-मनोज चौहान-
1) कविता / परिंदे
मैं करता रहा,
हर बार वफा,
दिल के कहने पर,
मुद्रतों के बाद,
ये हुआ महसूस
कि नादां था मैं भी,
और मेरा दिल भी,
परखता रहा,
हर बार जमाना,
हम दोनों को,
दिमाग की कसौटी पर ।
ता उम्र जो चलते रहे,
थाम कर उंगली,
वो ही शख्स आज,
बढा. बैठे समझ खुद की,
और सिखा रहें हैं मुझे अब,
फलसफा-ऐ-जिंदगी ।
उन नादां परिन्दों का,
अपना होने का अहसास,
करता रहा हर बार संचार,
मेरे भीतर एक नई उर्जा का ।
मैं खुश था कि,
मिल चुके हैं पंख,
अब उन परिन्दों को,
मगर हैरत हुई बहुत,
जो देखा कि,
वो भरना चाहते हैं,
कभी ना लौटने वाली,
उड़ान अब ।
2) कविता /खुले आकाश तले – मनोज चौहान
खुले आकाश तले ,
मैं बैठा था उस रोज,
विचार कर रहा था,
अपने ही अस्तित्व पर l
कि कौन हूं मैं,
और कंहा से आया हूं,
तलाशता रहा मैं,
जिंदगी के ध्येय को l
उस नीले गगन में दिखे,
कुछ घने बादल,
दिला रहे थे वो यकीन मानो,
कि बरसेगें वे भी एक रोज,
और कर देगें तृप्त ,
इस प्यासी धरा को l
भर जायेगे फिर,
सभी सूखे जल स्त्रोत,
खिल उठेंगे फिर,
पेड.-पौधे और वनस्पति l
बोध हुआ फिर मुझे,
मानव जीवन के ध्येय का,
स्मरण हो चले सभी कर्तव्य,
नीले आकाश में,
उमड़.ते वो घने बादल,
प्रेरणा स्त्रोत बन गए मेरे लिए।
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3) कविता / प्रकृति माँ – मनोज चौहान
हे प्रकृति माँ ,
मैं तेरा ही अंश हूं,
लाख चाहकर भी,
इस सच्चाई को ,
झुठला नहीं सकता ।
मैंने लिखी है बेइन्तहा,
दास्तान जुल्मों की,
कभी अपने स्वार्थ के लिए,
काटे हैं जंगल,
तो कभी खेादी है सुंरगें,
तेरा सीना चीरकर ।
अपनी तृष्णा की चाह में,
मैंने भेंट चढ़ा दिए हैं,
विशालकाय पहाड.,
ताकि मैं सीमेंट निर्माण कर,
बना संकू एक मजबूत और,
टिकाऊ घर अपने लिए ।
अवैध खनन में भी ,
पीछे नहीं रहा हूँ ,
पानी के स्त्रोत,
विलुप्त कर,
मैंने रौंद डाला है,
कृषि भूमि के,
उपजाऊपन को भी l
चंचलता से बहते,
नदी,नालों और झरनों को,
रोक लिया है मैंने बांध बनाकर,
ताकि मैं विद्युत उत्पादन कर,
छू संकू विकास के नये आयाम l
तुम तो माता हो,
और कभी कुमाता,
नहीं हो सकती,
मगर मैं हर रोज ,
कपूत ही बनता जा रहा हूं।
अपने स्वार्थों के लिए ,
नित कर रहा हूँ ,
जुल्म तुम पर,
फिर भी तुमने कभी ,
ममता की छांव कम न की ।
दे रही हो हवा,पानी,धूप,अन्न
आज भी,
और कर रही हो,
मेरा पोषण हर रोज।