बदनसीब पुत्र की डायरी

पिता की तुला पर बदनसीब खरा नहीं उत्तर पाया
विफलता कहे या सफलता पुत्र नहीं समझ पाया।
पिता की चाह थी श्रवण बनकर जमाने को दिखा दे ,
पुत्र भी चाहता था कि पिता की हर इच्छा पूरी कर दे।
पर पुत्र ने होश संभालते विरोध की शपथ ले लिया था
पिता की ऐसी इच्छा नहीं जिससे मान बढ़ सकता था।
लोग हँसते पिता शिकायत करता पुत्र मौन रहता था
पिता के स्वस्थ रहने का हर बंदोबस्त मौन करता था।
शराब और कबाब के आदी पिता ने जंग छेड़ दिया था
पुत्र की कोशिश रहती पिता तन-मन से खुश रहे सदा ।
पुत्र का सद्संस्कार पिता का जैसे विद्रोह बन गया था
पिता स्व-इच्छा को सर्वोच्च ,पुत्र को नालायक कहता था।
पुत्र चिंता -लोक-लाज -सभ्य समाज में जीने को विवश था
पुत्र संघर्षरत पिता को शराब-कबाब सर्वप्रिय हो चूका था ।
रिश्ते की कसम का नशे के शौक़ीन पिता को तनिक भान न था
पुत्र के खिस्से के अनगिनत छेद ,बीमारी रक का गम न था ।
सदाचारी कर्मयोगी पुत्र, पिता की नजरो में नालायक था
वादे का पक्का पुत्र कुनबे के भले के लिए जी रहा था।
जीवन में मुट्ठी भर आग,ज़माना पुत्र को सफल कहता था
पिता की जिद ने स्वयं को तन से अक्षम बना दिया था।
स्तब्ध ,संघर्षरत पुत्र की हर तरकीबे फेल हो चुकी थी
वक्त के साथ पुत्र कर्मपथ पर चलने को विवश था।
जमाने की निगाहो में सफल पिता की निगाहो में फेल था
फ़र्ज़ पर फ़ना, जमाने की जंग में जीता हुआ हार चुका था।
ये कैसी बदनसीब क्या गुनाह,पुत्र सोचने को विवश था ,
यह ह्रदय विदारक दास्तान बदनसीब पुत्र की डायरी के
एक पन्ने पर अश्रु से लिखा हुआ था।
डॉ नन्द लाल भारती

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here