सत्ता बोले तो व्यवस्था डोले…

-तारकेश कुमार ओझा –
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 मैं लोकल ट्रेन में था और अखबार में खबर छपी थी कि कल रेल महाप्रबंधक ने लोकल ट्रेन में साधारण यात्री की तरह सफर किया और यात्रयिों की समस्याएं सुनी। यात्रयिों ने भी रेल व्यवस्था पर महाप्रबंधक को खूब खरी – खोटी सुनाई। लेकिन क्या आश्चर्य कि इसके दूसरे दिन भी ट्रेन में इसका रत्ती भर भी असर नजर नहीं आ रहा था।दूसरे पन्नों पर नजर डालते ही  मुझे मेरे सवालों का जवाब मिल गया। क्योंकि उन पन्नों पर दूसरे जोन के महाप्रबंधकों के भी इसी तरह साधारण यात्री की तरह लोकल ट्रेन  में सफर करने  और यात्रियों से बातचीत की खबर के साथ फोटो भी छपी थी। मतलब साफ था कि ऊपरी निर्देश पर की गई यह रस्मअदायगी थी। जैसा समय – समय पर नजर आता है। कभी यात्री सुरक्षा सप्ताह तो कभी विजलेंस व नारी सुरक्षा सप्ताह वगैरह – वगैरह।  लेकिन इससे आम यात्रियों की दशा में सुधार की उम्मीद बेमानी ही कही जाएगी। बहरहाल पिछले कुछ महीनों में जेब पर रेल- किराए का बोझ भले ही बढ़ गया हो, लेकिन कतार में खड़े होकर टिकट लेने से लेकर  डिब्बे की अपनी सीट पर बैठने तक चारों ओर भारी अराजकता व अव्यवस्था रेल महकमे में पहले जैसी ही है।कदम – कदम पर पहले की तरह ही   अनगिनत भिखारियों की फौज। ट्रेन दो – चार स्टेशन आगे बढ़ी ही थी कि भिखारियों की टोली के बीच किन्नरों का एक दल आ पहुंचा। हाथ की ताली की असर एेसा कि खुद को भूखा – नंगा बताने वालों के लिए सिक्के न निकालने वाले हाथ बड़ी सहजता से दस – दस के नोट निकाल कर किन्नरों के हवाले कर रहे थे। हर यात्री से कुछ न कुछ वसूल कर किन्नरों का वह दल दूसरे डिब्बे में चला गया। महकमे के जिन  सुरक्षा बलों को जवाबदेह बनाने की बात हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं , उसका कोई चिन्ह भी कहीं नजर नहीं आया। पूरी यात्रा के दौरान कहीं कोई जवान दिखाई नहीं दिया। सफर के अंत में जिस बड़े शहर के स्टेशन पर उतरा , वहां काफी संख्या में जवान अपनी डयूटी जरूर बजा रहे थे। काला कोट पहने टिकट चेकर या खाकी वर्दी वाले सुरक्षा जवान इधर – उधर हो रहे थे। ज्यादातर की निगाहें शिकार तलाशती नजर आई। वैसे भी जिस तरह रेल महाप्रबंधक के ट्रेन में सफर की रस्म – अदायगी हुई , उसी तरह इससे पहले किन्नरों के खिलाफ अभियान का एेलान या कथित यात्री या महिला  सुरक्षा सप्ताह जैसे दूसरे फंडे भी आजमा कर कर्तव्यों की इतिश्री समय – समय पर की जाती रही है। एेसी कुव्यस्था को देख मेरा जी उचट गया और मैं गहरे सोच में डूब गया। क्योंकि अभी पिछले साल ही तो सत्ता परिवर्तन के दौरान रेलवे के कायाकल्प की सबसे ज्यादा उम्मीद की गई थी। लेकिन यहां हालत तो बद से बदतर जैसी ही थी।अपने देश की एक विचित्र विडंबना है कि देश हो या प्रदेश सरकारों के बदलते ही हम व्यापक बदलाव की सहज ही उम्मीद करने लगते हैं। जबकि व्यवस्था अपने तरीके से चलती रहती है। एेसा नहीं है कि निजाम के बदलने पर व्यवस्था में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। जिस सूबे का राजनेता रेल मंत्री बने फिर देखिए उस सूबे में रेल की हालत। बेचारे नौकरशाह हर समय भयाक्रांत रहेंगे कि पता नहीं  कोई खास कहीं  मंत्री जी से उनकी चुगली कर दे या फिर सार्वजनिक सभा – समारोह में घुरहू – कल्लू मंत्रीजी के सामने उनकी पोल – पट्टी न खोलने लगे। लेकिन जैसे ही मंत्री बदला , व्यवस्था फिर अपने हिसाब से चलने लगती है। अब मेरे गृह प्रदेश पश्चिम बंगाल का उदाहरण लें। लगातार 34 साल के कम्युनिस्ट राज में सब कुछ लाल था लेकिन सत्ता बदलते ही सब कुछ हरा या नीला – सादा हो गया। कम्युनिस्ट राज में किसी कामरेड से फोन कराए गए बगैर सरकारी दफ्तरों का एक पत्ता भी नहीं हिलता था। आज भी सूरते हाल एक जैसी ही है। किसी बड़े टीएमसी नेता की सिफारिश – अनुशंसा के बाद ही अब आप सरकारी दफ्तरों में पत्ता हिलने की उम्मीद कर सकते हैं। अधिकारियों का वही पहले जैसा रवैया। यदि आप किसी नामचीन की सिफारिश साथ लाएं है तो आप से दो – एक बात हो सकती है। अन्यथा वही दशकों पुराना टरकाऊ रवैया। सचमुच हम भारतीयों की विचित्र विडंबना है। व्यवस्था बिल्कुल भी नहीं बदले लेकिन सरकारें बदलते ही हम परिवर्तन की उम्मीद करने लगते हैं।
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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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