सावधान : बाड़ खेत को खा रही है

0
183

महर्षि व्यास लिखते हैं :-

जात्या च सदृशा: सर्वे कुलेन सदृशास्तथा।

न चोद्योगे न बुद्घया वा रूपद्रव्येण वा पुन:।

भेदोच्चैव प्रदानच्च भिद्यन्ते  भिद्यन्ते निपुभिर्गणा:।।

(महा. शा. 107. – 30, 31)

अर्थात जाति और कुल में सभी एक समान हो सकते हैं, परंतु उद्योग, बुद्घि, रूप, तथा सम्पत्ति में सबका एक सा होना संभव नही है। शत्रु लोग गणराज्य के सदस्यों में भेद-‘बुद्घि उत्पन्न करके तथा उनमें से कुछ लोगों को धन देकर समूचे संघ में फूट डाल सकते हैं।’

महर्षि व्यास जी की यह बात जितनी उस समय सार्थक भी उतनी ही आज भी सार्थक हैं।

1947 में हम तो स्वतंत्रता संग्राम को पूर्ण करके स्वतंत्रता के उत्सवों में मग्न हो गये, जबकि शत्रु सोया नही और उसने छद्मवेश धारण कर भारतीय संघ में विखण्डन उत्पन्न करने की घृणास्पद चालों को पूर्ण करना आरंभ कर दिया। उसने सर्वप्रथम देश के संविधान में धर्मांतरण संबंधी प्राविधान को संविधान के अनुच्छेद 25 में डलवाकर सफलता प्राप्त की। तजम्मुल हुसैन जैसे राष्ट्रवादी मुसलमान भी धर्मांतरण की प्रक्रिया को उस समय राष्ट्रघाती  कह रहे थे, परंतु शत्रु के षडय़ंत्रों के सामने उनकी एक न चली और यह प्राविधान  हमारे संविधान में स्थान प्राप्त कर गया।

इस प्राविधान की आड़ में पिछले 68 वर्षों में धर्मांतरण का खेल खेलते हुए, हिंदुत्व को व्यापक हानि हुई है। पूरा पूर्वाेत्तर भारत अलगाव की भाषा बोलने लगा,  देश के अन्य भागों में भी जहां हिंदू दुर्बल हुआ है, वहीं-वहीं अलगाव और विखण्डन की प्रक्रिया को बल मिला है।

‘शत्रु’ ने हममें ‘भेद बुद्घि’ और ‘बुद्घिभेद’ उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है। हमने जिस प्रक्रिया को बहुत सरलता से लिया है उसने हममें गहरी फूट उत्पन्न कर दी है। शत्रु की यह सफलता है, और हमारी यह असफलता है। स्वामी विवेकानंद ने धर्मांतरण के विषय में कहा था कि जब कोई व्यक्ति अपना धर्मांतरण करता है, तो उससे एक विपरीत सम्प्रदाय का अनुयायी ही उत्पन्न नही होता है अपितु भारत का एक शत्रु भी उत्पन्न हो जाता है। इसका अर्थ है कि विपरीत सम्प्रदाय में जाते ही व्यक्ति भारत की राष्ट्रीयता का शत्रु बन जाता है। इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए गांधीजी भी धर्मांतरण के विरोधी थे और वह इस पर रोक लगाने हेतु कड़े कानूनी प्राविधान के पक्षधर थे। गांधीजी ने अब से लगभग एक शताब्दी पूर्व कहा था कि ईसाई मिशनरियों द्वारा कराया जा रहा धर्मान्तरण विश्व में अनावश्यक अशांति फैलाना है।

यह  पहला अवसर है जब हिंदुओं ने देश में कुछ बांग्लादेशी मुस्लिमों की घर वापिसी करायी है। इसी पर इतना अधिक शोर मच गया है कि शोर मचाने वालों को ही अब धर्मांतरण ‘घर वापिसी’ के रूप में भी एक बीमारी दीखने लगी है। अब तक उन्होंने जो कर लिया वह तो कानूनी और नैतिक मान लिया जाए, जबकि जो अब किया गया है या भविष्य में हो सकता है, उस पर  प्रतिबंध लग जाए-अब ऐसा प्रयास किया जा रहा है।

मुस्लिम लेखिका तस्लीमा नसरीन ने पुन: साहस दिखाया है और स्पष्ट कह दिया है कि यदि बलात् धर्मांतरण नही होता तो विश्व में इस्लाम नही होता। बात स्पष्ट है कि भारतीय उपमहाद्वीप में ही नही संपूर्ण संसार में भी इस्लाम का प्रचार-प्रचार बलात् आधार पर ही किया गया है।

जिन्ना, महात्मा गांधी, शेख अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्लाह तक सभी इस मत के हैं कि भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिंदू रहे हैं। इसलिए जो लोग आगरा में मुस्लिमों की घर वापिसी को लेकर कह रहे हैं कि उनकी अपने ‘पुश्तैनी मजहब’ को बदलवाकर हिंदू संगठनों ने पाप किया है, वे थोड़ा विचार करें कि भारत में हम सबका ‘पुश्तैनी धर्म’ तो वैदिक हिंदू धर्म ही है। वास्तव में भारत में हिंदू सदियों से पीडि़त रहा है। वह उत्पीडक़ कभी नही रहा। ऐसे उदाहरण भी हैं कि जब अपवाद स्वरूप किसी मुस्लिम शासक ने अपने शासन काल में हिन्दुओं के साथ न्याय किया तो उसे इन लोगों ने अपना पूर्ण सहयोग और समर्थन भी दिया। सदियों से यह कटता रहा, मिटता रहा और पिटता रहा, और हमने देखा कि इसके कटने मिटने या पिटने का प्रभाव  देश की एकता पर सीधे  पड़ा। इसलिए भारत के लिए धर्मांतरण एक राष्ट्रीय त्रासदी से कम नही है। जिसे रोकने के लिए सत्यनिष्ठापूर्वक प्रयास कभी नही किये गये। अब  तक धर्मांतरण की आड़ में जिन लोगों ने भारत केे आदिवासी क्षेत्रों में धर्मांतरण करा-कराके देश के बहुसंख्यक समाज के साथ अपघात किया था, अब वे  देख रहे हैं कि हिंदू का जागना उनके लिए कितना घातक हो सकता है? इसलिए वह अब धर्मांतरण पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं। जबकि हिन्दू समाज पिछले 68 वर्षों में इस क्षेत्र में गहरी चोट खा चुका है।

गड़बड़ी का प्रारंभ ईसाई मिशनरियों और इस्लाम की ओर से किया गया। इसका कारण जैसा कि एम.आर.ए. बेग जैसे राष्ट्रवादी चिंतक का मानना है कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि भारत का मुसलमान यही  चाहता है कि शासन तो धर्मनिरपेक्ष बना रहे पर वह अपना खेल खेलता रहे, अर्थात वह साम्प्रदायिक ही बना रहे। पिछले 68 वर्ष में शासन ने अल्पसंख्यकों को अपने निजी विश्वास के अनुसार पूजा पाठ करने की जितनी छूट दी उतनी ही अल्पसंख्यकों की मांगें बढ़ती चली गयीं, इसलिए साम्प्रदायिकता का भूत, जिसे भीतर बंद हो जाना चाहिए था, खुला सडक़ों पर घूमता रहा और देश साम्प्रदायिक दंगों में झुलसता रहा।

अब धर्मांतरण के मुद्दे पर हिन्दू समाज को घेरने का प्रयास किया जा रहा है, इसे आत्मप्रवंचना ही कहा जाएगा। राष्ट्र की एकता को पुष्ट करने के लिए एक विचार, एक मत, एक विचारधारा, एक भाषा, एक भूषा, एक धर्म का होना आवश्यक है। पर इसका अभिप्राय यह नही है कि किसी को अपनी पूजा-पद्घति को अपनाने की छूट ही नही हो, हिंदुओं में विभिन्न सम्प्रदाय हंै, और कई बार एक दूसरे के देवी-देवता भी अलग-अलग देखे जाते हैं। परंतु इसके उपरांत उनमें मौलिक एकता देखी जाती है कि वे राष्ट्र के विषय में एक होते हैं। हम ऐसी एकता को कैसे स्थापित होते देख सकते हैं-इसी पर विचार करने की आवश्यकता है? जब किसी सम्प्रदाय के महापुरूष विदेशी हो जाते हैं, और वह विदेशी भाषा में सोचने बोलने लगता है तो संसार की कोई ऐसी शक्ति नही जो उसे अपने देश के प्रति निष्ठावान बनाये रख सके। इसीलिए एम.आर.ए. बेग का यह कथन भी विचारणीय है कि कोई भी सत्यनिष्ठ मुसलमान कभी देशभक्त और मानवतावादी हो ही नही सकता। इसका कारण यही है कि उसकी अपनी धारणाएं और  धार्मिक मान्यताएं उसे किसी देश के प्रति निष्ठावान बनने या मानवतावादी होने में बाधा डालती हैं।

महर्षि दयानंद, स्वामी श्रद्घानंद, वीर सावरकर, भाई परमानंद जैसी महान विभूतियों ने भारत में शुद्घि आंदोलन चलाने का निर्णय यूं ही नही लिया था। देश की निरंतर घटती जा रही सीमाओं को लेकर वह चिंतित थे, देश के धर्म के संकुचित होते क्षेत्र को लेकर वह चिंतित थे, और इन सबसे बढक़र देश के भविष्य को लेकर वह चिंतित थे। बड़ी स्पष्ट बात ये है कि एक गांव में प्रधान पद को एक हिन्दू को उस समय नही लेने दिया जाता है-जहां अल्पसंख्यक 51 प्रतिशत हो जाता है। ये तैयारियां क्या हैं? क्या इनमें देश के भविष्य की भयावह तस्वीर नही दिखती? योगी अरविंद के ये शब्द आज भी सार्थक हैं-‘‘हिन्दू मुस्लिम एकता इस आधार पर नही बन सकती किमुसलमान तो हिंदुओं को धर्मांतरित कराते रहेंगे, जबकि हिंदू किसी मुसलमान को धर्मान्तरित नहीं कराएंगे?’’ वास्तव में जब तक चिकनी चुपड़ी बातें की जाती हैं, तब तक वे अच्छी लगती रहती हैं, पर आप जैसे ही अपने अधिकारों के लिए सक्रिय होते हैं तो कई लोगों के लिए समस्या खड़ी हो जाती है।  या उनके पेट में दर्द होने लगता है। इसलिए यहां हिंदू हित की बात करना एक अपराध है, और  अल्पसंख्यकों के हित की बात करना धर्मानिरपेक्षता है। अब ये उचित रूप से पूछा जा सकता है कि क्या इस देश में हिंदू के कोई अधिकार नही हंै, या वे मानव नही हैं? और यह भी कि मानवाधिकारों में आप किसको रखते हैं और किसको नही? अपने मूल में भारत ना तो साम्प्रदायिक था, ना है और न होगा। पर यह साम्प्रदायिक उस दिन हो जाएगा जिस दिन यहां हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएगा।….और धर्मांतरण का खेल भारत को साम्प्रदायिक बनाना ही तो है। सभी राष्ट्रभक्तों से निवेदन है कि इस पवित्र भूमि को साम्प्रदायिक बनने से रोक लें। यह राष्ट्रीय  प्रश्न है, जिसे राष्ट्रीय प्रश्न बनने नही दिया जा रहा है। सावधान : शत्रु सक्रिय है और बाड़ खेत को खा रही है। जागो प्यारे, देशवासियों जागो! समय की पुकार भी यही है।

Previous articleसियासत का ‘रमता जोगी’
Next articleझारखण्ड : अच्छे दिनों की उम्मीद
राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here