डॉक्टर्स डे: कठिन है चुनौती

भारत रत्न डॉ बिधान चंद्र रॉय के जन्म एवं निर्वाण दिवस 1 जुलाई को मनाए जाने वाले डॉक्टर्स डे के अवसर पर एक चर्चित प्रसंग याद आ रहा है,संभवतः सन 1933 में मई माह में जब हरिजनों के हितों की रक्षा के लिए महात्मा गाँधी पूना में 21 दिन के उपवास पर थे,उनकी अवस्था चिंताजनक थी, तब उनके मित्र और चिकित्सक डॉ बी सी रॉय उनकी चिकित्सा के लिए आए। बापू ने पहले तो औषधि लेने से इंकार कर दिया क्योंकि वे भारत में निर्मित नहीं थीं। उन्होंने डॉ बी सी रॉय से कहा- तुम मेरी मुफ्त चिकित्सा करने आये हो किन्तु क्या तुम देश के 40 करोड़ लोगों को मुफ्त इलाज दे सकते हो? डॉ रॉय ने उत्तर दिया- नहीं। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं सबका मुफ्त इलाज नहीं कर सकता। लेकिन यहाँ मैं मोहन दास करमचंद गाँधी का इलाज करने नहीं आया हूँ, बल्कि उस व्यक्ति का इलाज करने आया हूँ जिसे मैं हमारे देश की 40 करोड़ जनता का प्रतिनिधि समझता हूँ। कहा जाता है कि इस उत्तर को सुनकर बापू ने हथियार डाल दिए और चिकित्सा के लिए सहमत हो गए।
दो महान विभूतियों के बीच का यह वार्तालाप आज के डॉक्टर्स डे पर और भी ज्यादा मननीय है। क्या प्रश्न अभी भी वही है- क्या हम सारे देशवासियों को मुफ्त चिकित्सा दे सकते हैं? अथवा कुछ बदल गया है- क्या लोगों को मुफ्त चिकित्सा देने का विचार अब अप्रासांगिक हो गया है और क्या अब हमने इसे त्याग दिया है? 1991 में देश की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण प्रारम्भ हुआ और यह माना गया कि राज्य के धन,समय,संसाधन आदि चिकित्सा एवं शिक्षा जैसे महत्वहीन विषयों पर जाया न किए जाएं बल्कि इन क्षेत्रों में निजीकरण के द्वारा कॉर्पोरेट्स को बढ़ावा दिया जाए। जितनी ही अधिक व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा इन क्षेत्रों में होगी जनता को उतनी ही गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सेवा एवं शिक्षा उपलब्ध होगी। यह चिकित्सा के बाजारीकरण का चिर परिचित तर्क था जिसे असहमत होते हुए भी मानना एक अपरिहार्य सत्य है।
बहरहाल चिकित्सा के बाजारीकरण का असर चिकित्सा शिक्षा पर भी अनिवार्यतः पड़ा है और निजी मेडिकल कॉलेजों में बहुत बड़ी राशि कैपिटेशन फी के रूप में देने के बाद चिकित्सा के बाजार में कदम रखने वाले नव चिकित्सकों का व्यवहार यदि व्यापारियों जैसा है तो इसमें आश्चर्यचकित होना हमारी अपरिपक्वता है। इतनी महंगी चिकित्सा शिक्षा के बाद निजी नर्सिंग होम बनाना एक भारी इन्वेस्टमेंट है और इस सारी लागत को वसूलने के लिए आम व्यापारियों जैसी ‘छोटी-मोटी’ चालाकियाँ करना भी व्यवसाय का एक अंग है, यद्यपि ये चालाकियाँ नाप तौल के तराजू के साथ नहीं मानव शरीर के साथ की जाती हैं। निजी नर्सिंग होम्स का संचालन भी एक चुनौती है क्योंकि विशाल कॉर्पोरेट्स द्वारा संचालित मल्टी स्टार हॉस्पिटल्स की संख्या तेजी से बढ़ रही है, इनकी एग्रेसिव मार्केटिंग के कारण ये शहरों और छोटे छोटे ग्रामों में ‘सेवा’ देने वाले डॉक्टर्स तक पहुँचने में सफल रहे हैं और इनके माध्यम से अपने मरीज ग्राहकों को सीधे अपने परिसर में लाने में कामयाब रहे हैं जहाँ उनकी देखरेख हॉस्पिटल मैनेजमेंट के द्वारा दिए गए आय के एनुअल टारगेट के बोझ से दबे हुए कॉर्पोरेट कल्चर्ड डॉक्टर्स द्वारा की जाती है। कई बार अपना टारगेट अचीव करने की जल्दीबाजी में इन डॉक्टर्स से कोई चूक हो जाती है तो मरीजों के परिजन मारामारी पर उतर आते हैं और बावजूद हॉस्पिटल प्रबंधन द्वारा मरीज के दाखिले से लेकर उसके इलाज के हर कदम पर बरती गई सावधानियों के कुछ फसादी कस्टमर्स कंज्यूमर फोरम की शरण में चले जाते हैं। ये दोनों ही बातें डॉक्टर्स के लिए अत्यंत पीड़ाजनक होती हैं। अनेक वरिष्ठ चिकित्सक इस सम्बन्ध में अपनी राय देते हुए कहते हैं कि चिकित्सकीय सेवाओं को कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट के दायरे में लाने से स्थितियां जटिल हुई हैं। इनका यह भी कहना है कि मरीज और उसके परिजनों तथा डॉक्टर्स के बीच उत्पन्न संवादहीनता इस स्थिति के लिए उत्तरदायी है। कुछ बहुसितारा हॉस्पिटल्स में अब मरीजों और उनके परिजनों की बाकायदा काउंसलिंग का प्रबंध किया जा रहा है जिसमें उन्हें बताया जाएगा कि मरीज के इलाज में संभावित खर्च कितना होगा और इस इलाज में क्या क्या खतरे हो सकते हैं। विमर्श का मूल मुद्दा कि- क्या डॉक्टर और रोगी का सम्बन्ध महज सेवा प्रदाता और उपभोक्ता का है- अचर्चित ही बना रहेगा। दुःख का विषय है कि डॉक्टर्स डे पर हम आज यह चर्चा कर रहे हैं कि ईश्वर का दूसरा रूप कहलाने वाला चिकित्सक क्या अब व्यापारी बन गया है? पीड़ित मानवता की सेवा करने वाला क्या अब सेवा प्रदाता बन गया है? क्या अब हम इसलिए डॉक्टर बनना नहीं चाहते कि दीनदुःखी और असहाय लोगों की सेवा कर सकें बल्कि हमारा ध्येय डॉक्टर बनकर महज पैसा कमाना है? नफ़े नुकसान की बही लेकर बैठने वाला डॉक्टर दूर दराज के गाँवों में कैसे जाएगा? कॉर्पोरेट ग्रुप्स द्वारा संचालित हॉस्पिटल्स कैसे मुनाफा कमायेंगे यदि हमारे सरकारी हॉस्पिटल्स की सुविधाओं का स्तर इनके बराबर हो जाएगा? क्या मेडिकल रिसर्च को निजी हाथों में सौंप कर हमने अपने विनाश को न्यौता नहीं दिया है? अब रिसर्च के वे ही नतीजे इन व्यापारिक समूहों द्वारा सार्वजनिक किये जा रहे हैं जिससे इन्हें आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। डॉक्टर को दवा विक्रेता कंपनियों की उल्टे-सीधे दामों वाली औषधियों के विक्रय का एक उच्च शिक्षा के आवरण में ढंका हुआ एजेंट बना दिया गया है। हरियाणा के सोनीपत के अधिवक्ता वीरेंद्र सांगवान के कोरोनरी स्टंट की कीमतों के बारे में लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद आखिरकार सरकार ने इसकी कीमतों में पारदर्शिता लाने का एलान किया तो पता चला कि कोरोनरी स्टंट के बहाने कैसी लूट मची थी। यह तो महज एक उदाहरण है जो सामने आ गया, ऐसे कितने ही मेडिकल प्रोडक्ट और प्रोसीजरस हैं जिनके मनमाने दाम हमसे वसूले जा रहे हैं। स्मार्ट फ़ोन के उपयोगकर्ता खुद कुछ ऐसे मोबाइल एप्स जो स्वयं व्यावसायिक हितों से सम्बंधित हैं (1mg आदि) द्वारा यह देख सकते हैं कि समान कम्पोजीशन वाली दवा अलग अलग ब्रांड नेम्स से विभिन्न कंपनियों द्वारा कैसे आश्चर्यजनक रूप से विभिन्न दामों में बेची जाती है।
यह उत्सवधर्मिता का ऐसा युग है जब उत्सवों की मूल आत्मा की हत्या करने के लिए बाह्य आडम्बरों और कर्मकांडों को ध्यानाकर्षण का विषय बनाया जा रहा है। इस डॉक्टर्स डे पर हमें उन हजारों ऐसे चिकित्सकों को खोज कर सम्मानित करना चाहिए जो अभी भी सुदूर ग्रामों और छोटे-बड़े नगरों में निःस्वार्थ भाव से लोगों का निःशुल्क या नाम मात्र की फीस लेकर इलाज करते हैं और जो चिकित्सक की ईश्वरतुल्य छवि की रक्षा का मौन संघर्ष कर रहे हैं। इनकी चर्चा कोई नहीं करेगा क्योंकि ये डॉ बी सी रॉय की परंपरा के संवाहक हैं। डॉक्टर बंधुओं को भी सोचना होगा कि मुनाफे पर आधारित जिस तंत्र का उन्हें भाग बना लिया गया है वह बिना उनके और रोगियों के नहीं चल सकता। यदि वे बाजार की इस मजबूरी को भुना सकें और लोगों को अपने स्वास्थ्य हितों तथा अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक बना सकें तो इससे चिकित्सा को एक सीमा तक मानव केंद्रित बनाने में मदद मिलेगी और उनका खोया हुआ गौरव वापस प्राप्त होगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,467 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress