतिक दलों की भावना के अनुकूल था। नतीजतन उन्हें, राजनीति में धर्म का तड़का लगाने का एक तरह वैधानिक अधिकार मिल गया था। राजनीति के कैनवास पर आकार ले रहे औवेसी भी इसी लीक पर चल रहे थे। गोया, सांप्रदायिकता का आरोप लगने पर यह फैसला इन दलों के लिए ढाल बनता रहा है। वैसे, देश या विदेश में जो भी धर्म वजूद में हैं, वे जीवन को अनुशासित रखते हुए, जीवन-पद्धति ही हैं। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि न्यायालय का काम किसी व्यक्ति के निजत्व में धर्म को लेकर झांकना नहीं, बल्कि उसके बेजा इस्तेमाल पर नजर रखना है। जिससे धार्मिक आधार पर किसी के साथ पक्षपात न हो। समता की बुनियादी भावना पर आधारित हमारा संविधान भी यही चाहता है। इस लिहाज से चुनावी आचार संहिता की मर्यादा के  पालन में यह निर्णय एक मुकाम साबित होगा।

बहरहाल, जजों के बहुमत की राय है कि ‘चुनाव एक सांसारिक क्रिया है। इसे दुनियावी मसलों एवं मुद्दों के आधार पर ही लड़ा जाना चाहिए। अलबत्ता मनुष्य एवं इश्वर के बीच का संबंध एक व्यक्गित भाव या संस्कार है। अतः राज्य के लिए ऐसी किसी गतिविधि में हस्तक्षेप करना प्रतिबंधित है।‘ इस व्याखया से तय होता है कि राजनीति का संबंध राज्य की सुचारू व्यवस्था के लिए नीतिगत उपायों से है, न कि धर्म संबंधी अलौकिक या अतीन्द्रीय रागात्मक रिश्तों से ? यह व्याख्या धर्म और राजनीति के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींचती है। इसी मंशा को और व्यापक करते हुए पीठ ने जाति, नस्ल और भाषा को भी इसी दायरे में बांध दिया है। लिहाजा अब इन मुद्दों को भी तूल देकर वोट नहीं मांगे जा सकते हैं। यदि मांगे तो इसे अनुचित चुनावी आचरण माना जाएगा। अपील में आरोप सिद्ध होने पर विजयी प्रत्यार्शी की विधान या लोकसभा की सदस्यता रद्द हो सकती है। साफ है, दल व उम्मीदवारों के समक्ष तात्कालिक लाभ के अनुत्तरित मसलों को उछालने के संदर्भ में न्यायालय ने एक लक्ष्मण-रेखा खींच दी है।

चुनाव सुधारों की दिशा में यह निर्णय अहम् सिद्ध हो सकता है, बशर्ते इसका सख्ती से पालन हो। क्योंकि धर्म आधारित राजनीति संकीर्णता को बढ़ावा दे रही है। गोया, जब धर्म व्यक्गित है, तो फिर राष्ट्र को दुर्बल बनाने में उसकी भूमिका को नहीं स्वीकारा जाना चाहिए। इसके इतर एक ऐसे सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है, जो हमें उदार व सहिष्णु बनाने का काम करे। दरअसल प्रतिगामी शक्तियां हमें जात-पात, भाषा समुदायों और संप्रदायों के छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर हमारी संप्रभु अखंडित शक्ति का क्षरण करती हैं। विभाजनकारी ताकतों के चंद समूहों को बढ़ावा मिलने की वजह से एक-दूसरे के प्रति संदेह और अविश्वास फैल रहा है। इस नाते बहुसंख्यक हों या अल्पसंख्यक या फिर जातिगत दुराग्र्रह, सभी की आक्रामताएं गलत हैं।

हालांकि इस फैसले पर अमल मुश्किल होगा। क्योंकि राजनेता फैसले की व्याख्या अपने ढंग से करेंगे। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल सांप्रदायिक शक्तियों को वोट नहीं देने की बात कहेंगे, तब क्या इसमें परोक्ष रूप से धर्म आधारित वोट मांगने की कामना अंतर्निहित मानी जाएगी ? यदि कोई नेता धार्मिक समारोह में सद्भाव, जातिगत सम्मेलन में जातीय उद्धार और इफ्तार दावत में लजीज भोजन की बात करता है तो इसे क्या कहेंगे ? या फिर इस तरह के आयोजनों में चुनाव के दौरान षिरकत पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगी ? अकसर नेता ऐसे सम्मेलनों में भागीदारी करके ही, यह अप्रत्यक्ष संदेश छोड़ जाते हैं, कि हम आपके मंसूबों को चुनने के बाद साधने का काम करेंगे। कानून विशेषज्ञों का मानना है कि दलित और आदिवासी धर्म, पंथ और जाति के दायरे में नहीं आते। ऐसे में इन कामजोर समुदायों के हित सरंक्षक की बात करते हुए वोट मांगना क्या अनुचित होगा ? सपा और बसपा की राजनीति तो लगभग जाति व संप्रदाय आधारित वोट की मांग पर टिकी है। वहीं, भाजपा व शिवसेना की राजनीति हिंदू और हिंदुत्व के हित सरंक्षण पर केंद्रित है। इसीलिए ये दल धर्मस्थलों और धर्मगुरूओं की शरण में चुनाव के दौरान जरूर जाते हैं। क्या इस कथित कृपा अथवा आशीर्वाद को भी गलत माना जाएगा ? इमाम तो बकायदा दल विशेष के लिए वोट देने का फतवा तक जारी कर देते हैं। हालांकि ऐसे हालात धर्म और राजनीति को कदाचित उदार बनाने की बजाय, भ्रष्ट बनाने का ही काम करते हैं।

ये चंद कुछ ऐसे सवाल है, जिनकी व्याख्या भी मुश्किल है और कार्यपालिका को लागू कराना भी आसान नहीं है ? इसीलिए इस फैसले के परिप्रेक्ष्य में आचार संहिता के उल्लंघन के जो भी मामले सामने आएंगे, उन्हें पराजित प्रतिद्वंद्वी प्रत्याषी को चुनाव याचिका के जरिए हाईकोर्ट की चौखट तक ले जाना होगा। हम जानते हैं कि हमारी अदालतों में सुनवाई और बहस का दौर इतना लंबा चलता है कि विजयी उम्मीदवार का कार्यकाल लगभग समाप्त हो जाता है। हालांकि धर्म, जाति या संप्रदाय के आधार पर कोई प्रत्याषी मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिश करता है तो पुलिस मुकदता तो दर्ज कर सकती है, लेकिन विजयी होने पर सदस्यता निरस्त करने का उसके पास कोई अधिकार नहीं है। कमोबेश यही स्थिति निर्वाचन आयोग की है। इसी झोल का लाभ उठाकर दल व उम्मीदवार जन प्रतिनिधित्व कानून की अवज्ञा करते हुए धर्म व जाति के आधार पर वोट मांगने में कोई संकोच नहीं करते हैं।

पेडन्यूज को भी आचार संहिता का उल्लंघन माना गया है। कई उम्मीदवारों पर इस बाबत मुकदमे भी चल रहे हैं। लेकिन विचाराधीन मामलों में से ज्यादातर इतने लंबे खिंच रहे हैं कि निर्वाचित प्रतिनिधियों का पहला कार्य तो पूरा हुआ ही, कई का दूसरा कार्यकाल भी पूरा होने को है। हालांकि जाति और भाषा से जुड़े आंदोलनों की निर्वाचन प्रक्रिया को जीवंत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन आंदोलनों के चलते ही बड़े राज्यों का छोटे राज्यों में विभाजन भाषा के आधार पर हुआ है। पिछड़ी , दलित व आदिवासी जातियों ने उभार भी जातिगत आंदोलनों के माध्ययम से हुआ है।   गोया, इन आंदोलनों की गोलबंदियों से हाशिये पर पड़े समाजों का सशक्तिकरण भी हुआ है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि राजनीति में जातीय व भाषाई वर्चस्व की मांगें केवल नकारात्मक वातावरण रचने का पर्याय भर रही है ? इन आंदोलनों से ही भारतीय लोकतंत्र का संघीय ढांचा मजबूत हुआ है। इस संदर्भ में फैसले का मूल्यकांन करें तो यह संविधान की संहिताओं के सैद्धांतिक पहलू की तो रक्षा करता है, लेकिन व्यावाहरिक पहलू को कमोवेश नजरअंदारज करता है। शायद ऐसे ही द्वंद्व की वजह से संविधान पीठ में सर्वसम्मति नहीं बन पाई है, नतीजतन पीठ के सात में तीन न्यायमूर्तियों ने फैसले पर असहमति व्यक्त की है।

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