अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में कभी अध्यापक रहे इरफ़ान हबीब बहुत ग़ुस्से में हैं । उनका कहना है कि भारत के लोग आजकल बहुत असहनशील हो गये हैं । ऊपर से कोढ में खाज यह कि सरकार भी कुछ नहीं कर रही । वह भी इन्हीं लोगों के साथ मिली हुई है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक चुप्पी साध गये हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो इस्लामिक स्टेट की माफ़िक़ ही कार्य कर रहा है । उन्हीं के एक दूसरे मित्र आज़म खान हैं । उत्तर प्रदेश में काबीना मंत्री हैं । वे इस हालत में हाथ पर हाथ धरे नहीं रह सकते । वे कोई लेखक टाइप के कलमघिस्सु तो हैं नहीं जो अपना पुरस्कार लौटाने की अखबारी घोषणा कर चुप हो जायेंगे । उनका मानना है कि अब हिन्दुस्तान में मुसलमानों का रहना ही मुश्किल हो गया है । इसलिये वे संयुक्त राष्ट्र संघ को चिट्ठियाँ लिख रहे हैं कि आप हमारी रक्षा कीजिए । वे यह चिट्ठी पत्री उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से कर रहे हैं या व्यक्तिगत तौर पर , इसका ख़ुलासा होना बाक़ी है ।
उधर कामरेडों का अपना कष्ट है । उनकी समस्या है तो इस सहनशीलता को लेकर ही लेकिन उनका कष्ट थोड़ा अलग प्रकार का है । कामरेडों की यही ख़ूबी है । उनका कष्ट इस देश के लोगों के कष्ट से सदा हट कर होता है । उनका कहना है कि उन्हें ब्रीफ़ यानि गोमांस खाने की सार्वजनिक सुविधा नहीं मिल रही । लोगबाग पकड़ लेते हैं । सरकार कुछ नहीं करती । इतनी असहनशीलता बर्दाश्त नहीं हो सकती । कोलकाता में अपना विरोध प्रदर्शन करने के लिये तो कामरेडों ने सड़क पर खड़े होकर बाक़ायदा ब्रीफ़ पार्टी की । उसमें कोलकाता के पूर्व मेयर भी शामिल हुये । ज़ाहिर है कामरेडों के लिये इस देश में आज सबसे बड़ी समस्या गोमांस खाने की सुविधा का न होना है । इसलिये इस समस्या को हल करवाने के लिये वे सड़कों पर उतर आये हैं । सदा की भाँति उन्होंने अपना यह आन्दोलन कोलकाता से ही शुरु किया है । लेकिन इस देश के लोग कामरेडों द्वारा छेड़े गये इस लोकयुद्ध की महत्ता समझ नहीं रहे और असहनशील हो रहे हैं ।
यही चिन्ता सोनिया गान्धी को भी सता रही है । उन्हें भी लगता है कि भारत के लोग अब सहिष्णु नहीं रहे । वे असहनशील हो गये हैं और सरकार ने इस पर चुप्पी साध रखी है । जब वे इस देश में आई थीं तब तो सब कुछ ठीक था । फिर उनके पति ही देश के प्रधानमंत्री बन गये , इसलिये उस समय किसी के भी असहनशील होने का प्रश्न नहीं था । बाद में तो इस देश के लोगों की सहनशीलता इतनी बढ़ी कि उन्होंने परोक्ष रुप से दुनिया के सबसे पुराने देश की बागडोर ही सोनिया गान्धी के हाथों में सौंप दी । वह इस देश के लोगों की सहनशीलता का स्वर्णयुग था । लेकिन अब नरेन्द्र मोदी के आने से हालत बदल गई है । सरकार से लेकर इस देश का आम आदमी तक सब असहनशील हो गये हैं । उनको लगता है मोदी ने ही लोगों को असहनशील बनाया है और वे स्वयं भी इस देश के लोगों के साथ मिल गये हैं , तभी तो उनकी असहनशीलता पर चुप्पी धारण किये हुये हैं । इसकी शिकायत करने के लिये वे भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक पहुँच गई । वैसे तो सोनिया गान्धी की शिकायत सही ही है । एक वक़्त था कि भारत के लोग सोनिया जी की कांग्रेस को सत्ता तक पहुँचा देते थे लेकिन देखते देखते वे कांग्रेस के प्रति इतने असहनशील हो गये कि पार्टी को लोक सभा में 44 सीटों तक पहुँचा दिया । उन्हें ग़ुस्सा तो आयेगा ही कि आख़िर भारत के लोग उनके प्रति इतने असहिष्णु कैसे हो गये । वे भी इस देश में अब इतने अरसे से रह रही हैं , इसलिये कुछ न कुछ तो यहाँ के लोगों को जानने बूझने लगीं हैं । उन्हें लगता है कि नरेन्द्र मोदी ने ही इस देश के लोगों को गुमराह किया है जिसके कारण वे कांग्रेस से इतने असहिष्णु हो गये कि उसे 44 पर लाकर पटक दिया । पहले तो सोनिया जी ने इस देश के लोगों को ही समझाने की कोशिश की कि उनकी कांग्रेस के प्रति इतनी असहनशीलता ठीक नहीं है । लेकिन जब से मोदी आये हैं कोई सोनिया जी की बात समझने की तो दूर,सुनने तक को तैयार नहीं । वे जगह जगह अपने बेटे को भेज रही हैं । लेकिन लोगों का समझना तो दूर मुफ़्त में जग हँसाई अलग से हो रही है । दिल्ली में लोगों ने भाजपा को वोट नहीं दिये तो आशा बंधी थी कि सोनिया जी की कांग्रेस को लेकर लोग अब तक सहनशील हो गये होंगे । लेकिन उन्होंने केजरीवाल तक को दिल्ली की कुंजी दे दी , कांग्रेस का सूपडा ही साफ़ कर दिया । अब जब इस देश की जनता से कोई आशा नहीं बची तो उनका राष्ट्रपति के पास जाकर शिकायत करना बनता ही था ।
उधर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे इरफ़ान हबीब अपना इतिहास गा गाकर सुना रहे हैं । अख़बारों में आया है कि उन्हें मिला कर पचास बुद्धिजीवियों ने , जिनमें कालिजों, विश्वविद्यालयों से रिटायर हो चुके अध्यापकों के अतिरिक्त भी कुछ लोग थे , इस बात को लेकर शोक प्रस्ताव पास किया है कि देश में असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है और इसके लिये मोदी की सरकार ज़िम्मेदार है । बैसे इरफ़ान हबीब और उसके कुछ साथी आज से नहीं लम्बे अरसे से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर अपना शोक प्रस्ताव पास करते रहते हैं । उन पर हस्ताक्षर करने वाले पचास लोग भी पक्के हैं । मोटे तौर पर ध्यान रखा जाता है कि इन शोक सभाओं में रिटायर होने के बाद ही शामिल हुआ जाये उससे प्रतिबद्धता भी बनी रहती है और कोई ख़तरा भी नहीं उठाना पड़ता । मैंने इन पचास इतिहासकारों के हस्ताक्षर वाली रसीद देखी तो नहीं है लेकिन मुझे शक है उसमें कहीं ग़लती से हिमाचल प्रदेश के विमल चन्द्र सूद का नाम भी शामिल न कर लिया गया हो । सूद साहिब को गुज़रे कुछ साल हो गये हैं । लेकिन इस प्रकार के शोक प्रस्तावों में हिस्सा लेने वालों में वे भी हबीब साहिब के पुराने और आज़माये हुये साथी थे । जब किसी ग्रुप ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास करने के लिये स्थायी सूची छपवा रखी हो तो कई बार संसार छोड़ चुके किसी व्यक्ति का नाम ग़लती से कटने से रह जाता है । इसलिये मेरा डर है कि इन्होंने विमल चन्द्र का नाम अभी तक न काटा हो । ( लोक युद्ध के सेनापति कृपया चैक कर लें) बाक़ी इतिहास विभाग के पुराने अध्यापकों में रोमिला थापर तो हैं हीं । उन्होंने भी बिना संस्कृत जाने वेदों का काफ़ी गहराई से अध्ययन कर लिया है । इन पुराने इतिहासकारों को भी अब लोगों की असहनशीलता चुभने लगी है । वे दिन कितने भले थे जब ये अध्यापक इतिहास को लेकर अपनी क्लास में जो भी पढ़ाते थे तो छात्र चुपचाप सुन भी लेते थे और मान भी लेते थे । अलीगढ़ यूनिवर्सिटी ने तो इस देश में इतिहास का एक ऐसा अध्याय लिख दिया जिसने देश को ही बाँट दिया , लेकिन यहाँ के छात्रों ने उस समय जो इतिहास अध्यापकों ने बताया उसे ही इलाही वाणी मान लिया । लेकिन इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर को दुख है कि अब लोग उनके बताए इतिहास को आँखें बंद करके नहीं सुनते बल्कि उनसे प्रश्न करने लगे हैं । रिटायर अध्यापक का यही सबसे बड़ा दुख होता है । कलास में छात्र को तो डाँट कर चुप करवाया जा सकता है लेकिन अब इन बाहर बालों ने अपने प्रश्नों से घेर रखा है उसका क्या किया जाये ? कम्युनिस्टों में भी और सामी सम्प्रदायों में भी प्रश्न पूछने वाले को ही काफ़िर मान लिया जाता है । और काफ़िर को जो दंड दिया जा सकता है , उसे इरफ़ान हबीब तो जानते ही होंगे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इतिहास को लेकर हबीब एंड कम्पनी से प्रश्न पूछ रहा है । औरंगज़ेब का ज़माना होता तो इरफ़ान भाई संघ को इस जुर्म में फाँसी पर लटका देते । लेकिन इस युग में तो यह संभव नहीं है । इसलिये इरफ़ान भाई संघ को इतनी बड़ी गाली दे रहे हैं जो फाँसी से भी भारी हो । प्रश्न का उत्तर देने की बजाए प्रश्न पूछने वाले को ही गाली निकाली जाये । इरफ़ान हबीब की यह टोली यही काम कर रही है । उनकी टोली का कष्ट भी यही है कि उनके लिखे पढ़े को तर्क से चुनौती दी जा रही है । इस देश के लोग जब प्रश्न पूछना शुरु करते हैं तो इरफ़ान हबीब से लेकर अशोक वाजपेयी तक सब भागते हैं । हबीब अब वही भाषा बोलना शुरु कर रहे हैं जो कभी जिन्ना बोला करते थे । जिन्ना की मुस्लिम लीग भी सबसे ज़्यादा गाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देती थी । उनको लगता था कि यदि उनके रास्ते में कोई बाधा है तो वह संघ ही है । अब इरफ़ान हबीब और उनके साथी भी सबसे ज़्यादा गालियाँ संघ को ही दे रहे हैं । इरफ़ान हबीब का कहना हैं कि संघ तो इस्लामिक स्टेट आफ इराक़ एंड सीरिया से भी ख़तरनाक है । यानि वे विश्व को संकेत दे रहे हैं कि आप लोग आई एस आई एस के ठिकानों पर तो खाहमखाह बम्बबारी कर रहे हो । उसको छोड़ो , इधर हिन्दोस्तान का रुख़ करो और संघ को पकड़ो , वही दुनिया के लिये ख़तरा है । आई एस आई एस की मदद करने का यह नायाब तरीक़ा इरफ़ान हबीब ही निकाल सकते थे । आख़िर अलीगढी इतिहास के घुटे हुये इतिहासकार हैं । यह काम तो शायद रोमिला थापर भी नहीं कर सकती थी । कहा भी गया है , जिसका काम उसी को साजे । इरफ़ान भाई मानते हैं कि असहिष्णुता पहले भी थी , लेकिन तब राज कांग्रेस का था । इसलिये चिन्ता करने की जरुरत नहीं थी । अब सबसे बड़ा कष्ट यह है कि राज संघ के लोगों का है । अलीगढी ब्रिगेड का कष्ट ही यह है कि देश की राजनीति के केन्द्र में राष्ट्रवादी शक्तियाँ क्यों आ गई हैं । वैदिकी हिन्सा हिन्सा न भवति , भारतेन्दु तो अरसा पहले यह लिख गये हैं । धीरे धीरे और भी निकल रहे हैं मांद से बाहर ।
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