ईमानदारों पर भौंकते और गुर्राते हैं कुत्ते

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डॉ. दीपक आचार्य

कलियुग में ईमानदारों पर भौंकते और गुर्राते हैं कुत्ते

वह जमाना अब चला गया जब त्रेता युग में कुत्ते भी मनुष्य की वाणी बोलते थे। वो जमाना भी करीब-करीब चला ही गया है जिसमें चोर-उचक्कों और संदिग्धों को देख-सूंघ कर भौंकते थे कुत्ते। युधिष्ठिर का जमाना भी गुजर गया जब वफादारी दिखाने वाले कुत्ते को स्वर्ग की सैर का सौभाग्य मिला।

 

तब कुत्तों के नाम पर पर एक ही प्रजाति के कुत्ते हुआ करते थे। आज की तरह पालतू और जंगली कुत्तों की किस्में नहीं हुआ करती थी, और न ही आज की तरह कुत्तों की कई-कई प्रजातियाँ।

 

उन युगों में कुत्तों के प्रति मनुष्यों की संवेदनाएं और जीव दया के आदर्श भी जीवित थे। आज की तरह अपनों और दूसरों के कुत्तों में कोई भेदभाव नहीं था। कुत्ते सार्वजनीन हुआ करते थे।

 

इन कुत्तों को भी दूसरे जानवरों की तरह सम्मान प्राप्त था। आज की तरह कुत्तों की नस्ल भेद के अनुरूप सुविधाएँ, एसी-नॉन एसी, कुत्ता घर या बेड़ रूम या कुत्तों को मनुष्यों से भी कहीं ज्यादा आदर और सम्मान नहीं था।

 

कुत्ते भी मर्यादित हुआ करते थे। वे अपना स्थान और औकात अच्छी तरह जानते थे और उसी के अनुसार जीवन भर रहा करते थे। और वैसा ही व्यवहार करते थे। आज की तरह उस जमाने में कुत्ते बेड रूम, किचन और घर के अन्तरंग कक्षों में बेरोकटोक आवाजाही को स्वतंत्र नहीं थे।

 

उस जमाने में कुत्ते मुखिया या मालकिन, बाबा या बेबी अथवा साहब या मेम की बाँहों का सुकून पाने का साहस नहीं रखते थे और न ही उनके गद्दों व पलंगों पर अठखेलियां करने को स्वतंत्र थे जितने आज स्वच्छन्द हैं।

 

उस जमाने में कुत्तों की पूरी की पूरी जात को अनुशासन और मर्यादाओं का भान था, वे बुलाने पर ही जाते थे, आज की तरह बिना बुलाये दुम हिलाते-हिलाते भौं-भौं करते पीछे-पीछे चलते चले जाने की आदत उनमें लेश मात्र भी नहीं थी। वे वहीं जाते थे जहां बुलाया जाता था, बिन बुलाये जहां-तहां जमा हो जाने की आदत उनमें उस युग तक नहीं आ पायी थी।

 

खान-पान में तत्कालीन युगीन प्रभाव साफ झलकता था, वही खाते-पीते जो उनके लिए विहित होता था। आज की तरह चाहे जहाँ की झूठन खा-खाकर और मनमर्जी का पी-पीकर घूमते रहने की आदत भी उनमें नहीं हुआ करती थी।

 

बीते जमाने में कुत्तों को न झूठन से मोह था न झूठन खाकर किसी की जयगान और मिथ्यागान की कोई विवशता थी। वे जिसका खाते थे उसी की बजाते थे और उसी समाज के लिए काम करते थे जो समाज उन्हेंं पालता था। आज की तरह कुत्ते हराम की खाने के आदी नहीं थे।

 

तब कुत्तों का इतना आदर-सम्मान था कि आज की तरह उन्हें गलियों में कैद नहीं माना जाता था। आज की तरह अपनी-अपनी गलियों के कुत्ते अलग-अलग नहीं हुआ करते थे बल्कि कुत्ते समाज की सम्पत्ति होते थे और चाहे जहाँ वे बिना किसी बाधा के आ-जा भी सकते थे।

 

युगीन प्रभाव कहें या कि दैवीय गुणों से रिश्ता, उस जमाने में कुत्तों के देखकर दूसरे कुत्ते भौंका नहीं करते थे बल्कि भाई-बंधुओं का सा प्यार कुत्तों को हर कहीं प्राप्त होता था।

 

कुत्ते समाज की रक्षा का भाव रखते थे और सामाजिक व्यवस्था, सुरक्षा और मर्यादाओं से भरे प्रबन्धों में जहां कहीं कोई खामी दिख जाती, तत्काल कुत्तों का भौंकना शुरू हो जाता था और फिर बाद के सारे के सारे लोग कुत्तों की बात को समझते हुए अमल करना आरंभ कर देते थे।

 

उन दिनों चोर-उचक्कों, डकैतों और मलीन मन वाले संदिग्ध लोगों को देखकर ही कुत्तें भौंकना शुरू कर दिया करते थे। ज्यों-ज्यों कलियुग का प्रभाव बढ़ता गया, कुत्ते भी बदलते चले गए।

 

आदमियों की हराम की झूठन खा-खाकर आज कुत्तों की पूरी की पूरी आदतें ही बदल चली हैं। कुत्ते भौंकते भी हैं तो चोर-उचक्कों पर नहीं बल्कि ईमानदारों पर, क्योंकि बेईमानों की बढ़ती तादाद के बीच ये ही वे लोग हैं जो कम संख्या में नज़र आते हैं।

 

पहले कुछेक ही गलियाँ हुआ करती थीं कुत्तों की। आज कुत्ते हर कहीं विद्यमान हैं अपनी पूरी शान के साथ। दुनिया की हर गली उनकी अपनी है। पहले गली के कुत्ते शेर हुआ करते थे, आज जमाने भर के शेर गली के कुत्तों से भी गई बीती स्थितियों में हैं। दिन हो चाहे रात-बिरात, हर कहीं अब कुत्ते ईमानदार लोगों को शंकाओं की निगाह से देखते, भौंकते और गुर्राते रहने लगे हैं।

 

जो लोग बहुत कम संख्या में होते हैं उनकी ओर भीड़ की निगाह अपने आप चली जाती है। यही कारण है कि कुत्तों का पूरा का पूरा कुनबा अब ईमानदारों के पीछे पड़ा हुआ है। व्यक्तित्व से लेकर कर्मयोग और राष्ट्रीय चिन्तन तक में ईमानदारी का दिग्दर्शन कराने वाले लोगों को अब कुत्तों से डरना पड़ रहा है। यही सब चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब कुत्ते राष्ट्रीय पशु का दर्जा पा जाएंगे।

 

कुत्तों की आहट और गुर्राहट अब लीलने लगी है कि शांति और सुख-चैन को। सुख-चैन से रहना है तो कुत्तों से भी दूर रहें और कुत्तों के रखवालों से भी। आखिर कहीं न कहीं साथ रहते-रहते सत्संग का असर तो पड़ता ही है। जरा बच के रहियो उनसे ……..।

2 COMMENTS

  1. डॉ आचार्य जी ने अभिधा, लक्षणा और व्यंजना शैलियों के संयुक्त प्रयोग से बहुत सुंदर कुत्तापुराण रच दिया है- जो कि लेखर और लेखन प्रतिभा की एक अच्छी उपलब्धि है अब जिसे जैसा समझना है समझे- जाकी रही भावना जैसी।
    सादर

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