डॉ० अम्बेडकर : धर्मान्तरण तथा हिन्दुस्तान की एकता और अखण्डता

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गुंजेश गौतम झा

ambedkar महात्मा बुद्ध के बाद यदि किसी महापुरूष ने धर्म, समाज, राजनीति और आर्थिक धरातल पर सामाजिक क्रांति से साक्षात्कार कराने का सार्थक प्रयास किया तो वह थे- बाबा साहब डॉ० भीमराव अंम्बेडकर। उनका सूर्य-सदृश तेजस्वी व्यतित्व, चंद्रमा जैसा सम्मोहक व्यवहार, ऋषियांे जैसा गहन गम्भीर ज्ञान, संतो जैसा उत्सर्ग-बल और शांत स्वभाव, उनके चरित्र के विभिन्न पहलू थे। डॉ० अम्बेडकर का व्यक्तित्व विद्वत्ता, संगठन कौशल और प्रभावी नेतृत्व जैसे गुणों का संगम है। इसलिए वे देश के आधार स्तंभ माने गए हैं।

अस्पृश्यता के निवारण में तथा लाखों अस्पृश्यों में आत्मविश्वास और आत्मशक्ति जगाने में उनको जितनी सफलता मिली है वह सचमुच भारत के लिए उनकी बड़ा सेवा है। उनका कार्य बहुत समय तक रहने वाला है। वह स्वदेशाभिमान तथा मानवता से प्रेरित कार्य है। भारतरत्न बाबा साहब डॉ० अम्बेडकर का जीवन अति संघर्षपूर्ण रहा और अपने जीवन के संघर्ष से ही उन्होंने मानव सभ्यता के इतिहास में अपना नाम अग्रणी मानवतावादी नेताओं में दर्ज करवा लिया। अनवरत अध्ययन, आक्रोशपूर्ण पर विद्वतापूर्ण लेखन, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्रों मे सुसंगठित एवं क्रमबद्ध संघर्ष बाबा साहब के जीवन के अद्भुत अध्याय है।

बाबा साहब ऐसे महापुरूष थे, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन की सभी महत्वाकांक्षाओं को ठोकर मार कर अपने दुःखी और पीडि़त अपमानित जनों के जीवन में जागृति और प्रकाश लाने तथा जातिवाद की विसंगतियों के प्रति जागृत करने और उनमें उत्साह एवं स्फूर्ति लाने के लक्ष्य को अपने जीवन का ध्येय बना लिया तथा इस चिरंजीवी-राष्ट्र के नवनिर्माण को ही अपना साध्य समझा। अत्यंत गरीबी में वे पले, उपेक्षाओं के बावजूद पढे़ और विरोधों के होते हुए भी बढ़ते गये।

उनका जन्म उस समय अस्पृश्य कही जाने वाली महार जाति में हुआ था। गरीब और पिछड़े हिन्दुओं की सेवा में ही उनका अधिकांश समय लगा परंतु उनका चिंतन राष्ट्रहित पर ही आधारित था। उनका मानना था कि प्रत्येक विषय की कसौटी राष्ट्रीय ही हो सकती है। समग्र समाज का उत्थान किये बिना राष्ट्र का विकास संभव नहीं। इस कारण वे समाज के अंतिम छोर पर खड़े उस दीन-हीन, दरिद्रनारायण के कष्ट को समझते हुए राष्ट्र की उन्नति में उसकी भगीदारी के प्रति पूर्ण सचेष्ट थे।(१)

उनका मानना था कि जातिभेद के जहर ने समाज को बाँटा है तथा राष्ट्र को जर्जर और दुर्बल बनाया है। समाज की इस व्यवस्था के कारण करोड़ों लोगों ने सैकड़ों वर्षों तक अपमानित एवं नारकीय जीवन जीया है। उनका दृढ़ मत था कि अब यह भेद समाप्त होना चाहिए और यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि अनुसूचित जातियों के हिन्दू भी उतने ही आस्थावान हिन्दू है जितना कोई भी अन्य हिन्दू।

भारत के सर्वांगीण विकास और राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषय हिंदू समाज का सुधार एवं आत्म-उद्धार है। हिंदू धर्म मानव विकास और ईश्वर की प्राप्ति का स्रोत है। किसी एक पर अंतिम सत्य की मुहर लगाए बिना सभी रुपों में सत्य को स्वीकार करने, मानव-विकास के उच्चतर सोपान पर पहुंचने की गजब की क्षमता है, इस धर्म में! श्रीमद्भगवद्गीता में इस विचार पर जोर दिया गया है कि व्यक्ति की महानता उसके कर्म से सुनिश्चित होती है न कि जन्म से। इसके बावजूद अनेक एतिहासिक कारणों से इसमें आई नकारत्मक बुराइयों, ऊंच-नीच की अवधारणा, कुछ जातियों को अछूत समझने की आदत इसका सबसे बड़ा दोष रहा है। यह अनेक सहस्राब्दियों से हिंदू धर्म के जीवन का मार्गदर्शन करने वाले आध्यात्मिक सिद्धांतों के भी प्रतिकूल है।

हिंदू समाज ने अपने मूलभूत सिंद्धातों का पुनः पता लगाकर तथा मानवता के अन्य घटकों से सीखकर समय समय पर आत्म सुधार की इच्छा एवं क्षमता दर्शाई है। सैकड़ों सालों से वास्तव में इस दिशा में प्रगति हुई है। इसका श्रेय आधुनिक काल के संतों एवं समाज सुधारकों स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, राजा राममोहन राय, महात्मा ज्योतिबा फुले एवं उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले, नारायण गुरु, गांधीजी और डा। बाबा साहब अम्बेडकर को जाता है।

इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा इससे प्रेरित अनेक संगठन हिंदू एकता एवं हिंदू समाज के पुनरुत्थान के लिए सामाजिक समानता पर जोर दे रहे है। संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस कहते थे कि ’’यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो इस संसार में अन्य दूसरा कोई पाप हो ही नहीं सकता।’’ वर्तमान दलित समुदाय जो अभी भी हिंदू है अधिकांश उन्हीं साहसी ब्राह्मणों व क्षत्रियों के ही वंशज हैं, जिन्होंने जाति से बाहर होना स्वीकार किया, किंतु विदेशी शासकों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन स्वीकार नहीं किया। आज के हिंदू समुदाय को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने हिंदुत्व को नीचा दिखाने की जगह खुद नीचा होना स्वीकार कर लिया।

हिंदू समाज के इस सशक्तीकरण की यात्रा को डॉ। अम्बेडकर ने आगे बढ़ाया, उनका .ष्टिकोण न तो संकुचित था और न ही वे पक्षपाती थे। दलितों को सशक्त करने और उन्हें शिक्षित करने का उनका अभियान एक तरह से हिंदू समाज ओर राष्ट्र को सशक्त करने का अभियान था। उनके द्वारा उठाए गए सवाल जितने उस समय प्रासंगिक थे, आज भी उतने ही प्रासंगिक है कि अगर समाज का एक बड़ा हिस्सा शक्तिहीन और अशिक्षित रहेगा तो हिंदू समाज और राष्ट्र सशक्त कैसे हो सकता है?

हिन्दू समाज की रूढि़वादी सामाजिक व्यवस्था की बहुत धीमी गति देखकर बाबा साहब दुःखी थे। क्या करें और क्या न करें, हिन्दू धर्म में रहे या ना रहे, जैसी असमंजस की स्थिति में भी वे अडिग रहे। और भारतीय संस्कृति से अद्भूत प्रेम तथा देश भक्ति के अटूट भाव के कारण २१ वर्ष तक उन्होंने कोई निर्णय नहीं लिया।(२)

अम्बेडकर जी की अनिर्णय की स्थिति तथा इस घोषणा कि ‘‘मैं हिन्दू के रूप जन्मा हूँ, परन्तु हिन्दू रहकर मरना मुझे मंजूर नहीं’’ से ईसाई मिशनरियाँ और इस्लामी संस्थाएँ बहुत प्रसन्न हुई। सारी दुनियाँ के चर्च, समग्र ईसाई जगत में बाबा साहब अम्बेडकर ईसाई पंथ स्वीकार करें, इसलिए ढेरों धन-दौलत का लालच दिया था। दूसरी ओर समस्त इस्लामी जगत उन्हें मुसलमान बनाने के लिए उतावला हो रहा था। ‘‘हैदराबाद के निजाम ने तो बाबा साहब को अकूत धन का लालच भी दिया। लेकिन अम्बेडकर जी नहीं डगमगाए।’’(३)

समस्त ईसाई और इस्लामी आलम सहित तमाम वर्ग के लोग बाबा साहब को अपने पक्ष में लेने के लिए पीछे पड़ गये थे। उस समय उन्होंने जो बात कहीं वह बहुत महत्वपूर्ण थी। आने वाले दिनों में हिन्दुस्तान की एकता और अखण्डता के लिए बाबा साहब के इन शब्दो को स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना है। आज इसका मूल्यांकन करे या न करें, परन्तु बाबा साहब का उस समय का किया गया निर्णय और उस निर्णय के पीछे निहित भावना बहुत ही श्रेष्ठ थी।

उन्होंने कहा- ‘‘मैं हिन्दू धर्म छोड़ दूँगा। हिन्दू समाज में जो विकृतियाँ आ गयी है, उन विकृतियों के लिये ही मेरा विरोध है। परन्तु मैं हिन्दुस्तान से प्रेम करता हूँ। मैं जीऊँगा तो हिन्दुस्तान के लिए, और मरूँगा तो हिन्दुस्तान के लिए। मेरे शरीर का प्रत्येक कण, मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण हिन्दुस्तान के लिये काम आये इसीलिये मैं जनमा हूँ। मैं हिन्दू धर्म छोड़ दूँगा, परन्तु मैं ऐसे धर्म को अंगीकार करूँगा जो हिन्दुस्तान की धरती पर ही जनमा हो। मुझे ऐसा ही धर्म स्वीकार है जो विदेशों से आयात किया हुआ नहीं हो। इसी कारण मैं बौद्ध धर्म अंगीकार करता हूँ।’’(४)

बाबा साहब के एक अनन्य शिष्य शंकरानन्द शास्त्री ने लिखा कि उनका मानना था कि मतांतरण से राष्ट्रान्तरण होता है।(५) बाबा साहब का मानना था कि इस्लाम और ईसाईयत विदेशी मजहब है। इनके अपनाने से व्यक्ति अपने देश की परम्परा से टूटता है। इसके बाद बाबा साहब ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।

उन्होंने नागपुर में दीक्षा ग्रहण की। वे भगवान बुद्ध की शरण में दीक्षित हो गये। उनका गला भर आया था। उन्होंने रहस्योदघाटन किया कि मैंने अरसा पहले महाँत्मा गान्धी को वचन दिया था कि ’’मैं जिस मत में भी दीक्षित हूँगा, तो यह ध्यान रखूंगा कि उससे भारतीयता को कम से कम नुकसान हो। आज मैंने वह वचन पूरा कर दिया है। बुद्ध भारत की सनातन परम्परा का ही हिस्सा हैं। इस लिये मेरी इस दीक्षा से कोई हानि नहीं होगी।’’

देशभक्ति की यह कितनी उच्च पराकाष्ठा है। समाज की विकृतियों के सामने लड़ना था, परन्तु समाज के सम्मुख हमेशा के लिए ऐसी परिस्थिति पैदा नहीं करनी थी, जिसके कारण उनके बाद दलित समाज ठोकर खाता फिरे। कितना गहन चिंतन था ! उनकी कैसी दिव्य दृष्टि थी। जो लोग धर्मान्तरण की प्रक्रिया से जुड़े हंै, उन्हें तो बाबा साहब अम्बेडकर का यह संदेश अहर्निश स्वीकार करने जैसा है। बाबा साहब ने दलितों को अस्पृश्यता की यातनाओं से मुक्ति दिलवानें के लिए जिस प्रकार से राष्ट्रद्रोह नहीं किया, उसी प्रकार धर्मद्रोह भी नहीं किया।(६)

डॉ० अम्बेडकर एक महान् मानवतावादी के साथ-साथ उच्च कोटि के देशभक्त थे। उनके धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर महात्मा गाँधीजी ने भी स्पष्ट कहा था- ‘‘डॉ० अम्बेडकर ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे, जो राष्ट्र के विरूद्ध हो। कुछ भी हो वो सच्चे राष्ट्रभक्त हैं।’’

उनके धार्मिक आन्दोलन को समझाते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरूजी) ने लिखा था- ‘‘भूतकाल में समाज सुधार के लिये भगवान बुद्ध ने प्रचलित रूढि़यों की आलोचना की थी, समाज से कटकर अलग होने के लिए नहीं। वर्तमान काल में भी बाबा साहब अम्बेडकर ने समाज की भलाई के लिए, धर्म के हित के लिए, हमारे चिरंजीवी समाज को दोषमुक्त तथा शुद्ध बनाने की दृष्टि से काम किया, समाज से कटकर अन्य पंथ बनाने की दृष्टि से नहीं। अतएव डॉ० अम्बेडकर भगवान बुद्ध के उत्तराधिकारी हैं, इस स्वरूप से उनकी पवित्र स्मृति में हार्दिक प्रणाम अर्पित करता हूँ।’’(७)

डॉ० अम्बेडकर राजनैतिक स्वतंत्रता के हामी थे। परन्तु प्राथमिकता सामाजिक स्वतंत्रता को देते थे। उनका दर्शन एकात्म मानव दर्शन का पर्याय था। सांसद एवं प्रख्यात शिक्षाविद् डॉ० मुरली मनोहर जोशी के शब्दों में- ‘‘एकात्म मानव दर्शन इस समरस जीवन के विकास के लिए बहुत ही पुष्ट दार्शनिक आधार है। एकात्मता और समरसता समानार्थी है। मैं ऐसा समझता हूँ कि डॉ० अम्बेडकर के जीवन की अर्न्तवेदना इस बात से उपजी थी कि भारत में एकात्म दर्शन को विस्मृत कर दिया गया। मेरी दृष्टि में डॉ० अम्बेंडकर एक सामाजिक प्रक्रिया को जन्म दे रहे थे। जब मंथन होता है तो उसमें से विष भी निकलता है और अमृत भी। बाबा साहब अम्बेडकर की इस प्रक्रिया में से भी दोनों ही प्रवृत्तियाँ हमारे सामने आयी। यह सच है बाबा साहब के जीवन में अमृत-विष की तरह दोनांे ही प्रकार की प्रवृत्तियाँ हमारे सामने आयी। मगर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनकी नीयत में अमृत था। उद्देश्य में भी अमृत ही निहित था। यदि उसे पाने में औषध की तरह विष का प्रयोग किया जाय तो निषेध नहीं। हिन्दू धर्म के कट्टर विचारों और रूढि़यों के विरूद्ध आवाज उठाने वाले व्यक्ति में मात्र अमृतमय प्रवृत्ति देखना भारी भूल है।’’

भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने ठीक कहा- ‘‘बाबा साहब के विचारों के मूल में शुद्ध भारतीयता थी। धर्म ही उसकी नींव है। उनका आग्रह इतना ही था कि धर्म-सद्धर्म हो, अधर्म ना रहें। भगवान बुद्ध, महात्मा कबीर, महात्मा ज्योतिबा फूले- ये ही उनके गुरू थे। विद्या, विनय, शील ही उनके आराध्य देव थे। ऐसे मानसिक उत्कर्ष वाले नेता हमारे बीच पैदा हुए यह हमारे लिये सौभाग्य की बात है।(८)

उनकी दृष्टि में राष्ट्रहित सर्वोपरि था। इसलिए वे मुस्लिम विघटनकारियों से कभी सहमत नहीं थे क्योंकि उनमें हिन्दुओं के साथ सह-अस्तित्व की बुनियादी भावनाओं का अभाव है। इसके बिना देश की उन्नति असम्भव है, इसी परिप्रेक्ष्य में सन् १९४० में उन्होंने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग पर अपने जो विचार व्यक्त किये हैं वे पठनीय है। इसके लिए उन्होंने जनसंख्या की पूर्ण अदला-बदली को भी अनिवार्य बताया और स्पष्ट किया की मुसलमानों द्वारा इस देश की उन्नति में समान्यतया वांछित रूचि ना लेना उनके रूढि़वादी धार्मिक सोच के कारण ही है। उनका विश्वास था कि मुसलमानों की माँगांे को मानते जाने से उनकी माँगांे का अन्त कभी नहीं होगा। वे कांग्रेस के तुष्टिकरण की नीति के सख्त खिलाफ थे।

एक बात जिसकी आजकल बहुत चर्चा हो रही है, वह संविधान की दो आधारभूत अवधारणाओं, पंथनिरपेक्षता और समाजवाद को लेकर है। अम्बेडकर जी ने इन दोनों अवधारणाओं को मूल संविधान की प्रस्तावना में शामिल नहीं किया था। शामिल करने की बात तो दूर, बल्कि इसका विरोध भी किया था। बाबा साहब के विरोध को आज के संदर्भों में नहीं समझा जा सकता। वह युग १९४७-१९५० का ऐसा युग था, जबकि समाजवाद की लहरों में बहना प्रगतिशीलता की निशानी समझा जाता था। पण्डित नेहरू तो समाजवाद की खाज के सबसे बड़े शिकार थे। तब भी बाबा साहब ने इसे प्रस्तावना में शामिल नहीं किया। प्रो० के.टी। शाह ने इसे शामिल करने का आग्रह किया था। तो अम्बेडकर जी का कहना था कि हम किसी विशेष वाद या विचार को भावी पीढि़यों के गले में कैसे बांध सकते हैं ?

वर्तमान समय में देश ओर दुनिया में ऐसी धारणा बनाई जा रही है कि अम्बेडकर केवल दलितों के नेता थे। उन्होंने केवल दलित उत्थान के लिए कार्य किया यह सही नहीं होगा। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि उन्होंने भारत की आत्मा हिंदुत्व के लिए कार्य किया। जब हिंदुओं के लिए एक विधि संहिता बनाने का प्रंसग आया तो सबसे बड़ा सवाल हिंदू को पारिभाषित करने का था। डॉ। अम्बेडकर ने अपनी दूर.ष्टि से इसे ऐसे पारिभाषित किया कि मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी को छोड़कर इस देश के सब नागरिक हिंदू हैं, अर्थात विदेशी उद्गम के धर्मों को मानने वाले अहिंदू हैं, बाकी सब हिंदू है। उन्होंने इस परिभाषा से देश की आधारभूत एकता का अद्भूत उदाहरण पेश किया है।

आम्बेडकर जी समाज के एक बड़े हिस्से को विदेशी मिशनरियों व सामी सम्प्रदायों के जाल से बचाने का रास्ता दिखा गये। भारत विभाजन पर जब दोनों ओर से बहुत ही दर्दनाक हालात में लोगों की अदला-बदली हो रही थी तो बाबा साहब ने अपने लोगों को चेतावनी दी कि ”पाकिस्तान या हैदराबाद में कोई भी निम्न जाति का व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करने की बात तक न सोचे।”

संविधान सभा में उन्होंने कहा था कि ”आज हम राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक .ष्टि से टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं। हम आपस में लड़ने वाले गुट बन गये हैं। ईमानदारी से कहूं तो मैं भी इस प्रकार लड़ने वाले एक गुट का नेता हूँ। फिर भी मुझे विश्वास है कि कालानुक्रम में अच्छा समय आने पर हमारे देश को एक होने से रोकना संसार की किसी भी शक्ति के लिये संभव नहीं। हममें इतने जाति पंथ हैं, तो भी इसमें कोई संदेह नहीं कि हम एक ही समुदाय हैं। भारत के विभाजन के लिये यद्यपि मुसलमानों ने लड़ाई की तो भी आगे कभी एक दिन उन्हें अपनी गलती महसूस होगी और उनको लगेगा एक अखंड भारत ही हमारे लिये अच्छा है।“ बाबा साहेब के ये प्रश्न आज भी किसी सीमा तक अपने उत्तर की तलाश में हैं।(९)

डॉ। अम्बेडकर का पूरा संघर्ष हिंदू समाज ओर राष्ट्र के सशक्तीकरण का ही था। डॉ। अम्बेडकर के चिन्तन और .ष्टि को समझने के लिए यह ध्यान रखना जरूरी है कि वे अपने चिन्तन में कहीं भी दुराग्रही नहीं है। उनके चिन्तन में जड़ता नहीं है। अम्बेडकर का दर्शन समाज को गतिमान बनाए रखने का है। विचारों का नाला बनाकर उसमें समाज को डुबाने-वाला विचार नहीं है। अम्बेडकर मानते थे कि समानता के बिना समाज ऐसा है, जैसे बिना हथियारों के सेना। समानता को समाज के स्थाई निर्माण के लिये धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में तथा अन्य क्षेत्रों में लागू करना आवश्यक है। डॉ। अम्बेडकर मानते थे कि धर्म की स्थापनायें जीवन के लिये उत्प्रेरक होती है, इसी कारण से वे मार्क्सवाद के पक्ष में नहीं थे।

बाबा साहब डॉ० भीमराव अम्बेडकर को सिर्फ दलितों का उद्धारक तथा संविधान निर्माता मानना उनका सही मूल्यांकन नहीं है। उनके चिंतन में एक विकसित राष्ट्र की परिकल्पना थी और समस्त मानव के लिए मानवीय करूणा और सच्ची मानवता की स्थापना थी। अब वक्त आ गया है कि बाबा साहब अम्बेडकर के समग्र राष्ट्रीय स्वरूप को प्रस्तुत करके उनके साथ न्याय किया जाये, न कि उन्हें एक वर्ग का नेता प्रस्तुत करके उनके महान व्यक्तित्व को धूमिल किया जाये। अम्बेडकर के अध्येताओं के लिये इसका ध्यान रखना जरूरी है। बाबा साहब को अभी तक जितना समझा गया है वह उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का एक चौथाई भी नहीं है। जब उनका पूरा राष्ट्रीय स्वरूप सामने आयेगा, तभी पता चलेगा की हमारे युग ने किस महान विभूति को जन्म दिया था।

संदर्भ:-

१.    बाबा साहब व्यक्तित्व और विचार- डॉ० कृष्णगोपाल

२.    बाबा साहब व्यक्तित्व और विचार- डॉ० कृष्णगोपाल

३.    अम्बेडकर की जीवन दृष्टि और भारत का भविष्य (लेख)- डॉ० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री।

४.    बाबा साहब अम्बेडकर : क्रांति कारी समाज सुधारक (लेख)- नरेन्द्र मोदी।

५.    अम्बेडकर की जीवन दृष्टि और भारत का भविष्य (लेख)- डॉ० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री।

६.    बाबा साहब अम्बेडकर : क्रांति कारी समाज सुधारक (लेख)- नरेन्द्र मोदी।

७.    डॉ० भीमराव अम्बेडकर जीवन और दर्शन- हरदान हर्ष।

८.    डॉ० भीमराव अम्बेडकर जीवन और दर्शन- हरदान हर्ष।

९.    अम्बेडकर की जीवन दृष्टि और भारत का भविष्य (लेख)- डॉ० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री।

नामरू। गुंजेश गौतम झा

1 COMMENT

  1. समस्त सनातन ,समाज ने बाबासाहेब का आभार मानना चाहिए की उन्होंने एक विदेशी धर्म को न अपनेते हुए इसी धरती के धर्म को अपनाया उनका यह कदम उन लोगों के गाल पर एक तमाचा है जो स्वार्थ,लोभ के लिए दूसरे धर्म में दीक्षित होते हैं. हमारे जो कथाकार और कीर्तनकार हैं ,उन्हें चाहिए की जिस प्रकार वे महापुरुषों के जीवन की कथाओं का कीर्तन करते हैं उसी प्रकार ,अपनी कथाओंमे शहीदों ,और बाबासाहेब सरीखे विनम्र क्रांतिकारियों का उल्लेख भी करें।

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