हमारे प्रिय शर्मा जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। कभी उनके भीतर का कवि जाग उठता है, तो कभी अभिनेता। कभी वे समाजसेवी बन जाते हैं, तो कभी पाकशास्त्री। इन दिनों उनके मन में छिपे पत्रकारिता के कीटाणु प्रबल हैं। वे हर घटना और दुर्घटना का एक अनुभवी और सिद्ध पत्रकार की तरह विश्लेषण करने लगते हैं। भले ही उनकी बात कोई सुने या नहीं; पर वे एक बार चालू होते हैं, तो फिर रोकने के लिए बांस-बल्लियां लगानी पड़ती हैं। इस चक्कर में उनके साथी भी उनसे किनारा करने लगे हैं; पर वे हैं कि मानते ही नहीं।
मैंने तो बात हंसी में कही थी; पर वह शर्मा जी की समझदानी में बैठ गयी। मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ का गीत ‘‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’’ उन्हें याद आ गया। अतः घर पहुंचकर वे बोरिया बिस्तर बांधने लगे। मैडम को पता लगा, तो उन्होंने बहुत समझाया; पर समझदारी और शर्मा जी के बीच कई किलोमीटर की दूरी है। सो वे अपनी जिद पर अड़े रहे और रात की गाड़ी से अगले दिन सुबह लखनऊ जा पहुंचे।
पर अब लखनऊ से आगे कहां जाएं, इस बारे में उनकी जानकारी शून्य थी। अखबारों में डौडियाखेड़ा का नाम आ रहा था। सो वे टिकट की लाइन में लग गये। आधे घंटे की कसरत के बाद खिड़की पर पहुंचकर जब उन्होंने डौडियाखेड़ा का टिकट मांगा, तो टिकट बाबू ने उन्हें ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा, जैसे चिडि़याघर के जानवर को देखते हैं। फिर उसने शर्मा जी का हाथ पीछे धकेलते हुए कहा कि इस नाम का कोई स्टेशन नहीं है। उधर पीछे वाले भी उन्हें लगातार धकिया रहे थे। इस भीषण धक्कामुक्की में फंसकर शर्मा जी लाइन से बाहर तो हुए ही, उनकी कमीज भी फट गयी।
हार कर उन्होंने कुलियों से पूछा, तो एक ने उन्नाव जाने को कहा, जबकि दूसरे ने कानपुर। तीसरे ने आंख दबाकर हंसते हुए कहा कि डौडियाखेड़ा और वहां के राजा राव रामबख्श सिंह की 1857 के स्वाधीनता संग्राम में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सो वे एक तांगा कर लें। तांगेवाला उन्हें लखनऊ से लेकर अवध तक का पूरा इतिहास और भूगोल बताते हुए शाम तक डौडियाखेड़ा पहुंचा देगा।
शर्मा जी परेशान हो गये। इधर चाय की तलब जोर मार रही थी। इसलिए उन्होंने स्टेशन से बाहर आकर कई कप चाय पी। इससे पेट कुछ गरम हुआ और दिमाग ठंडा। अब उन्होंने इधर-उधर के चक्कर में न पड़कर सामने दिखाई दे रहे एक पुलिस वाले से ही पूछ लिया। पुलिस वाले ने भी उन्हें टिकट बाबू वाले अंदाज में ही देखा और बोला, ‘‘आओ प्यारे। बिल्कुल ठीक जगह पहुंचे हो। तीन दिन से मैं डौडियाखेड़ा वालों को ही निपटा रहा हूं। तुम 25 वें आदमी हो। चलो मेरे साथ थाने।’’
शर्मा जी का उ.प्र. में आने का यह पहला ही अवसर था। उन्हें यहां के पुलिस वालों की विशिष्ट भाषा और संस्कारों की जानकारी नहीं थी। वे उसके साथ चल दिये। वहां कई चोर, उचक्के और जेबकतरे पहले से मौजूद थे। शर्मा जी समझ गये कि वे जिसे ‘‘आज निशा का मधुर निमन्त्रण’’ समझ रहे थे, वह वस्तुतः ‘‘मुसीबत को खुला आमन्त्रण’’ था। थाने में उनका पर्स, कागज-कलम और मोबाइल आदि लेकर कुछ कागजों पर उनके हस्ताक्षर और अंगूठे के निशान लिये गये। एक सिपाही ने उनका फोटो भी खींचा और फिर उन्हें हवालात में बंद कर दिया।
शर्मा जी की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें ? दोपहर में उन्हें जो खाना दिया गया, वह अवर्णनीय था। रोटी का रंग, रूप और गंध देखकर इतिहासकारों के लिए भी उसका काल निर्धारण कठिन था। दाल के नाम पर कटोरी में जो चीज थी, उसे सूप कहना अधिक उचित था। खैर, मरता क्या न करता ? जैसे-तैसे उन्होंने दो रोटी उस सूप में डुबोकर गले की नीचे उतारीं।
शाम को बड़े दरोगा जी आये। उनके सामने हवालात में बंद सब लोगों की पेशी हुई। शर्मा जी ने अपनी बारी आने पर उन्हें हिन्दी और फिर अंग्रेजी में समझाने का प्रयास किया कि वे अपराधी नहीं, बल्कि डौडियाखेड़ा में सोने की खोज के लिए हो रही खुदाई की रिपोर्टिंग करने के लिए आये पत्रकार हैं।
थानेदार ने उन्हें दो डंडे रसीद किये और बोला, ‘‘पत्रकार महोदय, क्यों अपनी बिरादरी को बदनाम कर रहे हो ? दिल्ली में रहकर तुम इतना भी नहीं जानते कि सोना कहां और किसने छिपाकर रखा है। पुरातत्व वालों से कहो कि डौडियाखेड़ा में समय खराब करने की बजाय जनपथ के दस नंबरियों के यहां खुदाई करें। वहां बनी सुरंगें इटली, स्विटजरलैंड और अमरीका में खुलती हैं। धरती का कोयला और आकाश की तरंगें बेचकर वहां की महारानी और शहजादे ने जो सोना बनाया है, उसकी देखभाल के लिए ही उन्हें बार-बार विदेश जाना पड़ता है। और विदेश में जमा काले धन से तो सोने के पहाड़ खड़े हो जाएंगे। इसलिए उसे बरामद करने का प्रयास करें।’’
शर्मा जी ने कांपते हुए कुछ कहना चाहा, तो वह गुर्राया, ‘‘ज्यादा चूं-चपड़ की, तो हवालात से जेल की ओर सप्लाई कर दूंगा।’’ फिर उसने एक सिपाही को बुलाकर कहा कि इन्हें रेल में बैठा दो।
सिपाही शर्मा जी का हाथ पकड़कर उन्हें फिर स्टेशन पर ले आया। शर्मा जी ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘सर, मेरा जो सामान आपने लिया था, कृपया वह लौटा दें। मैं दिल्ली वापस कैसे जाऊंगा ?’’ सिपाही बोला, ‘‘लगता है उ.प्र. में पहली बार आये हो। यहां का राज इन दिनों बहुत मुलायम है। थाने से साबुत वापस जा रहे हो, यही क्या कम है। जहां तक दिल्ली की बात है, मैं तुम्हें मालगाड़ी में बैठा देता हूं। एक-दो दिन में पहुंच ही जाओगे।’’
पिछले कई दिन से सब प्रतीक्षा में हैं कि शर्मा जी डौडियाखेड़ा की खुदाई के अनुभव सुनाएं; पर वे अपने घर में ही नजरबंद हैं। लगता है उन्हें खोजने के लिए भी खुदाई ही करानी पड़ेगी।
बहुत ही अच्छा व्यंग. वहाँ तो सोना छोड़ लोहे का एक टुकड़ा भी नहीं मिला.सपने ही सच होने लगते तो दुनिया न जाने कहाँ कि कहाँ पहुँच गयी होती. पर क्या किया जाये, हमरिसरकार, हमारे नेता दिन रात सपने देखते हैं, उनमें ही जीते हैं.इन्हें तो जनता का धन मिल ही जाता है जिसका सपना वे देखते है,बदनसीबी तो जनता कि ही है कि उसकी एक वक्त कि भरपेट रोटी का भी सपना पूरा नहीं होता.अच्छे व्यंग के लिए आभार.
बहुत ही अच्छा व्यंग किया… जिसमें कुछ “सच्चाई” भी छिपी थी..
बधाई
अच्छा व्यंग