भाषायी विवादों के पीछे विभाजनकारी षड्यंत्र 

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

संत ज्ञानेश्वर और हिंदवी स्वराज्य प्रणेता छत्रपति शिवाजी महाराज की पुण्यभूमि में राजनीतिक वितंडावादियों ने ‘भाषा’ के नाम पर जिस अराजकता का परिचय दिया।हिंसा का मार्ग अपनाते हुए विभाजनकारी सोच का उत्पात मचाया। वह हर किसी को अंदर से झकझोर देने वाला षड्यंत्र है। वस्तुत: ऐसा करने वालों के मूल में ‘मराठी अस्मिता’ का भाव नहीं है। बल्कि वे भारत की विराट पहचान को मिटाने की कुत्सित सोच से ग्रसित हैं। आप सोचिए कि जिस महान महाराष्ट्र की भूमि में – संत नामदेव , संत एकनाथ, संत तुकाराम महाराज, संत बहिणाबाई,संत जनाबाई, संत कान्होपात्रा और समर्थ रामदास, संत गाडगे जैसी महान विभूतियों ने राष्ट्रीय एकता और एकात्मता को स्थापित किया हो। मूल्यों, संस्कारों और आदर्शों का मार्ग दिखाया हो। उस भूमि से अगर अलगाव के उत्पाती कृत्य आ रहे हों तो यह निश्चित तौर पर महाराष्ट्र की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र ही सिद्ध होता है।‌ जो ‘मराठी अस्मिता’ के नाम पर समाज में विभाजन फैला रहे हैं। विराट हिंदू समाज को बांटने का षड्यंत्र कर रहे हैं। वे महाराष्ट्र के आदर्शों की कही या लिखी गई — ऐसी एक पंक्ति लाकर समाज के मध्य दिखला दें। जो किसी भी प्रकार के विभाजन की बात करती हो। ऐसे में क्या यह अक्षम्य अपराध नहीं है? क्या महाराष्ट्र की महान परंपरा को आघात पहुंचाने वालों को समाज स्वीकार करेगा? 

ईश्वरीय निमित्त वश मुझे छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य स्थापना के 350 वें वर्ष पर एक ग्रंथ के संपादन का सौभाग्य मिला। उस समय मैंने छत्रपति शिवाजी महाराज से जुड़े कई ग्रंथों का अध्ययन किया।‌विभिन्न विद्वानों के विचारों को पढ़ा और सुना। लेकिन एक भी अंश ऐसा नहीं पाया जब छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्थानीयता, प्रांतीयता की परिधि में स्वयं को समेटा हो। उनके कार्यों और विचारों की दृष्टि सर्वदा अखिल भारतीय-अखंड भारत वर्ष पर ही केंद्रित रही।‌ शिवाजी महाराज ने जब स्वराज्य की स्थापना की तो उसका नाम उन्होंने ‘महाराष्ट्र’ या मराठी राज्य नहीं किया। अपितु उन्होंने उसका नामकरण’हिंदवी स्वराज्य’ किया। उन्होंने स्वराज्य के संचालन के लिए जब ‘राज व्यवहार कोश’ का निर्माण कराया।‌उस समय उन्होंने अरबी फ़ारसी के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ और मराठी के शब्दों का शब्दकोष बनवाया। इसी प्रकार शिवाजी महाराज की राजमुद्रा में ‘संस्कृत’ का प्रयोग किया गया। उनकी राजमुद्रा में लिखा रहता था— 

“प्रतिपच्चन्द्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववन्दिता ।

शाहसूनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते ।।”

अभिप्रायत: छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिस महान हिंदवी स्वराज्य की स्थापना की। राष्ट्रीय एकता और एकात्मता को स्थापित किया। अब उस पर ‘मराठी अस्मिता’ के नाम पर आघात किया जा रहा है। विराट हिंदू पहचान को संकुचित और संकीर्ण दायरों में समेटने का अक्षम्य अपराध किया जा रहा है। ऐसा करने वाले ये वही लोग हैं जिन्हें ‘मराठी मानुष’ ने चुनावों में सिरे से खारिज़ कर दिया है। क्योंकि महाराष्ट्र की जनता अपनी महान विरासत के साथ राष्ट्रीय विचारों के साथ एकात्म है।उसे किसी भी हाल में विभाजन स्वीकार नहीं है। ऐसे में विभाजनकारी मानसिकता से ग्रस्त लोग और राजनेता; समाज की एकता को खंडित करने में जुट गए हैं। चाहे हिंदी हो, मराठी हो, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ हो या बंगाली हो। संस्कृत हो मलयालम हो, कोंकणी,संथाली या उड़िया हो चाहे पंजाबी हो। याकि कश्मीरी, असमिया, बोडो या डोगरी हो। संथाली, सिंधी, नेपाली हो। सभी भारतीय भाषाएं हमारी हैं। भारत की कोख से जन्मी हर भाषा, बोली और परंपराएं हमारी अमूल्य विरासत हैं। ये किसी व्यक्ति विशेष या राज्य विशेष की संपत्ति नहीं हैं बल्कि हर भारतीय का जीवन मूल्य और संस्कार हैं। इनमें राष्ट्र की महान परंपरा और संस्कृति का अविरल और अक्षुण्ण प्रवाह अंतर्निहित है। जो एक ही धुन सुनाता है जय-जय जय भारत।‌

ऐसे में भला कोई ये दावा कैसे कर सकता है कि— ये मेरी भाषा है-ये तुम्हारी भाषा है? क्या हमारे महापुरुषों और भाषाओं ने किसी भी व्यक्ति, दल या समूह को ऐसे कोई अधिकार दिए हैं? क्या समाज ने कभी भी ऐसे विभाजन को स्वीकार किया है? क्या हमारे संविधान ने ऐसे किसी भी प्रकार के भेदभाव का प्रावधान किया है? इन सबका उत्तर है— नहीं। भारत के कोने-कोने में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपनी हर भाषा, बोली, परंपराओं के प्रति गहरा आदर और श्रद्धा रखता है। उसे अपनी सभी भाषाओं और सभी परंपराओं से प्रेम है। उसके लिए कुछ भी अपना या पराया नहीं है। हमारे सभी श्रद्धा के केंद्र, आदर्श, महापुरुष और भाषाएं हमें एकता के सूत्रों से गुंफित किए हुए हैं।‌हम सबका मस्तक अपनी महान परंपरा के हर मानबिंदु के समक्ष श्रद्धा से नत होता है। यही तो भारतीय मूल्य और संस्कार हैं। हो सकता है सभी को हर भाषा नहीं आती हो। किसी को सभी भारतीय भाषाएं आती हों। किसी को दो-चार या उससे अधिक भाषाएं आती हों।‌लेकिन इसका अर्थ तो ये नहीं कि — इस आधार पर कोई अपनी श्रेष्ठता का दावा करेगा? किसी के साथ अत्याचार या भेदभाव करेगा। यह तो असह्य है। इसे किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।‌ 

दूजे जहां तक बात रही ‘हिंदी’ के विरोध की — तो ये कोई नई बात नहीं है। भारत विभाजनकारी शक्तियां ‘हिंदी और हिंदू’ के विरोध से अपना षड्यंत्र शुरू करते हैं और फिर हिंदुस्तान के विरोध में उतर जाते हैं। भारत विभाजनकारी शक्तियों का एक और अंतिम लक्ष्य है भारत राष्ट्र का खंडन करना। इसके लिए वो कभी समाज को भाषा के आधार पर लड़ाएंगे। कभी जाति और महापुरुष के नाम पर लड़ाएंगे।‌कभी क्षेत्रवाद, बोली, पहनावों और परंपराओं के नाम पर समाज के मध्य विभाजन की दीवार खड़ी करेंगे। क्योंकि उन्हें ये पता है कि विराट हिंदू समाज को छोटे-छोटे विभाजनों में फंसाकर आसानी से तोड़ा जा सकता है।लेकिन अगर एक और अंतिम पहचान ‘हिंदू’ है तो वे मुंह की खाएंगे।वे कभी भी हिंदू समाज को कमजोर नहीं कर पाएंगे। बस इसी के निमित्त वो कोई न कोई ऐसा भावनात्मक मुद्दा उठाएंगे जो हिंदू समाज को आपस में ही लड़ा देने वाला हो। वो भावनाओं को उद्वेलित करेंगे। मुद्दा बनाएंगे और समाज में विभाजन के विष फैलाने में जुट जाएंगे। अक्सर जो राजनीतिक दल, नेता या समूह हिंदी या संस्कृत का विरोध करते दिखते हैं। वो क्या कभी विदेशी विशेषकर ‘अंग्रेजी’ भाषा का विरोध करते नज़र आए हैं? क्या कभी आपने ऐसा देखा है कि — वे अंग्रेजी के बायकॉट का अभियान चलाते दिखे हों। आप एक भी उदाहरण नहीं देखेंगे। क्योंकि भाषायी आधार पर समाज में अलगाववाद फैलाने वालों का एजेंडा भारतीय भाषाओं-स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देना नहीं है। बल्कि हिंदी विरोध के नाम पर समाज में विभाजन उत्पन्न करना और ध्रुवीकरण करना है। ताकि उनकी राजनीतिक सत्ता बनी रहे और संपूर्ण हिंदू समाज एकजुट न हो पाए। इतना ही नहीं भाषायी या क्षेत्रीय आधार पर अलगाववाद फैलाने वालों के पीछे कई सारी भारत विरोधी शक्तियां काम करती हैं। जो कभी राजनेताओं के माध्यम से,कभी समूहों के माध्यम से — विभाजन उत्पन्न करती रहती हैं।‌ प्रायः चुनावों के समय इसकी गति बढ़ जाती है। क्या आप ये सब अनुभव करते हैं? अगर हां तो तय मानिए कि ये सब बिल्कुल योजनाबद्ध ढंग से किया जाता है। आपने ध्यान दिया होगा कि—

असमय ही हिंदी विरोध की ये मुहिम कभी इस राज्य से तो कभी उस राज्य से दिखाई देती है। ये सब इसलिए होता है क्योंकि राष्ट्र की अधिसंख्य जनता हिंदी में एकता और राष्ट्रीयता का बोध पाती है। ऐसे में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को व्यक्त करने वाले जितने भी प्रतीक, आदर्श और व्यवहार होंगे। उनके विरोध में अलगाववाद का वातावरण तैयार करना— राष्ट्रद्रोही शक्तियों का उद्देश्य है।‌

इसीलिए हम सबकी सतर्कता और सजगता की महती आवश्यकता है।‌ हम देश के किसी भी हिस्से में रहें। जहां भी पृथकता और अलगाववाद के ये कुकृत्य हों। उनका हमें मुखरता के साथ प्रतिकार करना चाहिए।क्योंकि हम सब भारतवासी — भारत माता की संतान हैं। जो हमारी माता का अपमान करेगा। भारत माता को पीड़ा देने का अपराध करेगा। हम भला उसे कैसे छोड़ सकते हैं? हमारी परंपरा तो यही कहती है न कि— न्यायार्थ अपने बंधु को भी, दंड देना धर्म है।

अतएव हम सबकी जितनी भी भिन्न-भिन्न पहचाने हैं वो सब ‘राष्ट्रीयता’ और हिंदुत्व की छतरी के नीचे ही समवेत होनी चाहिए। एकाकार और एकात्म होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो हम नि:संदेह यह मान लें कि हम किसी बहुत बड़े विभाजनकारी ‘ट्रैप’ का टूल बनते जा रहे हैं। 

हमारी सभी भाषाएं, बोलियां, प्रांत, स्थानीयता वेशभूषा सबकुछ राष्ट्र की एकता-अखण्डता को अभिव्यक्त करने वाली हैं। भारत की संस्कृति इतनी विविधवर्णी है कि वह अपने संयोजन में संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती है। अनंत कलाएं, अनंत परंपराएं और शैलियां आपको मिलेंगी। लेकिन सबके केन्द्र में सर्वसमावेशी दृष्टि और सृष्टि का दर्शन मिलेगा। आप किसी भी भाषा, बोली या क्षेत्र में जाइए वहां एकता के सूत्र एक मिलेंगे। हमारे आदर्श, मूल्य और संस्कार एक मिलेंगे। कहीं कोई विभाजन नहीं मिलेगा। हां ये ज़रूर हो सकता है कि इनके रुप और अभिव्यक्तियां अलग-अलग हों। लेकिन मूल और ध्येय आपको एक ही मिलेगा जो राष्ट्र को अभिव्यक्त करेगा। अपनी-अपनी परंपराओं, क्षेत्रों , बोलियों और भाषाओं के प्रत्येक आदर्शों को देख लीजिए। कहावतों, मुहावरों और सूक्तियों को देख लीजिए। संतों और विद्वानों को देख लीजिए। उनके विचारों और कार्यों में ‘विराट राष्ट्र’ और एकता, समरसता, बंधुता और प्राणि मात्र के कल्याण की ही भावना मिलेगी। सबमें राष्ट्र की परंपरा का अविरल प्रवाह मिलेगा जो सबको सत्मार्ग की ओर ले जाने वाला है। यही हमारा वैशिष्ट्य है। यही हमारी शक्ति और सामर्थ्य है।‌ लेकिन भारत की यही शक्ति और सामर्थ्य भारत विरोधियों को रास नहीं आ रही है। दुराग्रही कुंठित राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को राष्ट्रीयता का यह विराट स्वरूप पच नहीं पा रहा है। क्योंकि अलगाववाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद के नाम पर बने राजनीतिक दलों को जनता ने बारंबार ख़ारिज कर दिया है। ऐसे में राष्ट्रीयता के समस्त मूल्य और आदर्श उनके लिए बाधक सिद्ध हो रहे हैं। इसीलिए वो अपनी खीझ उतारने के लिए किसी भी स्तर तक नीचे गिरते चले जा रहे हैं। लेकिन क्या राष्ट्र और समाज उन्हें देख और समझ नहीं रहा है? अगर उन्हें ये भ्रम है तो वो जितना जल्दी हो उसे दूर कर लें। क्योंकि ये राष्ट्र अपने महान आदर्शों और परंपराओं के साथ आगे बढ़ चला है। जो हर विभाजन का मुखर प्रतिकार कर रहा है। एकता की बांसुरी बजाता हुआ—हर भाषा और परंपराओं को अपनाता हुआ नित निरंतर आगे बढ़ रहा है। ये राष्ट्र पाञ्चजन्य का शंखनाद करते हुए समरसता का जीवन जीते हुए नई लीक बनाते की ओर बढ़ चला है। 

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

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