-प्रो. गंगानन्द झा-
मूल्य-बोध धारण किए रहने वालों को इसकी कीमत चुकानी पड़ती रहती है, इसलिए उनका जीना और भी अधिक कठिन हो जाया करता है।
हमारे पिता के जीवन में कठिनाइयों का अभाव कभी भी नहीं रहा ; मरना भी सहज और यन्त्रणा-रहित नहीं रहा । कठिनाइयाँ तो औसत आदमी के जीवन में भी हुआ ही करती हैं । उनको तो औसत से काफी अधिक प्रतिकूलता से वास्ता पड़ता रहा । शैशवावस्था में ही मातृहारा हुए, फिर रिश्तेदारों के घर पले-बढ़े । कदाचित् अपने अनजानते ही पारम्परिक समाज द्वारा प्रदत्त सुरक्षा कवच धारण करने से अपने को वञ्चित कर लिया – आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने और पैतृक पेशे से विमुख होने का निर्णय लेकर । परम्परा से उपलब्ध लाभ से अपने को वञ्चित करने के बाद भी समाज की पारिम्परिक धारा से जुड़े रहे । आजीविका के साथ अपने आदर्श का समन्वय करके स्कूल-शिक्षक बने, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से अछूते रहने के कारण अर्थोपार्जन की ओर से उदासीनता रही ।
बाधाएँ तथा दुर्घटनाएँ उनकी जीवन-यात्रा में नियमित अन्तराल पर आती रहीं ; सन्तानों की अकाल-मृत्यु से भी साबिका पड़ता रहा, आर्थिक तनाव उनके चिरसंगी रहे । फिर भी वे न तो अन्धविश्वासी हुए, न ही कभी विधाता के पास अभियोग किया । जब कि नियम से दैनिक पूजा-प्रार्थना करते रहे थे । सबसे अनोखी बात थी कि कभी किसीकी शिकायत नहीं की उन्हौंने ; अपना औचित्य स्थापित करने के लिए भी नहीं । ईश्वर के साथ-साथ मनुष्य का भी सम्मान करते रहे थे वे ।
वे काफी रोबीले और प्रतिष्टित व्यक्तित्व से सम्पन्न रहे थे, स्नेहशीलता तथा क्षमा कर पाने का अद्भुत् जज्बा था उनमें। सहज विश्वास तथा मानवीय मूल्यों पर आस्था थी । इसीलिए पेन्शन का आश्वासन नहीं होने के बावजूद जीवन की शाम के लिए कोई संचय नहीं किया था उन्होंने ।
आदमी ने समाज बनाया अपने को सुरक्षा और सुविधा प्रदान करने के लिए । इसलिए समाज के नियमों का सम्मान करना आदमी के लिए लाजिमी है ; ऐसा करके हम व्यक्ति को सुयोग और अवसर देते हैं तथा समाज को यह शक्ति प्रदान करते हैं कि वह हमारी हिफाजंत कर सके । पर साथ ही ऐसे नियमों का विरोध तो होना ही चाहिए जो अब अनुपयोगी और हानिकारक हो गए हैं और आदमी को घुटन तथा विकृति से ग्रस्त करते हों।“
ये बातें उन्होंने मुझसे तब कही थीं जब मुझे अपने प्रगतिशील कदम के कारण अपने भाइयों से अवरोध और अपमान झेलने की स्थिति का सामना था । महत्वपूर्ण बात यह थी कि वे मेरे इन्हीं भाइयों के साथ रहते थे, और वे उनके ऊपर दबाव बनाए रहते थे ताकि मेरे विरुद्ध उनके अभियान में दृढ़ता आए । मात्र भावुल स्नेह नहीं, आधुनिकता तथा, संगति से युक्त विचार तथा मूल्य-बोध उनका पथ निर्द्धारण करते थे । वे अपने विश्वासों और मान्यताओं के लिए कष्ट वरण करते रहे थे।
वृद्धावस्था अपने साथ अप्रासंगिकता लाती है ; सत्ता का क्षय और विकृति (decay and degeneration) भी प्रौढ़ावस्था की आनुषंगिक सखियाँ हुआ करती हैं । बच्चों को पालना और बूढ़ों का ख्याल रखना बहुत कठिन काम होते हैं । पर एक महत्वपूर्ण फर्क होता है दोनों के बीच। बच्चे का भविष्य होता है, बच्चे से सपने सजते हैं । बच्चे प्यार उत्प्रेरित करते हैं । बूढ़े का बस अतीत होता है, व्यतीत । बच्चा खुबसूरत होता है, बुढ़ापा बदसूरत । बच्चे से ऊर्जा मिलती है, बूढ़े से ऊब ।
आधुनिकता के उपभोक्तावादी के परिवेश में अनुत्पादक वृद्ध सदस्य का अप्रयोजनीय हो जाना लाज़िमी होता है। उनकी अस्मिता के लिए संकट की स्थिति बनने लगती है । ऐसे हालात बनते हैं कि बहुतेरे मिथक ध्वस्त हो जाते हैं । मैंने मिथकों का ध्वस्त होना भोगा है । महिमामय आदरणीय व्यक्ति दयनीय, बेचारा बन जाता है । पारम्परिक समुदायों में बूढ़ों के लिए आधुनिक समुदायों की अपेक्षा अधिक सुविधाजनक स्थिति थी । सामाजिक प्रोटोकॉल उनके पक्ष में था । लोकमत का दबाव उनको उपेक्षित होने से बचाता था । आज समाज की सत्ता धूमिल हो गई है।अब तो समाज स्वयम् atomized हो गया है। यश का लोभ दुधारी तलवार होता है ;यह सामान्यतः उदार और सहिष्णु बनने की प्रेरणा और ऊर्जा देता हैं, पर स्नेह, श्रद्धा और आन्तरिकता की अनुपस्थिति में यश का लोभ क्रूर, अधीर तथा ईर्ष्यालु बना देता है । ऐसा हो पाने की सम्भावना कम ही होती है कि भूख लगे और यह भरोसा न हो कि खाना मिलेगा ; तब जो यन्त्रणा होती है,उससे साबिका पड़े , जब कि आपके वंशधर भरे-पूरे हों ।
पर ऐसा हो भी सकता है, होता है सचमुच ।
प्रिय डॉ मधुसूदनजी,
प्रवक्ता पर मेरे पोस्ट पर आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवादय़ प्रवक्ता का साइट कई दिनो से error दिखा रहा है। खुल नहीं रहा है। इसलिए बाध्य होकर मैं मेल से आपसे सम्पर्क कर रहा हूँ।
विधाता का विधान ही है कि जीना कठिन होगा। जीने के लिए निरन्तर अपने आपको संगठित रखने की चुनौती तथा बिखराव की सहजात प्रवृत्ति एक साथ काम करती हैं। इसके अतिरिक्त आदमी होने के लिए अपनी जरुरतों पर अपनों की जरुरत को प्राथमिकता देनी होती है। जीना तो कठिन होगा ही, विधाता का विधान है। आदर्शवादी और प्रतिबद्धता से सीमाबद्ध व्यक्ति के लिए जीना तपस्या की तरह हो जाता है। संसाधनों का अभाव इसे और भी धारदार बना देता है। इसमें आस्तिकता या नास्तिकता से कोई फर्क नहीं पड़ता।आपकी तत्परता को नमस्कार
मनुष्य घोर स्वार्थी हो रहा है। पश्चिमी समाज तो और भी गम्भीर अवस्था में है।
यहाँ, आस्तिकता समाप्तप्राय है। मनुष्य पूरा भौतिक बन गया है।
जितना समाज जडवादी और नास्तिकता का पोषक होगा, उतनी ऐसी समस्याएँ बढती जाएगी। कुटुम्ब और परिवार, कर्तव्य एवं त्याग भावना पर ही टिक सकेंगे।
अपना (Will) इच्छापत्र बनाते समय ठीक ध्यान दिया जाए; तो इस समस्या का व्यावहारिक समाधान कुछ मात्रा में सम्भव होगा, ऐसा मेरा अनुमान है।
समस्या के समाधान में ही समाज उन्नति कर पाएगा।
इस आत्मसुखदायी परस्पर व्यवहार को खोकर माटी का ढेला पाया तो क्या पाया?
गंगानन्द जी ने बडे समय के बाद आलेख डाला है।
सादर धन्यवाद —मधुसूदन
सर्वसामयिक और समसामयिक लेख। प्रत्युत्तर देने की स्थिति नहीं है और प्रत्युत्तर दोष को बढ़ाएगा ही। पर परिवर्तन अवश्यम्भावी एवं निरंतर है यह मानना ही नियति है। जब मिलती है तो खोएगी ही, जब कुछ या अधिक सामान या सम्मान अर्जित हुआ है तो जाएगा ही। तर्क की स्थिति या दर्शन की समझ नहीं है बल्कि यह अनुभवजन्य ही है, इस स्थिति के स्वीकारने के अतिरिक्त कुछ भी होगा उसका दुःखदायी होना बाध्यकारी है। कोई अपवाद नहीं। व्यक्ति अपवाद हो सकते हैं पर स्थितियां नहीं।
हम जीवन के एक पहलू को स्वीकार तथा दूसरे को अस्वीकार करते हैं, हमारी यही स्थिति दोषपूर्ण परिस्थितियों का निर्माण करती है। कोई मन्दिर में जाकर दुःख नहीं मांगता, मांगेगा तो अनहोनी घट सकती है। कोई भी विषम परिस्थियां नहीं चाहता। चाह ले तो वह घटित हो जाए तो कभी नहीं हुआ। हम केवल सुविधा, अनुकूलता तथा सहजता ही क्यों चाहते हैं जबकि ये सापेक्ष होते हैं तथा इनके चाहते ही दूसरे पक्ष का स्वयं निर्माण हो जाता है।
धन्यवाद, प्रोफेसर वीके