—विनय कुमार विनायक
कुछ अच्छा सा काम करो हे मन!
जाने क्यों असमय छूट जाता तन!
हमारे नहीं, हमारे परिजन के प्राण,
जिनके बिना दुखद होता ये जीवन!
जिनके निधन से लोग होते निर्धन!
जिनके दम पे सफल था ये जन्म!
जिन नाते-रिश्ते पर इतराते थे हम,
जिनके होने से मिलता था दम-खम,
जिनके ना होने से जगत मिथ्या-भ्रम,
जिनके बाद ना न्यारा कोई सम्बन्ध!
हे मन! कुछ तो करो ऐसा जतन,
कि जबतक छूटे ना ये भव बंधन,
तब तक ना हो कोई करुण क्रंदन!
हे मन! त्याग करो हर अहं-वहम,
झूठ,फरेब औ’ दिखावे का बड़प्पन!
प्यार करो सब जीव-जगत प्राणी से,
नफरत छोड़ो पराए आस्था-दर्शन से!
दया करो सबपे जाति धर्म भूलकर,
राष्ट्र सर्वोपरि,देशभक्ति सबसे उपर,
सिर्फ माता-पिता, सज्जन हैं ईश्वर,
बांकी सब-कुछ धार्मिक खोखलापन!
छोड़ो फिरकापरस्ती की घिनौनी रीति,
निस्वार्थ भाव से करो मानव से प्रीति!
करो ना अहित किसी जन का रे मन!
हत्या ना करो किसी प्राणी का निर्मम!
मचाओ नहीं धर्म के नाम कोई उधम,
पाप की कमाई करना छोड़ दो हे बंदे,
झूठ-पाखंड का झंडा मत गाड़ो रे मन!
यौवन के नशे में, नहीं करो अपमान,
किसी उम्रदराज जन के चौथेपन को,
दीन-हीन पदविहीन की उपेक्षा करना,
पद-पैसा-प्रतिष्ठा का मुखापेक्षी होना,
मानव जीवन के दुःख का है कारण!
रंगभेदी,जातिवादी,धार्मिक-उन्मादी होना,
सज्जन के कृतकार्य का कृतघ्न बनना,
दुर्जन का प्रशस्तिगान नहीं है शुभकर्म!
ठीक नहीं है पद-पैसे के प्रति पागलपन,
ये नहीं मानव जीवन का लक्ष्य-आभूषण!
जीवन है रंगमंच, अच्छा सा किरदार चुनो,
राम बनो,लक्ष्मण बनो, सीता, मंदोदरी बनो,
मगर रावण बनना,कभी नहीं स्वीकार करो,
चाहे मंच रहे या टूटे,रंगमंच से चक्कर छूटे,
हे मन!छल-प्रपंच को स्वयं दरकिनार करो!
अपने कृत कर्म का न कोई दूजा जिम्मेदार,
पराए को प्रतिवादी बनाना छोड़ दो हे मन!
—विनय कुमार विनायक