आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार

अभी दो ही दिन पूर्व दक्षिण दिल्ली के सांसद रमेश बिधूड़ी ने जो दर्द बयां किया, वास्तव में केन्द्रीय पदाधिकारियों के लिए चिंता का विषय है। केन्द्रीय पदाधिकारियों को इस मुद्दे को हल्के में न लेकर गंभीरता से मंथन करना चाहिए। क्योकि लगभग सभी स्थानीय नेता मोदी-योगी-अमित पर आश्रित रहकर बड़े सुरमा भोपाली बन रहे हैं।
व्यक्तिगत रूप से बिधूड़ी के बयां किए गए दर्द की दिल से सराहना करता हूँ। बिधूड़ी के दर्द को अन्यथा न लेकर, शीर्ष नेतृत्व गंभीरता से मनन करे। बिधूड़ी के ही दर्द ने उस लेख को ब्लॉग पर प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया, जिसे दो महीने से ड्राफ्ट के रूप में रखे हुआ था।
यदि स्थानीय स्तर पर मोदी-योगी-अमित के समान कार्य किया जाता, दिल्ली में सातों सीटें काफी अच्छे अंतर से जीती जा सकती थीं। स्थानीय नेताओं की कार्यशैली को देख दिल्ली में 4-2-1 का अनुमान लगाया जा रहा था। लेकिन त्रिमूर्ति के कठोर परिश्रम का ही परिणाम था कि दिल्ली की सातों सीटें भाजपा के पाले में ही आयीं। स्थानीय नेता अपनी वाह-वाही करने के उद्देश्य से सांसद को कार्यक्रम में आमंत्रित करते हैं, क्षेत्र में पता ही नहीं होता कि सांसद किस काम के लिए क्षेत्र में आया। कार्यक्रम स्थल पर संख्या देख हँसी आती है/थी। मंडल के ही लोग नहीं होते थे।
कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता है। मूल कथन इस तरह है कि इतिहास खुद को दोहराता है, पहले त्रासदी की तरह, दूसरे एक मजाक की तरह। हालांकि आगे चलकर इसमें यह भी जोड़ दिया जाने लगा कि इतिहास हमेशा एक ही तरह से खुद को नहीं दोहराता। कई बार वह भिन्न रूप में भी सामने आता है। ऐसे प्रसंग अक्सर सामने आते हैं जब इस तरह के सूक्त वाक्यों के जरिये अपनी बातें की जाती हैं। कुछ इसी तरह की बातें पांच वर्षों में गाहे ब गाहे की जाती रही हैं कि आने वाले दिनों में कभी खुद भाजपाई ही भाजपा को हराएंगे।
कोई भी पार्टी हो, दूसरी पार्टी से आये लोगों को सिरमौर बनाकर पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर देती है। उन्हें ऊँचे-ऊँचे पद पर आसीन कर दिया जाता है। चुनाव में टिकट भी दे दिया जाता है। पार्टी उम्मीदवार होने के नाते पार्टी के लिए लड़ना चाहिए, लेकिन होता एकदम विपरीत है। जबकि सबसे अधिक पार्टी को क्षति ये ही लोग पहुँचाते हैं, इस कटु सच्चाई को हमें समझना होगा।
विपक्ष के हाथों बिकने की शंका
देखिए प्रमाण। पूर्व भाजपा उम्मीदवार द्वारा व्हाट्सअप सन्देश, क्या ये पार्टी हित में है? यह व्हाट्सअप सन्देश प्रमाणित करता है, कि भाजपा के इस उम्मीदवार ने क्या गंभीरता से चुनाव लड़ा होगा? निश्चित रूप से विपक्ष के हाथ बिक अपनी निर्धनता दूर की होगी। जब इस उम्मीदवार ने नगर निगम चुनाव लड़ा था, पहली बार मंडल ने मतदान वाले दिन की लिए मेज-कुर्सी तक का प्रबंध नहीं किया था और मतदान वाले दिन पोलिंग इंचार्जों को सड़क पर ही सबके सामने जलील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब रात को बोल रहे हो, “मेज-कुर्सी का इंतजाम खुद करो।” अब रात को किस टैंट वाले के पास फालतू मेज-कुर्सी होगी? इसमें केवल उम्मीदवार ही नहीं, चुनाव संचालन करने वाले भी उतने ही दोषी हैं, जितना की उम्मीदवार। पिछले कुछ चुनावों से मतदाता सूची तक चैक नहीं हो रही।
चुनाव खर्चे में घोटाला
मतदान वाले दिन पोलिंग इंचार्ज को खर्चे पानी के लिए दिए जाते हैं मात्र 1500 रूपए। यह काम जिला और प्रदेश का है कि उम्मीदवार और चुनाव संचालक टीम से पूछे कि “क्या प्रति बूथ 1500 रूपए दिए थे?कहाँ हैं बाकी रूपए? पार्टी ऑफिस में जमा करवाओ।” इतना ही नहीं, पिछली बार(2014) में मात्र 1000 रूपए दिए थे। कहाँ तक चुनाव में धन अर्जित कर गरीबी दूर करने पर प्रकाश डाला जाए। चुनावों में दानी दान देते हैं, लेकिन लालची उस दान राशि पर भी अपना दाँत जमाए रखते हैं, फिर दावा यह कि भ्रष्टाचार दूर करेंगे। क्या ऐसे लोगों के रहते देश से भ्रष्टाचार दूर हो सकता है? 2019 लोकसभा चुनावों के अधिकतर मुस्लिम क्षेत्रों मतदान केन्द्र पर कोई भाजपा एजेंट तक नहीं था। इस तरह की सूचना मिलने पर इस बात की पुष्टि करने, अपने पुराने प्रेस कार्ड को लेकर 8/10 मतदानों पर जाकर सूचना को उचित पाया। मुस्लिम क्षेत्रों में भाजपा की कोई मेज-कुर्सी तक नहीं। इसीलिए ऊपर कहा कि लोकसभा चुनाव केवल मोदी-योगी-अमित की त्रिमूर्ति के अथक प्रयासों द्वारा जीते गया।
स्मरण हो, दो बार ऐसे भी मौके आए, जब पोलिंग पर खाना तक पहुंचा, कोई एजेंट और भाजपा कार्यकर्ता भूखा न रहे, मैंने अपनी धर्मपत्नी से जल्दी दाल, चावल और रोटी बनवाकर दी।
पूर्व भाजपा उम्मीदवार बगावत पर
आगामी विधान सभा चुनाव और नगर निगम चुनावों में ऐसे लोगों को चुनाव प्रचार-प्रसार से जितना दूर रखा जाए, पार्टी हित में होगा। समझ में नहीं आता की आखिर किस दबाव में ऐसे लोगों को पद देकर सम्मानित किया जा रहा है। जो चुनाव पूर्व ही पार्टी के विरुद्ध प्रचार कर रही हो। संभव है, आगामी चुनावों में पूर्व भाजपा उम्मीदवार द्वारा किया गया व्हाट्सअप सन्देश का विपक्ष लाभ उठाने का प्रयत्न करेगा। ऐसे लोगों को पार्टी में बनाए रखना, क्या उचित है?
झाड़ू को वोट दो
[4:32 PM, 6/17/2019] Bhandari Ashok: The below Msg.is from Sonia BJP ex MCD Candidate from Sita Ram Bazar Ward through phone No. 8860648747 [4:32 PM, 6/17/2019] Bhandari Ashok: आप सभी से प्रार्थना है जो भी साथी दिल्ली से हो या दिल्ली में उनके मित्र, साथी, संबंधित रिश्तेदारों को बोले “झाड़ू” को वोट दें। ये आपके बच्चों के भविष्य के लिए बहुत ही अच्छा विकल्प है। इस बार प्रधानमंत्री बनाने के चक्कर मे न पड़े। प्रधानमंत्री तो आपने 2014 में भी बनाया था क्या मिला ? न अच्छी शिक्षा, न अच्छा स्वास्थ्य न अच्छा आचार विचार दिल्ली में कांग्रेस जीत नही रही है। तो कांग्रेस को वोट दे कर अपना वोट खराब न करे। 2014 में दिल्ली की 7 सीट्स पर कांग्रेस 3 स्थान पर रही थी। और आम आदमी पार्टी मात्र कुछ वोटों से हार गई थी बीजेपी को 2019 में हराना बहुत जरूरी है। वरना हर जगह हिन्दू मुस्लिम होता रहेगा धर्म के नाम पर राजनीति चलती रहेगी । देश को आगे बढ़ाने में अरविंद केजरीवाल जी की मदद करे। नोट: झाड़ू को ही वोट दे।[4:32 PM, 6/17/2019] Bhandari Ashok: की मदद करे। नोट: झाड़ू को ही वोट दे। [4:36 PM, 6/17/2019] Bhandari Ashok: Party virodhi hai to party ke program me nahi shamil ho
व्हाट्सअप पर हुए इस सन्देश का किसी ने न खण्डन किया और न ही सोनिया श्रीवास्तव द्वारा इसका विरोध। मंडल के कुछ पदाधिकारियों द्वारा नाम गुप्त रखने पर जो बताया वह और भी चौंकाने वाला है। मतदान से लगभग 10 पूर्व भाजपा के इस निगम प्रत्याक्षी ने दो विपक्षी दलों से धन लेकर समझौता कर लिया था। सोनिया का चुनाव मंडल के इतिहास में पहला ऐसा चुनाव था, जिसमे बूथ पालको को मेज-कुर्सी तक नहीं दी, विपरीत इसके मतदान वाले दिन बूथ पालक को जनता के सम्मुख जलील करते देखा एवं सुना गया था। जमानत जब्त हो गयी, चिन्ता नहीं, लेकिन अपनी तिजोरी भर ली।
2019 के लोकसभा चुनावों के बाद नए सिरे से इसे कहा जाने लगा है। ऐसा कहते हुए इसका उदाहरण भी दिया जाता है कि जिस तरह कभी सर्वशक्तिमान बन चुकीं इंदिरा गांधी को खुद कांग्रेसियों ने मिलकर हराया था, उसी तरह भाजपा के साथ भी हो सकता है। ऐसी बातें करने वाले केवल आत्मसंतोषी नहीं लगते बल्कि उन्हें इसकी संभावना इस आधार पर लगती है कि जब भी कोई शासक खुद को सबसे ऊपर और सर्वशक्तिमान मानकर काम करने लगता है, तो उसके अपने ही उससे विमुख हो जाते हैं और झंडा बुलंद कर खुद का शासन स्थापित करने लगते हैं।भाजपा की मनःस्थिति काफी हद तक इंदिरा गांधी वाली स्थिति में
भाजपा के बारे में भी इस तरह की सोच-समझ रखने वालों की संख्या कम नहीं है जो यह मानकर चल रहे हैं कि आज की भाजपा की मनःस्थिति काफी हद तक इंदिरा गांधी वाली स्थिति में पहुंच चुकी है। लोग भूले नहीं होंगे जब कांग्रेसी ‘इंदिरा इज इंडिया’ कहने लगे थे। इंदिरा गांधी को दुर्गा तक कहा गया था। उन्होंने खुद को एक तरह की ऐसी सर्वशक्तिमान नेता के रूप में स्थापित करने में सफलता पाई थी कि उनके आसपास दूर-दूर तक कोई दूसरा नेता नहीं दिखाई देता था। तब कोई आसानी से यह सोचने की भी स्थिति में नहीं होता था कि कभी इंदिरा गांधी को भी हराया जा सकता है अथवा सत्ता से बाहर किया जा सकता है। लेकिन न केवल उन्हें लोगों ने सत्ता से बाहर कर दिया बल्कि तब ऐसा भी कहा जाने लगा था कि अब वह कभी भी उतनी मजबूत नहीं बन सकेंगी। यह काम किसी और ने नहीं, बल्कि कांग्रेसियों ने ही अलग होकर किया था और कारण बना था आपातकाल जो इंदिरा गांधी ने 1975 में लगाया था। इसके बाद कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़कर चले गए और अपनी पार्टियां बना लीं। बाद में सभी ने मिलकर जनता पार्टी बनाई और चुनाव कराए गए तो इंदिरा गांधी को करारी शिकस्त मिली और जनता पार्टी सत्ता में आ गई। इन नेताओं में मोरारजी देसाई से लेकर चौधरी चरण सिंह, जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा, चंद्रशेखर और रामधन जैसे कई नाम प्रमुख रहे हैं। आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में खुद इंदिरा गांधी को रायबरेली से पराजय का मुंह देखना पड़ा जो एक तरह की कांग्रेस की स्थायी सीट मानी जाती थी। तब समाजवादी नेता राजनारायण ने उन्हें अदालत में जाकर हराया था।
भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का दावा काम कर रहा
भाजपा के बढ़ते ग्राफ, कांग्रेस के लगातार कमजोर होते जाने और भाजपा के एजेंडों ने इस आशय की आशंकाओं को बल प्रदान किया है हालांकि 2019 के आम चुनाव में मतदाताओं ने फिर से मोदी की सरकार के लिए जनादेश दे दिया और वह भी पहले से ज्यादा संख्या बल के साथ। इस चुनाव में भाजपा को 303 सीटों पर जीत मिली। 2014 में उसे 282 सीटों पर जीत मिली थी। मतलब उसका ग्राफ बढ़ गया। इसके विपरीत हालांकि कांग्रेस की सीटें कुछ बढ़ीं जरूर लेकिन वह पिछले चुनाव से कुछ ही ज्यादा रहीं। कांग्रेस को 2014 में 44 सीटें मिली थीं। 2019 में यह संख्या 52 तक ही पहुंच सकी। इससे यह माना जा रहा है कि भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का दावा काम कर रहा है। अब दूसरी जीत के बाद सियासी हलकों में इस आशय की चर्चाएं भी जोर पकड़ने लगी हैं कि जो काम भाजपा सरकार अपने पहले कार्यकाल में नहीं कर सकी थी वह अब जरूर करेगी। इसमें ऐसे बहुत सारे मुद्दे रहे हैं जिन्हें भाजपा के खांटी मुद्दे माना जाता है। इनमें धारा 370 से लेकर 35 ए, राम मंदिर निर्माण, एनआरसी, हिंदुत्व, जैसे कितने ही मुद्दे शामिल हैं। इनमें से कोई भी मुद्दा कब बड़ा हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता और तब उस तरह की स्थिति उत्पन्न हो सकती है जैसी इंदिरा गांधी के समय हुई थी।
सांगठनिक स्तर पर कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी अंतर
इस संदर्भ में कुछ बातें ऐसी भी हैं जिनको नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। सांगठनिक स्तर पर कांग्रेस और भाजपा में कुछ बुनियादी अंतर भी हैं जो दोनों को एक दूसरे से अलग करते हैं। कांग्रेस शुरू से ही ऐसा संगठन रहा है जिसमें तमाम तरह के विचारों वाले रहते रहे हैं। भाजपा के साथ कभी भी ऐसा नहीं रहा है। अब जरूर ऐसा हुआ है कि चुनाव में जीत की गारंटी के लिए भले ही किसी को भी पार्टी में शामिल कर टिकट दे दिया जा रहा हो, लेकिन अभी भी वहां किसी को भी पार्टी लाइन से इतर जाने की इजाजत नहीं मिल पाती है। वैसे भी बाहर से भाजपा में आए नेताओं में किसी की ऐसी हैसियत नहीं लगती कि वह उससे अलग होकर कुछ कर सकेगा जिस तरह की क्षमता वाले उस समय के कांग्रेसी नेता थे। इसी तरह भाजपाई नेताओं के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि उनमें से कोई भी एक तो विद्रोह करने और अलग होने की मानसिकता वाला नहीं लगता। दूसरे वह कुछ कर सकता है, इसकी संभावना भी बहुत कम लगती है। इसके उदाहरण लालकृष्ण आडवाणी से लेकर मुरली मनोहर जोशी समेत तमाम नेताओं के मद्देनजर आसानी से देखे जा सकते हैं। यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे नेता विरोध में जरूर खड़े हैं, लेकिन वह भी बहुत कुछ कर नहीं पा रहे हैं। किसी के लिए यह मानना भी आसान नहीं लगता कि कांग्रेस इस देश की राजनीति से कभी पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। फिर भी संभावनाओं को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि राजनीति को संभावनाओं का खेल भी माना जाता है। इसीलिए यह भी कहा जाता है कि राजनीति कब किसे कहां ले जाएगी, कहा नहीं जा सकता। ऐसे में यह केवल देखने की ही बात होगी कि इतिहास खुद को दोहराता है अथवा नहीं और अगर दोहराता है तो किस रूप में।(लेखक Organiser साप्ताहिक से सेवानिर्वित, दो पुस्तक ‘The Mother Cow’ और ‘भारतीय फिल्मोद्योग–एक विवेचन’ का लेखन किया है। )
R.B.L.NIGAM