महिलाओं को सम्मान देना नहीं, करना सीखें

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महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बीच एक समाचार को पढ़कर दिल दहल गया। एक 17 साल की बच्ची को घर के तमाम सदस्यों की मौजूदगी में कुछ असामाजिक तत्वों ने गोदी में उठाकर घर की छत से नीचे फेंक दिया। उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। इस समाज के एक रीढ़विहीन वर्ग ने ऐसा दुस्साहस इसलिए किया क्योंकि अब ऐसी घटनाएं आम हो गई हैं। कानून व प्रशासन से परे इन घटनाओं पर अब अधिकतर पीड़ित परिवार भी प्रतिक्रिया देने से बचते हैं। ‘बच्ची बच गई तो ठीक, कहीं मर जाती तो रो लेते’ की मानसिकता ने महिलाओं की स्थिति को दयनीय बना दिया है। महिलाओं के प्रति असमानता, असम्मान, अत्याचार, हिंसा, हत्या जैसे जघन्य अपराधों में आज भी कमी नहीं आई है। गाँव-देहात की तो बात ही क्या करें, जब शहर ही महिलाओं के लिए जंगल बनते जा रहे हों।

कत विधि सृजी नारि जग माहीं।

पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।।

रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने स्त्रियों की दशा देखकर सीधे ब्रह्मा जी से प्रश्नवाचक बनते हुये पूछा था कि जगत में नारी को किस तरह पराधीन बनाए हो विधाता कि उसे सपने में भी सुख नहीं है? एक अन्य लोकश्रुति के अनुसार पार्वती की विदाई के समय उनकी मां मैना कहती हैं कि विधाता ने स्त्री जाति को पैदा ही क्यों किया? पराधीन को सपने में भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। यानि तुलसीदास पार्वती की मां मैना के माध्यम से स्त्री जाति के मनोविज्ञान को दर्शाने का सफल प्रयास करते हैं। उपरोक्त वचन में तुलसीदास के मानस में नारी जीवन का चिंतन दिखता है। तो क्या स्त्री जन्म के साथ ही पराधीन हो जाती है? क्या उसे सपने देखने व उन्हें पूरा करने का भी अधिकार नहीं होता। वर्तमान कालखंड में स्थितियां बदली तो अवश्य है किन्तु सोच वही है जिसका वर्णन तुलसीदास कर गए हैं। लड़की हो; अपनी हद में रहो, रात में अकेले मत घूमो, यह काम तो लड़कों का है इसे तुम कैसे कर सकती हो, जैसे अनगिनत जुमले आप और हमने सुने हैं और शायद मरते दम तक सुनते रहेंगे। मैं आज तक नहीं समझ पाई कि शारीरिक संरचना में भिन्नता व लैंगिक असमानता के इतर ऐसी क्या असमानताएं हैं स्त्री-पुरुष में। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु तब तक जबकि अहम् से संबंधों में गाँठ न पड़ जाये। यह नियम रिश्तों में ही नहीं बल्कि कार्यस्थल पर भी लागू होता है। हालांकि अब लड़कियाँ शिक्षित हो रही हैं और ऐसा कोई क्षेत्र या पद नहीं जहाँ महिलाएं काम न कर रही हों फिर भी कुछ स्थानों में महिलाओं के साथ ऐसी असमानता क्यों? क्यों आज भी महिलाओं के प्रति संकुचित सोच का चलन है? क्यों पुरुषवादी मानसिकता महिलाओं की सफलता अथवा उनके संघर्ष को सम्मान नहीं देती?

संत कबीर कह गये हैं-

नारी निंदा न करो, नारी रतन की खान।

नारी से नर होत हैं, ध्रुब-प्रह्लाद समान।।

संत कबीर ने हर उस प्रथा पर प्रहार किया जिससे मानवता पर प्रश्नचिन्ह लगते हों। महिलाओं की स्थिति पर भी कबीर ने लिखा और जो लिखा वह उनका सम्मान बढ़ाने वाला है। यदि नारी न होती तो ध्रुब न होते, न होते प्रह्लाद और न बसता यह संसार। ऐसा नहीं है हर पुरुष नारी का सम्मान न करता हो, उसका सहायक न हो किन्तु जैसे सागर में ऊपर से नमक डालने से फर्क नहीं पड़ता वैसे ही सज्जन पुरुष पुरुषों की भीड़ में गुम हो जाते हैं। महिलाओं के प्रोत्साहन हेतु हर वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस धूमधाम से मनाया जाता है। उस एक दिन ऐसा प्रतीत होता है मानो इस संसार का सारा सम्मान हम स्त्रियों को प्राप्त है किन्तु जैसे इस दिन विशेष का अंत होता है हमारे सामने वही व्यवस्था खड़ी होती है जिससे हमें ताउम्र जूझना है। महिला चाहे मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करे, समाज सेवा में रत हो या घरेलू कामों में प्रवीण; पुरुषवादी मानसिकता से उसका सामना होना तय है। फिर यदि कई काम एक साथ करने में माहिर हो तो नीचा दिखाने के लिये लोग खुद कितना नीचे गिर सकते हैं इसकी कल्पना की जा सकती है। मेरा ऐसा कहना नकारात्मकता नहीं है। दुनिया बहुत खूबसूरत है और उससे भी अधिक सुन्दर है स्त्री जो माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका जैसे भिन्न रूपों में पुरुषों को आधार देती है किन्तु क्या वह स्वयं के सपने सच कर पाती है? उसके पाँव में पड़ी सामाजिक बेड़ियाँ उसे उसका हक दिला पाती हैं? यह स्त्री का जन्म से लेकर मरण तक संघर्ष नहीं तो क्या है?

मनुस्मृति के ३ खंड के ५६ श्लोक 

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। के माध्यम से नारी की महानता का वर्णन किया गया है किन्तु दहेज के लिए सताई गई महिला, पैतृक संपत्ति से बेदखल कर दी गई बेटी या बहु, कार्यस्थल से लेकर अपनों तक के यौन शोषण की शिकार स्त्री, किसी मनचले का प्रेम अस्वीकार कर एसिड अटैक का सामना करती लड़की क्या यह सम्मान प्राप्त कर पा रही है? नहीं। सम्मान प्राप्त करना और सम्मान होना, दोनों में अंतर है। स्त्रियाँ सम्मान प्राप्त नहीं करना चाहतीं वे सम्मान की वास्तविक हकदार हैं। वे कमजोर भी नहीं हैं। उन्हें महान बनाकर पेश करने की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि वे सृष्टि के आरम्भकाल से ही महान व मजबूत हैं। वे शबरी के रूप में राम को मार्ग दिखाती हैं तो दुर्गा के रूप में संहार भी करती हैं। वे अहिल्या के रूप में वात्सल्य की मूरत हैं तो वे मंदोदरी के रूप में सही-गलत का भान भी कराती हैं। अब यह पुरुषों को तय करना है कि वे शिव के रूप में आदिशक्ति हैं या रावण के रूप में आतातायी। ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ जैसी उपमाएं यदि यथार्थ के धरातल पर उतारनी हैं तो ‘संस्कार’ को पल्लवित करना होगा। जब संस्कार पोषित होंगे तो स्त्रियों का स्वतः सम्मान होगा।

– जिया मंजरी

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